- देवपूजा में पुष्प अधोमुख कर न चढ़ायें। वे जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही चढ़ायें। बिल्वपत्र को उल्टा करके (अधोमुख) चढ़ायें तथा कुशा के अग्रभाग से देवताओं पर जल न छिड़कें।
- धोती में रखा हुआ और जल में डुबाया हुआ पुष्प देवगण ग्रहण नहीं करते हैं।
- भगवन शंकर को कुन्द, श्रीविष्णु को धतूरा, देवी को आक तथा मदार और सूर्य को तगर का पुष्प नहीं चढ़ाना चाहिए।
- श्री विष्णु को चावल, गणेश को तुलसी, दुर्गा को दूर्वा और सूर्य को बिल्वपत्र न चढ़ायें।
- देवताओं के प्रीत्यर्थ प्रज्ज्वलित दीपक को बुझाना नहीं चाहिए।
- हाथ में धारण किये गये पुष्प, ताम्रपात्र में रखा गया चन्दन और चर्मपात्र में रखा गया गंगा जल अपवित्र हो जाता है।
- दीपक को दीपक से जलाने पर मनुष्य दरिद्र और रोगी होता है।
- एक हाथ से प्रणाम करने तथा एक प्रदक्षिणा करने से पुण्य नष्ट होता है। केवल चंडी और विनायक की एक ही प्रदक्षिणा का विधान मिलता है।
- मांगलिक कार्यों में दूसरों की पहनी हुई अंगूठी धारण नहीं करनी चाहिए।
- सभी पूजाक्रमों में पत्नी को दक्षिण (दाहिने) में बैठने का विधान है किन्तु अभिषेक और विप्रपादप्रक्षालन तथा सिन्दूर दान के समय वाम भाग में अर्धांगिनी के बैठने का विधान शास्त्र सम्मत है।
- स्त्री आचमन के स्थान पर जल से नेत्रों को पोंछ ले।
- स्त्रियों के बायें हाथ में ही रक्षा सूत्र बाँधने के शास्त्रीय विधान है।
- यज्ञ के अंत में पान-सुपारी अक्षत आदि सहित घृत से भरे हुए नारियल को पीले वस्त्र में लपेट कर रक्षासूत्र एवं माला आदि से वेष्ठित कर पंचोपचार से पूजन कर पूर्णाहुति दें। किन्तु वैवाहिक होम में और घर के भीतर नित्य होम में पूर्णाहुति न दें।
- शनिवार, मंगलवार, बुधवार एवं शुक्रवार को लक्ष्मी की पूजा प्रारम्भ न करें।
- स्कन्द पुराण के अनुसार लक्ष्मी प्राप्ति के लिए पौष शुक्ल दशमी, चैत्र शुक्ल पञ्चमी तथा श्रावण की पूर्णिमा को लक्ष्मी का अनुष्ठान एवं पूजन करने से अभीष्ट की उपलब्धि होती है।
Saturday, May 9, 2020
देवपूजन में कुछ विचारणीय तथ्य
Thursday, May 7, 2020
अष्टकवर्ग - परिचय (भाग - 1)
ज्योतिष में फलादेश के निमित्त विभिन्न पद्धतियां प्रचलित हैं लेकिन उन सभी में पराशरोक्त (लघुपाराशरी) सिद्धान्त तथा पाराशरी महादशा ही प्रमुख हैं। यद्यपि महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, प्राणदशा आदि इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म विभाजन हैं - जिससे दशा समय को दिनों तथा घंटों तक में विभाजित कर सूक्ष्म फलादेश कहा जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद फलादेश सही घटित नहीं होता। वास्तव में ज्योतिष की "अष्टकवर्ग" और "गोचर" पद्धतियां इस दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखती हैं। ज्योतिष के फलित सूत्रों के अपेक्षाकृत "अष्टकवर्ग" का सिद्धान्त बहुत ही स्पष्ट और युक्ति संगत है कि कोई भी ग्रह उच्च का, स्वक्षेत्री, केन्द्रादि बलयुक्त, योग कारक ही क्यों न हो, यदि वह अष्टकवर्ग में दुर्बल है तो शुभफल दे पाने में समर्थ नहीं होता। इसके विपरीत षष्ठ, अष्टम, व्यय आदि दुष्ट स्थानों में स्थित, नीच शत्रुक्षेत्री अदि ग्रह भी शुभ फल दे सकते हैं यदि वे अष्टकवर्ग में बली हों।
अष्टकवर्ग का मुख्य आधार यह है कि जन्म के समय या गोचर में ग्रहों की जो परस्पर सापेक्ष स्थिति होती है, उसी के अनुसार फल के शुभत्व या अशुभत्व का निर्णय होता है। सामान्यतः होरा में (कुंडली में) प्रत्येक ग्रह का भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होगा, अब एक ग्रह दूसरे ग्रह की स्थिति से कितना प्रभावित होगा - इसका थोड़ा बहुत विचार दृष्टि से हो सकता है। अष्टकवर्ग में प्रत्येक ग्रह की परस्पर सापेक्ष स्थिति को देखकर उसके शुभाशुभ फल का सही निर्णय किया जा सकता है।
बृहत्पराशर होराशास्त्र के पूर्वखण्ड में महर्षि पराशर ने ग्रहों के समग्र प्रभावों की व्याख्या की है जो ग्रहों की विभिन्न भावों में स्थिति के कारण उत्पन्न होता है। उत्तरखण्ड में अष्टकवर्ग पर अध्याय है, जिसके प्रारम्भ में स्वयं पराशर और उनके शिष्य मैत्रेय के मध्य संवाद दिया गया है :-
