ज्योतिष में फलादेश के निमित्त विभिन्न पद्धतियां प्रचलित हैं लेकिन उन सभी में पराशरोक्त (लघुपाराशरी) सिद्धान्त तथा पाराशरी महादशा ही प्रमुख हैं। यद्यपि महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, प्राणदशा आदि इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म विभाजन हैं - जिससे दशा समय को दिनों तथा घंटों तक में विभाजित कर सूक्ष्म फलादेश कहा जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद फलादेश सही घटित नहीं होता। वास्तव में ज्योतिष की "अष्टकवर्ग" और "गोचर" पद्धतियां इस दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखती हैं। ज्योतिष के फलित सूत्रों के अपेक्षाकृत "अष्टकवर्ग" का सिद्धान्त बहुत ही स्पष्ट और युक्ति संगत है कि कोई भी ग्रह उच्च का, स्वक्षेत्री, केन्द्रादि बलयुक्त, योग कारक ही क्यों न हो, यदि वह अष्टकवर्ग में दुर्बल है तो शुभफल दे पाने में समर्थ नहीं होता। इसके विपरीत षष्ठ, अष्टम, व्यय आदि दुष्ट स्थानों में स्थित, नीच शत्रुक्षेत्री अदि ग्रह भी शुभ फल दे सकते हैं यदि वे अष्टकवर्ग में बली हों।
अष्टकवर्ग का मुख्य आधार यह है कि जन्म के समय या गोचर में ग्रहों की जो परस्पर सापेक्ष स्थिति होती है, उसी के अनुसार फल के शुभत्व या अशुभत्व का निर्णय होता है। सामान्यतः होरा में (कुंडली में) प्रत्येक ग्रह का भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होगा, अब एक ग्रह दूसरे ग्रह की स्थिति से कितना प्रभावित होगा - इसका थोड़ा बहुत विचार दृष्टि से हो सकता है। अष्टकवर्ग में प्रत्येक ग्रह की परस्पर सापेक्ष स्थिति को देखकर उसके शुभाशुभ फल का सही निर्णय किया जा सकता है।
बृहत्पराशर होराशास्त्र के पूर्वखण्ड में महर्षि पराशर ने ग्रहों के समग्र प्रभावों की व्याख्या की है जो ग्रहों की विभिन्न भावों में स्थिति के कारण उत्पन्न होता है। उत्तरखण्ड में अष्टकवर्ग पर अध्याय है, जिसके प्रारम्भ में स्वयं पराशर और उनके शिष्य मैत्रेय के मध्य संवाद दिया गया है :-
कलौ पापरतानां च मन्दा बुद्धिर्यतोनृणाम्।
अतोऽल्पबुद्धिगम्यं यत् शास्त्रमेतद् वदस्व ।।३।।
तत्तत्कालग्रह स्थित्या मानवनां परिस्फुटम्।
सुख दुःखपरिज्ञानमायुषोनिर्णयं तथा ।।४।।
बृहत्पराशर होराशास्त्र, अध्याय ६८
मैत्रेय अपने गुरु से निवेदन करते हैं - कलियुग में पाप कर्म निरत मनुष्यों की बुद्धि चूंकि मन्द हो जाती है अतः अल्प बुद्धि से भी जो शास्त्रानुशासन हो कृपया वह बताएं , जिससे मनुष्यों को उस समय की ग्रह स्थिति से सुस्पष्ट रूप में सुख-दुःख के पूर्ण ज्ञान तथा आयु का निर्णय हो सके।
अष्टकवर्ग विधि का तर्काधार समझाते हुए महर्षि पराशर कहते हैं :-
"जिस तरह विभिन्न भावों में ग्रहों की स्थिति के प्रभाव का आकलन जन्म-लग्न और चंद्रमा से किया जाता है, उसी तरह दूसरे ग्रहों को भी लग्न की तरह मानकर और उनसे भावों को गिनते हुए भी फलों का आकलन करना चाहिए। इस तरह सात ग्रहों (राहु और केतु को छोड़कर) और लग्न से प्राप्त प्रभावों से ही पूरा चित्र स्पष्ट होता है। जब सातों ग्रहों और लग्न के समग्र प्रभावों को एक साथ आँका जाये तो वह अष्टकवर्ग विश्लेषण कहलाता है"।
