Saturday, May 9, 2020

देवपूजन में कुछ विचारणीय तथ्य

  1. देवपूजा में पुष्प अधोमुख कर न चढ़ायें। वे जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही चढ़ायें। बिल्वपत्र को उल्टा करके (अधोमुख) चढ़ायें तथा कुशा के अग्रभाग से देवताओं पर जल न छिड़कें। 
  2. धोती में रखा हुआ और जल में डुबाया हुआ पुष्प देवगण ग्रहण नहीं करते हैं। 
  3. भगवन शंकर को कुन्द, श्रीविष्णु को धतूरा, देवी को आक तथा मदार और सूर्य को तगर का पुष्प नहीं चढ़ाना चाहिए। 
  4. श्री विष्णु को चावल, गणेश को तुलसी, दुर्गा को दूर्वा और सूर्य को बिल्वपत्र न चढ़ायें। 
  5. देवताओं के प्रीत्यर्थ प्रज्ज्वलित दीपक को बुझाना नहीं चाहिए। 
  6. हाथ में धारण किये गये पुष्प, ताम्रपात्र में रखा गया चन्दन और चर्मपात्र में रखा गया गंगा जल अपवित्र हो जाता है। 
  7. दीपक को दीपक से जलाने पर मनुष्य दरिद्र और रोगी होता है। 
  8. एक हाथ से प्रणाम करने तथा एक प्रदक्षिणा करने से पुण्य नष्ट होता है। केवल चंडी और विनायक की एक ही प्रदक्षिणा का विधान मिलता है। 
  9. मांगलिक कार्यों में दूसरों की पहनी हुई अंगूठी धारण नहीं करनी चाहिए। 
  10. सभी पूजाक्रमों में पत्नी को दक्षिण (दाहिने) में बैठने का विधान है किन्तु अभिषेक और विप्रपादप्रक्षालन तथा सिन्दूर दान के समय वाम भाग में अर्धांगिनी के बैठने का विधान शास्त्र सम्मत है। 
  11. स्त्री आचमन के स्थान पर जल से नेत्रों को पोंछ ले।
  12. स्त्रियों के बायें हाथ में ही रक्षा सूत्र बाँधने के शास्त्रीय विधान है। 
  13. यज्ञ के अंत में पान-सुपारी अक्षत आदि सहित घृत से भरे हुए नारियल को पीले वस्त्र में लपेट कर रक्षासूत्र एवं माला आदि से वेष्ठित कर पंचोपचार से पूजन कर पूर्णाहुति दें।  किन्तु वैवाहिक होम में और घर के भीतर नित्य होम में पूर्णाहुति न दें। 
  14. शनिवार, मंगलवार, बुधवार एवं शुक्रवार को लक्ष्मी की पूजा प्रारम्भ न करें।
  15. स्कन्द पुराण के अनुसार लक्ष्मी प्राप्ति के लिए पौष शुक्ल दशमी, चैत्र शुक्ल पञ्चमी तथा श्रावण की पूर्णिमा को लक्ष्मी का अनुष्ठान एवं पूजन करने से अभीष्ट की उपलब्धि होती है।

Thursday, May 7, 2020

अष्टकवर्ग - परिचय (भाग - 1)

ज्योतिष में फलादेश के निमित्त विभिन्न पद्धतियां प्रचलित हैं लेकिन उन सभी में पराशरोक्त (लघुपाराशरी) सिद्धान्त तथा पाराशरी महादशा ही प्रमुख हैं। यद्यपि महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, प्राणदशा आदि इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म विभाजन हैं - जिससे दशा समय को दिनों तथा घंटों तक में विभाजित कर सूक्ष्म फलादेश कहा जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद फलादेश सही घटित नहीं होता। वास्तव में ज्योतिष की "अष्टकवर्ग" और "गोचर" पद्धतियां इस दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखती हैं। ज्योतिष के फलित सूत्रों के अपेक्षाकृत "अष्टकवर्ग" का सिद्धान्त बहुत ही स्पष्ट और युक्ति संगत है कि कोई भी ग्रह उच्च का, स्वक्षेत्री, केन्द्रादि बलयुक्त, योग कारक ही क्यों न हो, यदि वह अष्टकवर्ग में दुर्बल है तो शुभफल दे पाने में समर्थ नहीं होता। इसके विपरीत षष्ठ, अष्टम, व्यय आदि दुष्ट स्थानों में स्थित, नीच शत्रुक्षेत्री अदि ग्रह भी शुभ फल दे सकते हैं यदि वे अष्टकवर्ग में बली हों।