भारतीय ज्योतिष में किसी भी कुंडली के फलकथन के लिए प्राचीन काल से ही अनेक विद्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है। होराशास्त्र के महर्षियों ने सभी प्रकार के कर्मों से उत्पन्न होने वाले शुभ या अशुभ फलों को जानने के लिए जिस पद्धति का विकास किया उसे 'अष्टकवर्ग' कहा गया है। अष्टकवर्ग के ज्ञान से मनुष्य के समस्त कर्मजनित शुभ या अशुभ फल को वैज्ञानिक ढंग से जाना जा सकता है।
अष्टकवर्ग की सहायता से फलादेश को अत्यन्त सूक्ष्मता प्रदान की जाती है। व्यष्टि व समष्टि के अपूर्व समन्वय का सिद्धान्त इस पद्धति से देखा जा सकता है। उदहारण के लिए कोई ग्रह शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होकर स्वराशि, उच्चराशि या मित्रादि की राशि में स्थित हो तो अपने भाव से सम्बन्धित फलों की वृद्धि करेगा, यह एक सामान्य सिद्धांत है। लेकिन कितनी वृद्धि करेगा? कुल शुभ व अशुभ फल का अनुपात क्या होगा? इस विषय में अष्टकवर्ग पद्धति ही निर्णायक मानी गयी है। इसकी सहायता से आयु, धन, विद्या, बुद्धि व सुखादि का विशेष निर्णय किया जाता है।
अष्टकवर्ग ही एक ऐसी पद्धति है जिसमें ग्रहों के परस्पर संबंधों को प्रभावशाली ढंग से एक सूत्र में पिरोया गया है। एक ग्रह अपने बल के अनुसार ही कार्य करेगा। इसको मापने की अन्य विधियाँ अपने में विशिष्ट अर्थ रखती हैं परन्तु इन सभी में एक तथ्य को भुला दिया जाता है कि कोई भी ग्रह शून्य में क्रियाशील नहीं होता है, शेष ग्रह भी आगे-पीछे, निरन्तर क्रियारत होते हैं। इसलिए, कोई भी ग्रह उतना ही कार्य कर पाता ह, जितना अन्य ग्रह उसके लिए संभव बनाते हैं। दूसरे ग्रह या तो उसके काम में सहयोग करते हैं या विरोध। इस तरह से जातक सभी ग्रहों के सामूहिक फल भोगता है। यह केवल अष्टकवर्ग से ही कहा जा सकता है कि यदि किसी राशि में बृहस्पति के पास ७ भिन्नाष्टक और ४२ सर्वाष्टक बिंदुओं का बल है तब इसका अर्थ है कि सभी ग्रहों ने मिलकर बृहस्पति में इतनी अधिक मात्रा में सार्थक बल का विनियोग किया है।
अष्टकवर्ग पर किये गये शोधों से पता चला है कि यदि फलकथन के लिए प्रयोग किये जाने वाली अन्य विद्याओं के साथ-साथ अष्टकवर्ग में प्रयुक्त सर्वाष्टकवर्ग का भी उपयोग किया जाये तो सही निर्णय तक पहुँचने में मदद मिल सकती है।
ग्रहों के विभिन्न राशियों में भ्रमण करने से व्यक्ति विशेष पर शुभाशुभ प्रभाव गोचर फल कहलाता है। इसका विचार जन्म राशि से किया जाता है। वैसे ही अन्य ग्रहों और लग्न से गोचर विचार को अष्टक वर्ग विचार कहा जाता है। अष्टक का अर्थ होता है आठ जिनमे सात ग्रह और जन्म लग्न सम्मिलित हैं। अष्टकवर्ग में राहू-केतु को छोड़कर शेष सात ग्रह और लग्न सहित आठ को महत्व दिया गया है।
यह सातों ग्रह हर समय गतिमान रहकर अपनी स्थिति बदलते रहते हैं जो शुभ भी हो सकती हैं और अशुभ भी। प्रत्येक ग्रह अपना प्रभाव किसी निश्चित दूरी से दूसरे स्थान पर डालता है। यदि कोई ग्रह शुभ स्थान व् शुभ योगों में होकर भी शुभ फल नहीं देता हो तो इसका कारण अष्टकवर्ग से सरलता से जाना जा सकता है। जैसे अगर कोई ग्रह अपनी उच्च राशि में २५ से कम बिंदुओं पर होगा तो अपना शुभ प्रभाव नहीं दे पायेगा।आठों (सात ग्रह और लग्न) से विचार करने पर कोई भी ग्रह अधिक के दृष्टिकोण से शुभ हो तो शुभ और अगर अशुभ हो तो अशुभ। इन प्रभावों को अष्टकवर्ग में महत्व देकर फलित करने की एक सरल विधि तैयार की गयी है। यही अष्टक वर्ग विचार कहलाता है।
वाराहमिहिर के पुत्र पृथुयशो ने भी अपनी पुस्तक होरसारा में लिखा है, "गोचर के द्वारा सामान्य परिणामों को जाना जा सकता है परन्तु सूक्ष्म और शुद्ध परिणाम अष्टकवर्ग के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं।"
सर्वप्रथम पारिभाषिक शब्दों के बारे में जानकारी होना आवश्यक है:-