भारतीय ज्योतिष में किसी भी कुंडली के फलकथन के लिए प्राचीन काल से ही अनेक विद्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है। होराशास्त्र के महर्षियों ने सभी प्रकार के कर्मों से उत्पन्न होने वाले शुभ या अशुभ फलों को जानने के लिए जिस पद्धति का विकास किया उसे '
अष्टकवर्ग' कहा गया है। अष्टकवर्ग के ज्ञान से मनुष्य के समस्त कर्मजनित शुभ या अशुभ फल को वैज्ञानिक ढंग से जाना जा सकता है।
अष्टकवर्ग की सहायता से फलादेश को अत्यन्त सूक्ष्मता प्रदान की जाती है। व्यष्टि व समष्टि के अपूर्व समन्वय का सिद्धान्त इस पद्धति से देखा जा सकता है। उदहारण के लिए कोई ग्रह शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होकर स्वराशि, उच्चराशि या मित्रादि की राशि में स्थित हो तो अपने भाव से सम्बन्धित फलों की वृद्धि करेगा, यह एक सामान्य सिद्धांत है। लेकिन कितनी वृद्धि करेगा? कुल शुभ व अशुभ फल का अनुपात क्या होगा? इस विषय में अष्टकवर्ग पद्धति ही निर्णायक मानी गयी है। इसकी सहायता से आयु, धन, विद्या, बुद्धि व सुखादि का विशेष निर्णय किया जाता है।
अष्टकवर्ग ही एक ऐसी पद्धति है जिसमें ग्रहों के परस्पर संबंधों को प्रभावशाली ढंग से एक सूत्र में पिरोया गया है। एक ग्रह अपने बल के अनुसार ही कार्य करेगा। इसको मापने की अन्य विधियाँ अपने में विशिष्ट अर्थ रखती हैं परन्तु इन सभी में एक तथ्य को भुला दिया जाता है कि कोई भी ग्रह शून्य में क्रियाशील नहीं होता है, शेष ग्रह भी आगे-पीछे, निरन्तर क्रियारत होते हैं। इसलिए, कोई भी ग्रह उतना ही कार्य कर पाता ह, जितना अन्य ग्रह उसके लिए संभव बनाते हैं। दूसरे ग्रह या तो उसके काम में सहयोग करते हैं या विरोध। इस तरह से जातक सभी ग्रहों के सामूहिक फल भोगता है। यह केवल अष्टकवर्ग से ही कहा जा सकता है कि यदि किसी राशि में बृहस्पति के पास ७ भिन्नाष्टक और ४२ सर्वाष्टक बिंदुओं का बल है तब इसका अर्थ है कि सभी ग्रहों ने मिलकर बृहस्पति में इतनी अधिक मात्रा में सार्थक बल का विनियोग किया है।
अष्टकवर्ग पर किये गये शोधों से पता चला है कि यदि फलकथन के लिए प्रयोग किये जाने वाली अन्य विद्याओं के साथ-साथ अष्टकवर्ग में प्रयुक्त
सर्वाष्टकवर्ग का भी उपयोग किया जाये तो सही निर्णय तक पहुँचने में मदद मिल सकती है।
ग्रहों के विभिन्न राशियों में भ्रमण करने से व्यक्ति विशेष पर शुभाशुभ प्रभाव गोचर फल कहलाता है। इसका विचार जन्म राशि से किया जाता है। वैसे ही अन्य ग्रहों और लग्न से गोचर विचार को अष्टक वर्ग विचार कहा जाता है। अष्टक का अर्थ होता है आठ जिनमे सात ग्रह और जन्म लग्न सम्मिलित हैं।
अष्टकवर्ग में राहू-केतु को छोड़कर शेष सात ग्रह और लग्न सहित आठ को महत्व दिया गया है।
यह सातों ग्रह हर समय गतिमान रहकर अपनी स्थिति बदलते रहते हैं जो शुभ भी हो सकती हैं और अशुभ भी। प्रत्येक ग्रह अपना प्रभाव किसी निश्चित दूरी से दूसरे स्थान पर डालता है। यदि कोई ग्रह शुभ स्थान व् शुभ योगों में होकर भी शुभ फल नहीं देता हो तो इसका कारण अष्टकवर्ग से सरलता से जाना जा सकता है। जैसे अगर कोई ग्रह अपनी उच्च राशि में २५ से कम बिंदुओं पर होगा तो अपना शुभ प्रभाव नहीं दे पायेगा।आठों (सात ग्रह और लग्न) से विचार करने पर कोई भी ग्रह अधिक के दृष्टिकोण से शुभ हो तो शुभ और अगर अशुभ हो तो अशुभ। इन प्रभावों को अष्टकवर्ग में महत्व देकर फलित करने की एक सरल विधि तैयार की गयी है। यही अष्टक वर्ग विचार कहलाता है।