अष्टकवर्ग का मुख्य आधार यह है कि जन्म के समय या गोचर में ग्रहों की जो परस्पर सापेक्ष स्थिति होती है, उसी के अनुसार फल के शुभत्व या अशुभत्व का निर्णय होता है। सामान्यतः होरा में (कुंडली में) प्रत्येक ग्रह का भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होगा, अब एक ग्रह दूसरे ग्रह की स्थिति से कितना प्रभावित होगा - इसका थोड़ा बहुत विचार दृष्टि से हो सकता है। अष्टकवर्ग में प्रत्येक ग्रह की परस्पर सापेक्ष स्थिति को देखकर उसके शुभाशुभ फल का सही निर्णय किया जा सकता है।

बृहत्पराशर होराशास्त्र के पूर्वखण्ड में महर्षि पराशर ने ग्रहों के समग्र प्रभावों की व्याख्या की है जो ग्रहों की विभिन्न भावों में स्थिति के कारण उत्पन्न होता है। उत्तरखण्ड में अष्टकवर्ग पर अध्याय है, जिसके प्रारम्भ में स्वयं पराशर और उनके शिष्य मैत्रेय के मध्य संवाद दिया गया है :-

कलौ पापरतानां च मन्दा बुद्धिर्यतोनृणाम्।
अतोऽल्पबुद्धिगम्यं यत् शास्त्रमेतद् वदस्व ।।३।। 

तत्तत्कालग्रह स्थित्या मानवनां परिस्फुटम्।
सुख दुःखपरिज्ञानमायुषोनिर्णयं तथा ।।४।।  
बृहत्पराशर होराशास्त्र, अध्याय ६८ 

मैत्रेय अपने गुरु से निवेदन करते हैं - कलियुग में पाप कर्म निरत मनुष्यों की बुद्धि चूंकि मन्द हो जाती है अतः अल्प बुद्धि से भी जो शास्त्रानुशासन हो कृपया वह बताएं , जिससे मनुष्यों को उस समय की ग्रह स्थिति से सुस्पष्ट रूप में सुख-दुःख के पूर्ण ज्ञान तथा आयु का निर्णय हो सके।

अष्टकवर्ग विधि का तर्काधार समझाते हुए महर्षि पराशर कहते हैं :-

"जिस तरह विभिन्न भावों में ग्रहों की स्थिति के प्रभाव का आकलन जन्म-लग्न और चंद्रमा से किया जाता है, उसी तरह दूसरे ग्रहों को भी लग्न की तरह मानकर और उनसे भावों को गिनते हुए भी फलों का आकलन करना चाहिए। इस तरह सात ग्रहों (राहु और केतु को छोड़कर) और लग्न से प्राप्त प्रभावों से ही पूरा चित्र स्पष्ट होता है। जब सातों ग्रहों और लग्न के समग्र प्रभावों को एक साथ आँका जाये तो वह अष्टकवर्ग विश्लेषण कहलाता है"।

भारतीय ज्योतिष में किसी भी कुंडली के फलकथन के लिए प्राचीन काल से ही अनेक विद्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है। होराशास्त्र के महर्षियों ने सभी प्रकार के कर्मों से उत्पन्न होने वाले शुभ या अशुभ फलों को जानने के लिए जिस पद्धति का विकास किया उसे 'अष्टकवर्ग' कहा गया है। अष्टकवर्ग के ज्ञान से मनुष्य के समस्त कर्मजनित शुभ या अशुभ फल को वैज्ञानिक ढंग से जाना जा सकता है।