सामान्यतः रेखायुक्त होना शुभ फलदायी होता है किन्तु रेखायुक्त ग्रह भी यदि उपचय स्थान में और स्वोच्चादि राशि में स्थित होगा तो उसका पूर्ण और वैसे ही अपचय स्थानों में होने पर शुभ फल कम हो जाएगा। यही क्रम अशुभ फल के सन्दर्भ में भी अपनाना चाहिए। उपचय स्थानगत ग्रह का फल मध्यम और अपचय स्थानगत ग्रह का अशुभ फल अधिक होता है।
अष्टकवर्ग का मुख्य आधार यह है कि जन्म के समय या गोचर में ग्रहों की जो परस्पर सापेक्ष स्थिति होती है, उसी के अनुसार फल के शुभत्व या अशुभत्व का निर्णय होता है। सामान्यतः होरा में (कुंडली में) प्रत्येक ग्रह का भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होगा, अब एक ग्रह दूसरे ग्रह की स्थिति से कितना प्रभावित होगा - इसका थोड़ा बहुत विचार दृष्टि से हो सकता है। अष्टकवर्ग में प्रत्येक ग्रह की परस्पर सापेक्ष स्थिति को देखकर उसके शुभाशुभ फल का सही निर्णय किया जा सकता है।
बृहत्पराशर होराशास्त्र के पूर्वखण्ड में महर्षि पराशर ने ग्रहों के समग्र प्रभावों की व्याख्या की है जो ग्रहों की विभिन्न भावों में स्थिति के कारण उत्पन्न होता है। उत्तरखण्ड में अष्टकवर्ग पर अध्याय है, जिसके प्रारम्भ में स्वयं पराशर और उनके शिष्य मैत्रेय के मध्य संवाद दिया गया है :-
कलौ पापरतानां च मन्दा बुद्धिर्यतोनृणाम्।
अतोऽल्पबुद्धिगम्यं यत् शास्त्रमेतद् वदस्व ।।३।।
तत्तत्कालग्रह स्थित्या मानवनां परिस्फुटम्।
सुख दुःखपरिज्ञानमायुषोनिर्णयं तथा ।।४।।
बृहत्पराशर होराशास्त्र, अध्याय ६८
मैत्रेय अपने गुरु से निवेदन करते हैं - कलियुग में पाप कर्म निरत मनुष्यों की बुद्धि चूंकि मन्द हो जाती है अतः अल्प बुद्धि से भी जो शास्त्रानुशासन हो कृपया वह बताएं , जिससे मनुष्यों को उस समय की ग्रह स्थिति से सुस्पष्ट रूप में सुख-दुःख के पूर्ण ज्ञान तथा आयु का निर्णय हो सके।
अष्टकवर्ग विधि का तर्काधार समझाते हुए महर्षि पराशर कहते हैं :-
"जिस तरह विभिन्न भावों में ग्रहों की स्थिति के प्रभाव का आकलन जन्म-लग्न और चंद्रमा से किया जाता है, उसी तरह दूसरे ग्रहों को भी लग्न की तरह मानकर और उनसे भावों को गिनते हुए भी फलों का आकलन करना चाहिए। इस तरह सात ग्रहों (राहु और केतु को छोड़कर) और लग्न से प्राप्त प्रभावों से ही पूरा चित्र स्पष्ट होता है। जब सातों ग्रहों और लग्न के समग्र प्रभावों को एक साथ आँका जाये तो वह अष्टकवर्ग विश्लेषण कहलाता है"।
अष्टकवर्ग विधि का तर्काधार समझाते हुए महर्षि पराशर कहते हैं :-
"जिस तरह विभिन्न भावों में ग्रहों की स्थिति के प्रभाव का आकलन जन्म-लग्न और चंद्रमा से किया जाता है, उसी तरह दूसरे ग्रहों को भी लग्न की तरह मानकर और उनसे भावों को गिनते हुए भी फलों का आकलन करना चाहिए। इस तरह सात ग्रहों (राहु और केतु को छोड़कर) और लग्न से प्राप्त प्रभावों से ही पूरा चित्र स्पष्ट होता है। जब सातों ग्रहों और लग्न के समग्र प्रभावों को एक साथ आँका जाये तो वह अष्टकवर्ग विश्लेषण कहलाता है"।
भारतीय ज्योतिष में किसी भी कुंडली के फलकथन के लिए प्राचीन काल से ही अनेक विद्याओं का प्रयोग किया जाता रहा है। होराशास्त्र के महर्षियों ने सभी प्रकार के कर्मों से उत्पन्न होने वाले शुभ या अशुभ फलों को जानने के लिए जिस पद्धति का विकास किया उसे 'अष्टकवर्ग' कहा गया है। अष्टकवर्ग के ज्ञान से मनुष्य के समस्त कर्मजनित शुभ या अशुभ फल को वैज्ञानिक ढंग से जाना जा सकता है।
अष्टकवर्ग की सहायता से फलादेश को अत्यन्त सूक्ष्मता प्रदान की जाती है। व्यष्टि व समष्टि के अपूर्व समन्वय का सिद्धान्त इस पद्धति से देखा जा सकता है। उदहारण के लिए कोई ग्रह शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होकर स्वराशि, उच्चराशि या मित्रादि की राशि में स्थित हो तो अपने भाव से सम्बन्धित फलों की वृद्धि करेगा, यह एक सामान्य सिद्धांत है। लेकिन कितनी वृद्धि करेगा? कुल शुभ व अशुभ फल का अनुपात क्या होगा? इस विषय में अष्टकवर्ग पद्धति ही निर्णायक मानी गयी है। इसकी सहायता से आयु, धन, विद्या, बुद्धि व सुखादि का विशेष निर्णय किया जाता है।