वाराहमिहिर के पुत्र पृथुयशो ने भी अपनी पुस्तक होरसारा में लिखा है, "
गोचर के द्वारा सामान्य परिणामों को जाना जा सकता है परन्तु सूक्ष्म और शुद्ध परिणाम अष्टकवर्ग के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं।"
सर्वप्रथम पारिभाषिक शब्दों के बारे में जानकारी होना आवश्यक है:-
- रेखा (|) के चार पर्यायवाची शब्द रेखा, स्थान, फल और कला हैं। बिंदु (०) के भी चार पर्याय शब्द हैं - करण, बिंदु, दाय और अक्ष। अष्टकवर्ग द्वारा फलादेश जानते समय देखा जाता है कि वहां पर कितनी रेखाएं और बिंदु हैं? शुभफल को प्रायः रेखा (|) से और अशुभफल को बिंदु (०) से व्यक्त किया जाता है। रेखा और बिंदु केवल शुभ या अशुभ फल के प्रतीक हैं इनमें शुभ या अशुभ फल निहित नहीं है। सूचना के लिए दक्षिण भारत में शुभफल का द्योतक बिंदु को माना जाता है। रेखा को शुभफल की द्योतक और बिंदु को अशुभफल का द्योतक मानते हुए यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के जन्म समय उसकी कुंडली में जिस राशि को रेखाएं प्राप्त हों और उस स्थान पर ग्रह भी हों तो शुभफल होता है। इसी तरह से किसी राशि में बिंदु हों तथा रेखा न हों तो अशुभ फल होता है। किसी राशि में बिंदु और रेखा समान (४-४) संख्या में हों और उसमें साथ ही ग्रह भी विद्यमान हों तो उसका सम (मिश्रित) फल होता है। यदि किसी स्थान पर कुछ भी न हो तो सामान्य (सम) फल होता है।
- भिन्नाष्टक वर्ग या सभी सातों ग्रहों का अष्टकवर्ग।
- सर्वाष्टकवर्ग - बारहों भावों के प्रत्येक भाव में बिंदुओं का कुल योग। सभी ग्रहों द्वारा अपने-अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किसी विशेष राशि में दिए गए बिंदुओं का कुल योग एक अन्य वर्ग या कुंडली में दर्शाया जाता है, जिसे सर्वाष्टक वर्ग कहते हैं।
- प्रस्तार चक्र - सारणीबद्ध रूप में यह बारह राशियों में सभी बिंदुओं का कुल योग है।
शुभाशुभ फल का विशेष विचार करने के लिए जन्म लग्न से या चन्द्रमा से जो ग्रह
उपचय (वृद्धि) यानि कुंडली के
३, ६, १०, ११वें स्थानों में हों तथा स्वराशि, सवोच्च राशि, मित्र राशि या मूल त्रिकोण राशि में हो तो उसका अष्टक वर्ग जनित फल यदि
शुभ हो तो पूर्ण जानना चाहिए। यदि उक्त परिस्थितयों में अशुभ अष्टक वर्ग जन्य फल हो तो अशुभ फल की मात्रा
मध्यम होती है। यदि कोई ग्रह जन्म लग्न या चन्द्र से पीड़ा स्थान यानि
अपचय (
१, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२वें) में स्थित हो तो उसका शुभ फल
अल्प होता है तथा अशुभ फल अधिक होता है।
सामान्यतः रेखायुक्त होना शुभ फलदायी होता है किन्तु रेखायुक्त ग्रह भी यदि उपचय स्थान में और स्वोच्चादि राशि में स्थित होगा तो उसका पूर्ण और वैसे ही अपचय स्थानों में होने पर शुभ फल कम हो जाएगा। यही क्रम अशुभ फल के सन्दर्भ में भी अपनाना चाहिए। उपचय स्थानगत ग्रह का फल मध्यम और अपचय स्थानगत ग्रह का अशुभ फल अधिक होता है।