अष्टकवर्ग की सहायता से फलादेश को अत्यन्त सूक्ष्मता प्रदान की जाती है। व्यष्टि व समष्टि के अपूर्व समन्वय का सिद्धान्त इस पद्धति से देखा जा सकता है। उदहारण के लिए कोई ग्रह शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होकर स्वराशि, उच्चराशि या मित्रादि की राशि में स्थित हो तो अपने भाव से सम्बन्धित फलों की वृद्धि करेगा, यह एक सामान्य सिद्धांत है। लेकिन कितनी वृद्धि करेगा?  कुल शुभ व अशुभ फल का अनुपात क्या होगा? इस विषय में अष्टकवर्ग पद्धति ही निर्णायक मानी गयी है। इसकी सहायता से आयु, धन, विद्या, बुद्धि व सुखादि का विशेष निर्णय किया जाता है।

अष्टकवर्ग ही एक ऐसी पद्धति है जिसमें ग्रहों के परस्पर संबंधों को प्रभावशाली ढंग से एक सूत्र में पिरोया गया है। एक ग्रह अपने बल के अनुसार ही कार्य करेगा। इसको मापने की अन्य विधियाँ अपने में विशिष्ट अर्थ रखती हैं परन्तु  इन सभी में एक तथ्य को भुला दिया जाता है कि कोई भी ग्रह शून्य में क्रियाशील नहीं होता है, शेष ग्रह भी आगे-पीछे, निरन्तर क्रियारत होते हैं। इसलिए, कोई भी ग्रह उतना ही कार्य कर पाता ह, जितना अन्य ग्रह उसके लिए संभव बनाते हैं। दूसरे ग्रह या तो उसके काम में सहयोग करते हैं या विरोध। इस तरह से जातक सभी ग्रहों के सामूहिक फल भोगता है। यह केवल अष्टकवर्ग से ही कहा जा सकता है कि यदि किसी राशि में बृहस्पति के पास ७ भिन्नाष्टक और ४२ सर्वाष्टक बिंदुओं का बल है तब इसका अर्थ है कि सभी ग्रहों ने मिलकर बृहस्पति में इतनी अधिक मात्रा में सार्थक बल का विनियोग किया है।

अष्टकवर्ग पर किये गये शोधों से पता चला है कि यदि फलकथन के लिए प्रयोग किये जाने वाली अन्य विद्याओं के साथ-साथ अष्टकवर्ग में प्रयुक्त सर्वाष्टकवर्ग का भी उपयोग किया जाये तो सही निर्णय तक पहुँचने में मदद मिल सकती है।

ग्रहों के विभिन्न राशियों में भ्रमण करने से व्यक्ति विशेष पर शुभाशुभ प्रभाव गोचर फल कहलाता है। इसका विचार जन्म राशि से किया जाता है। वैसे ही अन्य ग्रहों और लग्न से गोचर विचार को अष्टक वर्ग विचार कहा जाता है। अष्टक का अर्थ होता है आठ जिनमे सात ग्रह और जन्म लग्न सम्मिलित हैं। अष्टकवर्ग में राहू-केतु  को छोड़कर शेष सात ग्रह और लग्न सहित आठ को महत्व दिया गया है।

यह सातों ग्रह हर समय गतिमान रहकर अपनी स्थिति बदलते रहते हैं जो शुभ भी हो सकती हैं और अशुभ भी। प्रत्येक ग्रह अपना प्रभाव किसी निश्चित दूरी से दूसरे स्थान पर डालता है।  यदि कोई ग्रह शुभ स्थान व् शुभ योगों में होकर भी शुभ फल नहीं देता हो तो इसका कारण अष्टकवर्ग से सरलता से जाना जा सकता है। जैसे अगर कोई ग्रह अपनी उच्च राशि में २५ से कम बिंदुओं पर होगा तो अपना शुभ प्रभाव नहीं दे पायेगा।आठों (सात ग्रह और लग्न) से विचार करने पर कोई भी ग्रह अधिक के दृष्टिकोण से शुभ हो तो शुभ और अगर अशुभ हो तो अशुभ। इन प्रभावों को अष्टकवर्ग में महत्व देकर फलित करने की एक सरल विधि तैयार की गयी है। यही अष्टक वर्ग विचार कहलाता है।