अष्टकवर्ग ही एक ऐसी पद्धति है जिसमें ग्रहों के परस्पर संबंधों को प्रभावशाली ढंग से एक सूत्र में पिरोया गया है। एक ग्रह अपने बल के अनुसार ही कार्य करेगा। इसको मापने की अन्य विधियाँ अपने में विशिष्ट अर्थ रखती हैं परन्तु इन सभी में एक तथ्य को भुला दिया जाता है कि कोई भी ग्रह शून्य में क्रियाशील नहीं होता है, शेष ग्रह भी आगे-पीछे, निरन्तर क्रियारत होते हैं। इसलिए, कोई भी ग्रह उतना ही कार्य कर पाता ह, जितना अन्य ग्रह उसके लिए संभव बनाते हैं। दूसरे ग्रह या तो उसके काम में सहयोग करते हैं या विरोध। इस तरह से जातक सभी ग्रहों के सामूहिक फल भोगता है। यह केवल अष्टकवर्ग से ही कहा जा सकता है कि यदि किसी राशि में बृहस्पति के पास ७ भिन्नाष्टक और ४२ सर्वाष्टक बिंदुओं का बल है तब इसका अर्थ है कि सभी ग्रहों ने मिलकर बृहस्पति में इतनी अधिक मात्रा में सार्थक बल का विनियोग किया है।
अष्टकवर्ग पर किये गये शोधों से पता चला है कि यदि फलकथन के लिए प्रयोग किये जाने वाली अन्य विद्याओं के साथ-साथ अष्टकवर्ग में प्रयुक्त सर्वाष्टकवर्ग का भी उपयोग किया जाये तो सही निर्णय तक पहुँचने में मदद मिल सकती है।
ग्रहों के विभिन्न राशियों में भ्रमण करने से व्यक्ति विशेष पर शुभाशुभ प्रभाव गोचर फल कहलाता है। इसका विचार जन्म राशि से किया जाता है। वैसे ही अन्य ग्रहों और लग्न से गोचर विचार को अष्टक वर्ग विचार कहा जाता है। अष्टक का अर्थ होता है आठ जिनमे सात ग्रह और जन्म लग्न सम्मिलित हैं। अष्टकवर्ग में राहू-केतु को छोड़कर शेष सात ग्रह और लग्न सहित आठ को महत्व दिया गया है।
यह सातों ग्रह हर समय गतिमान रहकर अपनी स्थिति बदलते रहते हैं जो शुभ भी हो सकती हैं और अशुभ भी। प्रत्येक ग्रह अपना प्रभाव किसी निश्चित दूरी से दूसरे स्थान पर डालता है। यदि कोई ग्रह शुभ स्थान व् शुभ योगों में होकर भी शुभ फल नहीं देता हो तो इसका कारण अष्टकवर्ग से सरलता से जाना जा सकता है। जैसे अगर कोई ग्रह अपनी उच्च राशि में २५ से कम बिंदुओं पर होगा तो अपना शुभ प्रभाव नहीं दे पायेगा।आठों (सात ग्रह और लग्न) से विचार करने पर कोई भी ग्रह अधिक के दृष्टिकोण से शुभ हो तो शुभ और अगर अशुभ हो तो अशुभ। इन प्रभावों को अष्टकवर्ग में महत्व देकर फलित करने की एक सरल विधि तैयार की गयी है। यही अष्टक वर्ग विचार कहलाता है।
वाराहमिहिर के पुत्र पृथुयशो ने भी अपनी पुस्तक होरसारा में लिखा है, "गोचर के द्वारा सामान्य परिणामों को जाना जा सकता है परन्तु सूक्ष्म और शुद्ध परिणाम अष्टकवर्ग के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं।"
सर्वप्रथम पारिभाषिक शब्दों के बारे में जानकारी होना आवश्यक है:-
- रेखा (|) के चार पर्यायवाची शब्द रेखा, स्थान, फल और कला हैं। बिंदु (०) के भी चार पर्याय शब्द हैं - करण, बिंदु, दाय और अक्ष। अष्टकवर्ग द्वारा फलादेश जानते समय देखा जाता है कि वहां पर कितनी रेखाएं और बिंदु हैं? शुभफल को प्रायः रेखा (|) से और अशुभफल को बिंदु (०) से व्यक्त किया जाता है। रेखा और बिंदु केवल शुभ या अशुभ फल के प्रतीक हैं इनमें शुभ या अशुभ फल निहित नहीं है। सूचना के लिए दक्षिण भारत में शुभफल का द्योतक बिंदु को माना जाता है। रेखा को शुभफल की द्योतक और बिंदु को अशुभफल का द्योतक मानते हुए यह कहा जा सकता है कि मनुष्य के जन्म समय उसकी कुंडली में जिस राशि को रेखाएं प्राप्त हों और उस स्थान पर ग्रह भी हों तो शुभफल होता है। इसी तरह से किसी राशि में बिंदु हों तथा रेखा न हों तो अशुभ फल होता है। किसी राशि में बिंदु और रेखा समान (४-४) संख्या में हों और उसमें साथ ही ग्रह भी विद्यमान हों तो उसका सम (मिश्रित) फल होता है। यदि किसी स्थान पर कुछ भी न हो तो सामान्य (सम) फल होता है।
- भिन्नाष्टक वर्ग या सभी सातों ग्रहों का अष्टकवर्ग।
- सर्वाष्टकवर्ग - बारहों भावों के प्रत्येक भाव में बिंदुओं का कुल योग। सभी ग्रहों द्वारा अपने-अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किसी विशेष राशि में दिए गए बिंदुओं का कुल योग एक अन्य वर्ग या कुंडली में दर्शाया जाता है, जिसे सर्वाष्टक वर्ग कहते हैं।
- प्रस्तार चक्र - सारणीबद्ध रूप में यह बारह राशियों में सभी बिंदुओं का कुल योग है।
सामान्यतः रेखायुक्त होना शुभ फलदायी होता है किन्तु रेखायुक्त ग्रह भी यदि उपचय स्थान में और स्वोच्चादि राशि में स्थित होगा तो उसका पूर्ण और वैसे ही अपचय स्थानों में होने पर शुभ फल कम हो जाएगा। यही क्रम अशुभ फल के सन्दर्भ में भी अपनाना चाहिए। उपचय स्थानगत ग्रह का फल मध्यम और अपचय स्थानगत ग्रह का अशुभ फल अधिक होता है।
उक्त शुभाशुभ फल अपने दशा परिपाक काल में अथवा गोचर काल में प्रतिफलित होगा। जन्म समय में जो ग्रह बली हो तो गोचर में अपने अष्टक वर्ग जनित फल को और अधिक पुष्ट करके प्रदान करेगा। इसी प्रकार निर्बल ग्रह अपने फल को अपुष्ट रूप से प्रदान करेगा। फल चाहे शुभ या अशुभ कैसा भी हो उसके पुष्टत्व और अपुष्टत्व का विवेक ग्रह के बलाबल के आधार पर करना चाहिए। यदि पूर्ण मंडल वाला चन्द्रमा भी बलहीन होगा तो अवश्य ही अन्य बलहीन ग्रहों की तरह अशुभ फल ही देगा।जन्म के समय जो ग्रह युद्ध में पराजित, अस्तंगत, कम रश्मियों वाला, नीचराशि में स्थित, शत्रुस्थानगत, शत्रुग्रह से दृष्ट और अल्प बिम्ब वाला होगा, वह अष्टक वर्ग जन्य अशुभ फल को अधिक परिपुष्ट करके प्रदान करेगा।
अष्टकवर्ग (भाग - 2)
सर्वाष्टकवर्ग
सर्वाष्टकवर्ग का विश्लेषण ग्रहों के विश्लेषण जितना ही आवश्यक है। सर्वाष्टकवर्ग फलित ज्योतिष में भविष्य - कथन के लिए प्रामाणिक ही नहीं अपितु विश्वसनीय भी है।
किसी भी भाव में २५ से कम बिंदु अनुकूल परिणाम देने में समर्थ नहीं होते। अगर बिंदुओं की संख्या ३० से अधिक हो तो शुभ परिणाम अपेक्षित हैं। अगर किसी भी भाव में बिंदुओं की संख्या ३० से अधिक हो तो उस भाव का परिणाम पूर्ण रूप से प्राप्त किया जा सकता है। उच्च राशि, त्रिकोण, उपचय आदि कम बिंदुओं में होने से प्रभावहीन या निष्फल हो जाते हैं।
कुल ३३७ सर्वाष्टक बिंदुओं को १२ से भाग देने पर औसत लगभग २८ आता है। अतः २८ वह औसत अंक है जिससे तुलना करने पर किसी भाव में बिंदुओं का कम या अधिक होना माना जा सकता है।
सामान्य सिद्धांत
- कोई भी राशि या भाव जहाँ २८ से अधिक बिंदु हों, शुभ फल देगा। जितने अधिक बिंदु होंगे फल उतना ही अच्छा होगा। इसके विपरीत उन भाव या राशियों में जिनमे २८ से कम बिंदु होंगे, अशुभ फल मिलेंगे। व्यवहार में २५ से ३० के बीच बिंदुओं को सामान्य फलदायी ही माना जाता है। दूसरे शब्दों में यही कहा जायेगा कि यदि बिंदु ३० से ऊपर हों तभी कोई भाव/राशि विशेष शुभ फल देगी।
- वह ग्रह प्रभावित हो जाता है जो भाव/राशि में स्थित है जहां बिंदु कम हैं , चाहे वह स्थान उसका उच्च, स्वक्षेत्री, केन्द्र या त्रिकोण ही क्यों न हो, और चाहे वह लग्न से उपचय (३, ६, १०, ११) स्थानों में ही क्यों न स्थित हो। तात्पर्य यह है कि इस ग्रह को अन्य ग्रहों से समर्थन नहीं मिल रहा।
- इसके विपरीत वे ग्रह भी शुभ फल देंगे जो अपने नीच स्थानों में अथवा दुःस्थानों, जैसे ६, ८, १२ में हों, किंतु वहां बिंदु अधिक हों। कुछ विद्वानों का मत इससे भिन्न हैं।
- यदि नवें, दसवें, ग्यारहवें और लग्न - इन सभी में ३० से अधिक बिंदु हों तो जातक का जीवन समृद्धिपूर्ण होगा। इसके विपरीत यदि इन भावों में २५ से कम बिंदु हों तो जातक को रोग और बेबसी की ज़िन्दगी भोगनी पड़ेगी।
- यदि ग्यारहवें घर में दसवें घर से ज़्यादा बिंदु हों और ग्यारहवें घर में बारहवें घर से ज़्यादा, साथ ही लग्न में बारहवें घर से ज़्यादा बिंदु हो तो जातक सुख-समृद्धि का जीवन भोगेगा।
- जातक भिखारी का जीवन जियेगा यदि लग्न, नवम, दशम और एकादश स्थानों में मात्र २१ या २२ या और कम बिंदु हों और त्रिकोण स्थानों में अशुभ ग्रह बैठे हों।
- यदि चन्द्रमा सूर्य से निकट होने के कारण पक्षबल से रहित हो, चन्द्र राशि के स्वामी के पास कम बिंदु (जैसे २२) हों और उसे शनि देखता हो तो जातक पर दुष्टात्माओं का प्रभाव रहेगा। यदि राहु भी चन्द्रमा पर प्रभाव डाल रहा हो तो इस परिणाम में कोई संशय नहीं रहेगा।
- जब-जब कोई अशुभ ग्रह ऐसे भाव पर गोचर वश विचरण करेगा जिसमे २१ से कम बिंदु हों तो उस भाव से संबंधित फलों की हानि होगी।