वाराहमिहिर के पुत्र पृथुयशो ने भी अपनी पुस्तक होरसारा में लिखा है, "गोचर के द्वारा सामान्य परिणामों को जाना जा सकता है परन्तु सूक्ष्म और शुद्ध परिणाम अष्टकवर्ग के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं।"

सर्वप्रथम पारिभाषिक शब्दों के बारे में जानकारी होना आवश्यक है:-
  1. रेखा (|) के चार पर्यायवाची शब्द  रेखा, स्थान, फल और कला हैं। बिंदु () के भी चार पर्याय शब्द हैं - करण, बिंदु, दाय और अक्ष। अष्टकवर्ग द्वारा फलादेश जानते समय देखा जाता है कि वहां पर कितनी रेखाएं और बिंदु हैं? शुभफल को प्रायः रेखा (|) से और अशुभफल को बिंदु () से व्यक्त किया जाता है। रेखा और बिंदु केवल शुभ या अशुभ फल के प्रतीक हैं इनमें शुभ या अशुभ फल निहित नहीं है। सूचना के लिए दक्षिण भारत में शुभफल का द्योतक बिंदु को माना जाता है। रेखा को शुभफल की द्योतक और बिंदु को अशुभफल का द्योतक मानते हुए यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के जन्म समय उसकी कुंडली में जिस राशि को रेखाएं प्राप्त हों और उस स्थान पर ग्रह भी हों तो शुभफल होता है। इसी तरह से किसी राशि में बिंदु हों तथा रेखा न हों तो अशुभ फल होता है। किसी राशि में बिंदु और रेखा समान (४-४) संख्या में हों और उसमें साथ ही ग्रह भी विद्यमान हों तो उसका सम (मिश्रित) फल होता है। यदि किसी स्थान पर कुछ भी न हो तो सामान्य (सम) फल होता है।
  2. भिन्नाष्टक वर्ग या सभी सातों ग्रहों का अष्टकवर्ग।
  3. सर्वाष्टकवर्ग - बारहों भावों के प्रत्येक भाव में बिंदुओं का कुल योग। सभी ग्रहों  द्वारा  अपने-अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किसी विशेष राशि में दिए गए बिंदुओं का कुल योग एक अन्य वर्ग या कुंडली में दर्शाया जाता है, जिसे सर्वाष्टक वर्ग कहते हैं। 
  4. प्रस्तार चक्र - सारणीबद्ध रूप में यह बारह राशियों में सभी बिंदुओं का कुल योग है।
शुभाशुभ फल का विशेष विचार करने के लिए जन्म लग्न से या चन्द्रमा से जो ग्रह उपचय (वृद्धि) यानि कुंडली के ३, ६, १०, ११वें स्थानों में हों तथा स्वराशि, सवोच्च राशि, मित्र राशि या मूल त्रिकोण राशि में हो तो उसका अष्टक वर्ग जनित फल यदि शुभ हो तो पूर्ण जानना चाहिए। यदि उक्त परिस्थितयों में अशुभ अष्टक वर्ग जन्य फल हो तो अशुभ फल की मात्रा मध्यम होती है। यदि कोई ग्रह जन्म लग्न या चन्द्र से पीड़ा स्थान यानि अपचय (१, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२वें) में स्थित हो तो उसका शुभ फल अल्प होता है तथा अशुभ फल अधिक होता है।

सामान्यतः रेखायुक्त होना शुभ फलदायी होता है किन्तु रेखायुक्त ग्रह भी यदि उपचय स्थान में और स्वोच्चादि राशि में स्थित होगा तो उसका पूर्ण और वैसे ही अपचय स्थानों में होने पर शुभ फल कम हो जाएगा। यही क्रम अशुभ फल के सन्दर्भ में भी अपनाना चाहिए। उपचय स्थानगत ग्रह का फल मध्यम और अपचय स्थानगत ग्रह का अशुभ फल अधिक होता है।

उक्त शुभाशुभ फल अपने दशा परिपाक काल में अथवा गोचर काल में प्रतिफलित होगा। जन्म समय में जो ग्रह बली हो तो गोचर में अपने अष्टक वर्ग जनित फल को और अधिक पुष्ट करके प्रदान करेगा। इसी प्रकार निर्बल ग्रह अपने फल को अपुष्ट रूप से प्रदान करेगा। फल चाहे शुभ या अशुभ कैसा भी हो उसके पुष्टत्व और अपुष्टत्व का विवेक ग्रह के बलाबल के आधार पर करना चाहिए। यदि पूर्ण मंडल वाला चन्द्रमा भी बलहीन होगा तो अवश्य ही अन्य बलहीन ग्रहों की तरह अशुभ फल ही देगा।जन्म के समय जो ग्रह युद्ध में पराजित, अस्तंगत, कम रश्मियों वाला, नीचराशि में स्थित, शत्रुस्थानगत, शत्रुग्रह से दृष्ट और अल्प बिम्ब वाला होगा, वह अष्टक वर्ग जन्य अशुभ फल को अधिक परिपुष्ट करके प्रदान करेगा।

अष्टकवर्ग (भाग - 2)

सर्वाष्टकवर्ग  

सर्वाष्टकवर्ग का विश्लेषण ग्रहों के विश्लेषण जितना ही आवश्यक है। सर्वाष्टकवर्ग फलित ज्योतिष में भविष्य - कथन के लिए प्रामाणिक ही नहीं अपितु विश्वसनीय भी है।

किसी भी भाव में २५ से कम बिंदु अनुकूल परिणाम देने में समर्थ नहीं होते। अगर बिंदुओं की संख्या ३० से अधिक हो तो शुभ परिणाम अपेक्षित हैं। अगर किसी भी भाव में बिंदुओं की संख्या ३० से अधिक हो तो उस भाव का परिणाम पूर्ण रूप से प्राप्त किया जा सकता है। उच्च राशि, त्रिकोण, उपचय आदि कम बिंदुओं में  होने से प्रभावहीन या निष्फल हो जाते हैं।


कुल ३३७ सर्वाष्टक बिंदुओं को १२ से भाग देने पर औसत लगभग २८ आता है। अतः २८ वह औसत अंक है जिससे तुलना करने पर किसी भाव में बिंदुओं का कम या अधिक होना माना जा सकता है। 