- इसके विपरीत, जब कोई ग्रह किसी ऐसे घर में विचरण करता है जहाँ ३० से अधिक बिंदु हों तो उस भाव से संबंधित शुभ फल मिलेंगे जो उस ग्रह के कारकत्व और और संबंधित कुंडली में उसे प्राप्त भाव विशेष के स्वामित्व के अनुरूप होंगे।
- इसी तरह ग्रह जिन राशियों के स्वामी होते हैं और जिन राशियों/भावों में वे स्थित होते हैं, उन स्थानों से संबंधित अच्छे फल वे अपनी दशा-अन्तर्दशा में देंगे। सूक्ष्मतर विश्लेषण के लिए दशा-स्वामी के भिन्नाष्टक वर्ग का अध्ययन करना चाहिये।
- जिस भाव में ३० से अधिक बिंदु हों और एक साथ कई ग्रह उसमें गोचरवश विचरण कर रहे हों तो उस अवधि में वे उस भाव के शुभ फलों को कई गुणा कर देंगे। फलों का स्वरुप इस बात पर निर्भर करेगा कि संबंधित भाव कौन सा है और गोचर के ग्रहों का मूल लग्न में स्थान कहाँ है और उनके कारकत्व क्या है।
- जब (किसी विशेष दिन) उस राशि का उदय हो रहा हो जिसमें न्यूनतम बिंदु हैं और उस दिन चिकित्सकों से सलाह करके रोग का उपचार प्रारम्भ किया जाये तो जल्दी स्वास्थ्य-लाभ मिलने की संभावना होती है। उसी तरह उस समय में यदि ऋण लिया जाये तो उसे चुकाने की क्षमता भी जल्दी ही अर्जित हो जाती है।
- किसी विवाह के सुखी और सफल होने के लिए वर और वधू की चन्द्र राशियों के बिंदु एक दूसरे की जन्म कुंडलियों में ३० से अधिक होने चाहियें।
- जन्म लग्न एवं उससे दूसरे, चौथे, नवें, दसवें और ग्यारहवें भाव के बिंदुओं का योग करें। यदि यह योग १६४ से अधिक है तो जातक समृद्ध होगा। संख्या १६४ को 'वित्ताय' कहते हैं जो वित्तीय समृद्धि का द्योतक है।
- इसी तरह छठे, आठवें और बारहवें घर के बिंदुओं का योग करें। यदि यह योग ७६ से काम आये तो आय व्यय से अधिक होगी। संख्या ७६ को तीर्थ का नाम दिया गया है।
- प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम एवं दशम भाव के बिंदुओं का योग करें। ये भाव जातक में अंतर्मुखी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह योग यदि शेष छः भावों (बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के द्योतक) के बिंदु योग से अधिक है तो जातक संतोषी जीव होगा और ज्ञान-ध्यान, सत्कर्म और दान-पुण्य से आतंरिक शांति पायेगा। विपरीत स्थिति में जातक हमेशा अपने से बाहर सुख ढूंढेगा जिसके कारण उसका मन लालच, छल-कपट, झूठे दिखावे और अहंकार से ग्रस्त रहेगा।
- कुंडली के बारह भावों को चार वर्गों में बांटा जा सकता है। (क) बंधु - प्रथम, पंचम एवं नवम भाव (ख) सेवक - द्वितीय, षष्ठ एवं दशम भाव (ग) पोषक - तृतीय, सप्तम एवं एकादश भाव (घ) घटक - चतुर्थ, अष्टम एवं द्वादश भाव।
तीव्र फलोदय का सिद्धांत :-
विभिन्न भावों में सर्वाष्टक बिंदुओं की तुलना करें। यदि घर में न्यूनतम बिंदु हैं और उससे अगले घर में अधिकतम, तो जातक जीवन में अचानक ऊपर उठेगा। यदि दोनों अंकों में अंतर काफी ज़्यादा हुआ तो जातक उतनी ही अधिक तीव्र उन्नति का अनुभव करेगा। इसके विपरीत यदि एक घर से दूसरे घर में अधिकतम बिंदुओं से न्यूनतम बिंदुओं की गिरावट हो तो जातक जीवन के किसी या कुछ क्षेत्रों में हानि का सामना करेगा। जहाँ इन घरों में न्यूनतम और अधिकतम बिंदुओं का अंतर मामूली होगा वहां जातक करीब-करीब एक-सी और धीमी प्रगति का अनुभव करेगा। यदि इस तरह के तीव्र अंतर कई भावों के बीच होंगे तो जातक का सारा जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहेगा - यानि कभी राजा तो कभी रंक।
त्वरित भविष्यवाणियों के लिए सर्वाष्टकवर्ग विधि का एक सिद्धान्त अत्यंत लोकप्रिय है :-
- यदि एकादश भाव में दशम भाव से अधिक बिंदु हो तो जातक अपेक्षाकृत कम प्रयासों से अधिक लाभ पाएगा। मुख्यतः लग्न से एकादश भाव के सन्दर्भ में यह नियम लागू किया जाता है, लेकिन अन्य भावों से एकादश भाव के संदर्भ में भी इस नियम का उपयोग किया जा सकता है।
- अगर इस स्थिति के विपरीत जातक का बारहवां भाव दूसरे भाव से अधिक प्रबल हो तो इसका अभिप्राय आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में यही होगा कि वह अपने पारिवारिक व्यवसाय में न लग कर, विदेश में अपना भाग्य आजमायेगा और वहां उस पर लक्ष्मी की कृपा होगी। कौन सा परिणाम कहाँ लागू होगा, यह देखने के लिये जन्म कुंडली में दूसरे योगों को भी देखना होगा।
- यदि बारहवें भाव में ग्यारहवें से अधिक अंक हों तो इसका अभिप्राय कोई एक हो सकता है, जैसे (क) आय से अधिक व्यय, जिसका परिणाम होगा कर्ज में डूबना (ख) विदेशी स्रोतों से आय, यह स्थिति उन लोगों की जन्म कुंडलियों में देखी जाती है जिनके सितारे मातृभूमि से बाहर किसी देश में चमकते हैं। ऐसे में चतुर्थ भाव और उसके स्वामी का का किंचित पीड़ित होना लगभग अनिवार्य होता है।
- यदि दूसरे भाव में बारहवें भाव से अधिक बिंदु हों तो जातक में आमोद-प्रमोद पर व्यय करने के बजाय धन को जोड़ने की प्रवृत्ति अधिक होगी। ऐसे लोग कभी जल्दबाज़ी में ख़रीदारी नहीं करते बल्कि बारीकी से मोलभाव करते हैं। दो स्थानों के बिंदुओं में अंतर जितना ज़्यादा होगा यह प्रवृत्ति उतनी ही उत्कृष्ट रूप से सामने आयेगी।
Tuesday, January 14, 2020
नीच भंग राजयोग
जन्म कुंडली में किसी ग्रह का नीच राशि में स्थित होना ख़राब योग माना गया है। किन्तु कभी-कभी ग्रह नीच राशि में स्थित होकर भी बहुत उत्तम प्रभाव दिखाते हैं यानि उनके नीच होने का जो दोष है वह भंग हो जाता है और वह फायदेमंद साबित होता है।
किसी ग्रह की नीचता तब बड़ी आसानी से भंग हो जाती है जब कुंडली में उस नीच राशि का स्वामी लग्न या चन्द्रमा से केन्द्र में अवस्थित हो। दूसरी स्थिति में नीचत्व तब भंग होता है जब नीच राशि का स्वामी और उसी के उच्च राशि स्वामी परस्पर एक-दूसरे से केन्द्र में हो (इसमें एक नियम यह भी कहा गया है कि कोई ग्रह नीच का है उस राशि में जो ग्रह उच्च का होता है उसकी युति या दृष्टि हो तो भी नीच भंग हो जाएगा)। यह भी माना गया है कि नीच ग्रह अगर लग्न और चंद्र से केन्द्र में अवस्थित हो तो भी ग्रहों का नीचत्व भंग हो जाता है। अष्टमेश ग्रह को नीचत्व का दोष स्वयं भंग हो जाता है और नीच ग्रह को उसके उच्च राशि स्वामी अगर पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो।
नीचस्थितो जन्मनि यो ग्रह: स्यात्तद्राशिनाथोSपि तदुच्चनाथः।
स चन्द्रलग्नाद्यदि केन्द्रवर्ती राजा भवेद्धार्मिकचक्रवर्ती।।
यदि किसी के जन्म के समय कोई ग्रह नीच राशि मे पड़ा हो और
क) इस नीच राशि का स्वामी चंद्रमा से केन्द्र में हो और
ख) जो ग्रह नीच है और उसका उच्चनाथ भी चन्द्रमा से केन्द्र में हो
तो नीच भंग हो जाता है बल्कि उत्तम राज योग बनाता है। यह समस्त एक योग है। उच्चनाथ शब्द का क्या अर्थ है? इसके अर्थ में मतभेद है; मान लीजिए शनि मेष राशि का नीच का हैा इसका उच्चनाथ कौन हुआ? एक मत तो यह है कि शनि तुला राशि का उच्च का होता है और तुला शुक्र होता है इस कारण उच्चनाथ शुक्र हुआ। दूसरा मत यह है कि शनि मेष राशि में है और मेष राशि में सूर्य उच्च का होता है इस कारण उच्चनाथ सूर्य हुआ। हमारे विचार से पहला अर्थ उपयुक्त है। सूर्य का उच्चनाथ मंगल, चन्द्रमा का उच्चनाथ शुक्र, बुध का उच्चनाथ बुध, बृहस्पति का उच्चनाथ चन्द्रमा, शुक्र का उच्चनाथ बृहस्पति और शनि का उच्चनाथ शुक्र है।
नीचभंग होने के लिए (क) और (ख) दोनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।
एक टीकाकार इस श्लोक का अर्थ यह कहते हैं कि (१) जो ग्रह नीच राशि में हो उसका स्वामी लग्न से केन्द्र में हो या (२) जो नीच राशि में ग्रह है उसका स्वामी चंद्रमा से केंद्र में हो (३) या जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो या (४) जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ चन्द्रमा से केन्द्र में हो - इन चारों परिस्थितियों में नीच भंग हो जाएगा। परन्तु मूल संस्कृत श्लोक में 'अपि' शब्द आया है जिस का अर्थ है कि जो ग्रह नीच राशि में है उसका स्वामी और उसका उच्चारण भी यानि दोनों, केवल एक नहीं।
इसी प्रकार मूल श्लोक में लिखा है 'चन्द्रलग्नात्' जिसका श्री सुब्रह्मण्य शास्त्री ने अर्थ किया है 'चन्द्रमा से या लग्न से' परन्तु यदि दोनों से अभिप्राय होता तो मूल संस्कृत में 'चन्द्रलग्नात्' यह पञ्चमी का एक वचन नहीं आता। चन्द्र लग्नात् का अर्थ है चन्द्र लग्न से यानि चन्द्रमा जिस राशि में है उससे।