सामान्य सिद्धांत  
  1. कोई  भी राशि या भाव जहाँ २८ से अधिक बिंदु हों, शुभ फल देगा। जितने अधिक बिंदु होंगे फल उतना ही अच्छा होगा। इसके विपरीत उन भाव या राशियों में जिनमे २८ से कम बिंदु होंगे, अशुभ फल मिलेंगे। व्यवहार में २५ से ३० के बीच बिंदुओं को सामान्य फलदायी ही माना जाता है। दूसरे शब्दों में यही कहा जायेगा कि यदि बिंदु ३० से ऊपर हों तभी कोई भाव/राशि विशेष शुभ फल देगी।
  2. वह ग्रह प्रभावित हो जाता है जो भाव/राशि में स्थित है जहां बिंदु कम हैं , चाहे वह स्थान उसका उच्च, स्वक्षेत्री, केन्द्र या त्रिकोण ही क्यों न हो, और चाहे वह लग्न से उपचय (३, ६, १०, ११) स्थानों में ही क्यों न स्थित हो। तात्पर्य यह है कि इस ग्रह को अन्य ग्रहों से समर्थन नहीं मिल रहा।
  3. इसके विपरीत वे ग्रह भी शुभ फल देंगे जो अपने नीच स्थानों में अथवा दुःस्थानों, जैसे ६, ८, १२ में हों, किंतु वहां बिंदु अधिक हों। कुछ विद्वानों का मत इससे भिन्न हैं।
  4.  यदि नवें, दसवें, ग्यारहवें और लग्न - इन सभी में ३० से अधिक बिंदु हों तो जातक का जीवन समृद्धिपूर्ण होगा। इसके विपरीत यदि इन भावों में २५ से कम बिंदु हों तो जातक को रोग और बेबसी की ज़िन्दगी भोगनी पड़ेगी।
  5. यदि ग्यारहवें घर में दसवें घर से ज़्यादा बिंदु हों और ग्यारहवें घर में बारहवें घर से ज़्यादा, साथ ही लग्न में बारहवें घर से ज़्यादा बिंदु हो तो जातक सुख-समृद्धि का जीवन भोगेगा।
  6. जातक भिखारी का जीवन जियेगा यदि लग्न, नवम, दशम और एकादश स्थानों में मात्र २१ या २२ या और कम बिंदु हों और त्रिकोण स्थानों में अशुभ ग्रह बैठे हों। 
  7. यदि चन्द्रमा सूर्य से निकट होने के कारण पक्षबल से रहित हो, चन्द्र राशि के स्वामी के पास कम बिंदु (जैसे २२) हों और उसे शनि देखता हो तो जातक पर दुष्टात्माओं का प्रभाव रहेगा। यदि राहु भी चन्द्रमा पर प्रभाव डाल रहा हो तो इस परिणाम में कोई संशय नहीं रहेगा।
  8. जब-जब कोई अशुभ ग्रह ऐसे भाव पर गोचर वश विचरण करेगा जिसमे २१ से कम बिंदु हों तो उस भाव से संबंधित फलों की हानि होगी।
  9. इसके विपरीत, जब कोई ग्रह किसी ऐसे घर में विचरण करता है जहाँ ३० से अधिक बिंदु हों तो उस भाव से संबंधित शुभ फल मिलेंगे जो उस ग्रह के कारकत्व और और संबंधित कुंडली में उसे प्राप्त भाव विशेष के स्वामित्व के अनुरूप होंगे।
  10. इसी तरह ग्रह जिन राशियों के स्वामी होते हैं और जिन राशियों/भावों में वे स्थित होते हैं, उन स्थानों से संबंधित अच्छे फल वे अपनी दशा-अन्तर्दशा में देंगे। सूक्ष्मतर विश्लेषण के लिए दशा-स्वामी के भिन्नाष्टक वर्ग का अध्ययन करना चाहिये।
  11. जिस भाव में ३० से अधिक बिंदु हों और एक साथ कई ग्रह उसमें गोचरवश विचरण कर रहे हों तो उस अवधि में वे उस भाव के शुभ फलों को कई गुणा कर देंगे। फलों का स्वरुप इस बात पर निर्भर करेगा कि संबंधित भाव कौन सा है और गोचर के ग्रहों का मूल लग्न में स्थान कहाँ है और उनके कारकत्व क्या है।
  12. जब (किसी विशेष दिन) उस राशि का उदय हो रहा हो जिसमें न्यूनतम बिंदु हैं और उस दिन चिकित्सकों से सलाह करके रोग का उपचार प्रारम्भ किया जाये तो जल्दी स्वास्थ्य-लाभ मिलने की संभावना होती है। उसी तरह उस समय में यदि ऋण लिया जाये तो उसे चुकाने की क्षमता भी जल्दी ही अर्जित हो जाती है।
  13. किसी विवाह के सुखी और सफल होने के लिए वर और वधू की चन्द्र राशियों के बिंदु एक दूसरे की जन्म कुंडलियों में ३० से अधिक होने चाहियें।
  14. जन्म लग्न एवं उससे दूसरे, चौथे, नवें, दसवें और ग्यारहवें भाव के बिंदुओं का योग करें। यदि यह योग १६४ से अधिक है तो जातक समृद्ध होगा। संख्या १६४ को 'वित्ताय' कहते हैं जो वित्तीय समृद्धि का द्योतक है।
  15.  इसी तरह छठे, आठवें और बारहवें घर के बिंदुओं का योग करें। यदि यह योग ७६ से काम आये तो आय व्यय से अधिक होगी। संख्या ७६ को तीर्थ का नाम दिया गया है।
  16. प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम एवं दशम भाव के बिंदुओं का योग करें। ये भाव जातक में अंतर्मुखी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह योग यदि शेष छः भावों (बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के द्योतक) के बिंदु योग से अधिक है तो जातक संतोषी जीव होगा और ज्ञान-ध्यान, सत्कर्म और दान-पुण्य से आतंरिक शांति पायेगा। विपरीत स्थिति में जातक हमेशा अपने से बाहर सुख ढूंढेगा जिसके कारण उसका मन लालच, छल-कपट, झूठे दिखावे और अहंकार से ग्रस्त रहेगा। 
  17. कुंडली के बारह भावों को चार वर्गों में बांटा जा सकता है। (क) बंधु - प्रथम, पंचम एवं नवम भाव  (ख) सेवक - द्वितीय, षष्ठ एवं दशम भाव (ग) पोषक - तृतीय, सप्तम एवं एकादश भाव (घ) घटक - चतुर्थ, अष्टम एवं द्वादश भाव। 

तीव्र फलोदय का सिद्धांत :- 

विभिन्न भावों में सर्वाष्टक बिंदुओं की तुलना करें। यदि घर में न्यूनतम बिंदु हैं और उससे अगले घर में अधिकतम, तो जातक जीवन में अचानक ऊपर उठेगा। यदि दोनों अंकों में अंतर काफी ज़्यादा हुआ तो जातक उतनी ही अधिक तीव्र उन्नति का अनुभव करेगा। इसके विपरीत यदि एक घर से दूसरे घर में अधिकतम बिंदुओं से न्यूनतम बिंदुओं की गिरावट हो तो जातक जीवन के किसी या कुछ क्षेत्रों में हानि का सामना करेगा। जहाँ इन घरों में न्यूनतम और अधिकतम बिंदुओं का अंतर मामूली होगा वहां जातक करीब-करीब एक-सी और धीमी प्रगति का अनुभव करेगा। यदि इस तरह के तीव्र अंतर कई भावों के बीच होंगे तो जातक का सारा जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहेगा - यानि कभी राजा तो कभी रंक।

त्वरित भविष्यवाणियों के लिए सर्वाष्टकवर्ग विधि का एक सिद्धान्त अत्यंत लोकप्रिय है :-
  1. यदि एकादश भाव में दशम भाव से अधिक बिंदु हो तो जातक अपेक्षाकृत कम प्रयासों से अधिक लाभ पाएगा। मुख्यतः लग्न से एकादश भाव के सन्दर्भ में यह नियम लागू किया जाता है, लेकिन अन्य भावों से एकादश भाव के संदर्भ में भी इस नियम का उपयोग किया जा सकता है। 
  2. अगर इस स्थिति के विपरीत जातक का बारहवां भाव दूसरे भाव से अधिक प्रबल हो तो इसका अभिप्राय आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में यही होगा कि वह अपने पारिवारिक व्यवसाय में न लग कर, विदेश में अपना भाग्य आजमायेगा और वहां उस पर लक्ष्मी की कृपा होगी। कौन सा परिणाम कहाँ लागू होगा, यह देखने के लिये जन्म कुंडली में दूसरे योगों को भी देखना होगा।
  3. यदि बारहवें भाव में ग्यारहवें से अधिक अंक हों तो इसका अभिप्राय कोई एक हो सकता है, जैसे (क) आय से अधिक व्यय, जिसका परिणाम होगा कर्ज में डूबना  (ख) विदेशी स्रोतों से आय, यह स्थिति उन लोगों की जन्म कुंडलियों में देखी जाती है जिनके सितारे मातृभूमि से बाहर किसी देश में चमकते हैं। ऐसे में चतुर्थ भाव और उसके स्वामी का का किंचित पीड़ित होना लगभग अनिवार्य होता है।
  4. यदि दूसरे भाव में बारहवें भाव से अधिक बिंदु हों तो जातक में आमोद-प्रमोद पर व्यय करने के बजाय धन को जोड़ने की प्रवृत्ति अधिक होगी। ऐसे लोग कभी जल्दबाज़ी में ख़रीदारी नहीं करते बल्कि बारीकी से मोलभाव करते हैं। दो स्थानों के बिंदुओं में अंतर जितना ज़्यादा होगा यह प्रवृत्ति उतनी ही उत्कृष्ट रूप से सामने आयेगी।