यदि इस श्लोक में दी गई चार शर्तों को अलग-अलग चार योग मान लिया जाये तब तो प्रायः सभी नीच ग्रहों का भंग हो जावेगा क्योंकि जो ग्रह नीच राशि का है उसका स्वामी यदि लग्न से केन्द्र में ही (चार घर उसके अंतर्गत आ गए) या चन्द्रमा से केन्द्र में हो (चार घर इस परिभाषा में आ गए) या उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो (चार घर इस में आ गये) या चन्द्र से केन्द्र में हों (चार घर इस में आ गए) इस प्रकार १६ निर्दिष्ट स्थानों में से कहीं न कही आ जायेगा हीा
एक टीकाकार यह भी अर्थ करते हैं कि यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी या उस नीच ग्रह का उच्चनाथ उस नीच ग्रह से केन्द्र में हो तो नीच भंग राजयोग होता है।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो तो (क) उस नीच राशि का स्वामी और जो ग्रह नीच का है उसका उच्चारण यदि दोनों परस्पर केन्द्र में हों तो नीचभंग राजयोग होता है। यहाँ भी उच्चारण के दो अर्थ हो सकते हैं परन्तु हम यही अर्थ लेंगे कि नीच ग्रह जिस राशि में उच्च होता है उस राशि का स्वामी उच्चप या उच्चनाथ कहलाएगा।
इस श्लोक का एक अन्य अर्थ भी हो सकता है कि यदि कोई ग्रह नीच हो तो उस नीच राशि के स्वामी का जो उच्चनाथ है वह उच्चनाथ यदि केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है। उदाहरण के लिए किसी की कुंडली में सूर्य नीच राशि का है, तुलाराशि नाथ शुक्र है। शुक्र उच्च होता है मीन में। मीन का स्वामी हुआ बृहस्पति, यह बृहस्पति यदि केन्द्र में हो तो नीच भंग राज योग हुआ।
एक अन्य नीच भंग राजयोग बताते हैं। जिस राशि में नीच ग्रह हो उस राशि का स्वामी यदि नीच ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो नीच भंग राज योग होता है। यदि यह नीच ग्रह ६-८-१२ दुःस्थान में हो तो इतना अच्छा राजयोग नहीं होगा किन्तु सुस्थान में हो तो बहुत उत्तम नीचभंग राजयोग बनता है।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी और नीच ग्रह जिस राशि में उच्च होता है उसका स्वामी वह - एक या दोनों लग्न से केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है।
क) इस नीच राशि का स्वामी चंद्रमा से केन्द्र में हो और
ख) जो ग्रह नीच है और उसका उच्चनाथ भी चन्द्रमा से केन्द्र में हो
तो नीच भंग हो जाता है बल्कि उत्तम राज योग बनाता है। यह समस्त एक योग है। उच्चनाथ शब्द का क्या अर्थ है? इसके अर्थ में मतभेद है; मान लीजिए शनि मेष राशि का नीच का हैा इसका उच्चनाथ कौन हुआ? एक मत तो यह है कि शनि तुला राशि का उच्च का होता है और तुला शुक्र होता है इस कारण उच्चनाथ शुक्र हुआ। दूसरा मत यह है कि शनि मेष राशि में है और मेष राशि में सूर्य उच्च का होता है इस कारण उच्चनाथ सूर्य हुआ। हमारे विचार से पहला अर्थ उपयुक्त है। सूर्य का उच्चनाथ मंगल, चन्द्रमा का उच्चनाथ शुक्र, बुध का उच्चनाथ बुध, बृहस्पति का उच्चनाथ चन्द्रमा, शुक्र का उच्चनाथ बृहस्पति और शनि का उच्चनाथ शुक्र है।
नीचभंग होने के लिए (क) और (ख) दोनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।
एक टीकाकार इस श्लोक का अर्थ यह कहते हैं कि (१) जो ग्रह नीच राशि में हो उसका स्वामी लग्न से केन्द्र में हो या (२) जो नीच राशि में ग्रह है उसका स्वामी चंद्रमा से केंद्र में हो (३) या जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो या (४) जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ चन्द्रमा से केन्द्र में हो - इन चारों परिस्थितियों में नीच भंग हो जाएगा। परन्तु मूल संस्कृत श्लोक में 'अपि' शब्द आया है जिस का अर्थ है कि जो ग्रह नीच राशि में है उसका स्वामी और उसका उच्चारण भी यानि दोनों, केवल एक नहीं।
इसी प्रकार मूल श्लोक में लिखा है 'चन्द्रलग्नात्' जिसका श्री सुब्रह्मण्य शास्त्री ने अर्थ किया है 'चन्द्रमा से या लग्न से' परन्तु यदि दोनों से अभिप्राय होता तो मूल संस्कृत में 'चन्द्रलग्नात्' यह पञ्चमी का एक वचन नहीं आता। चन्द्र लग्नात् का अर्थ है चन्द्र लग्न से यानि चन्द्रमा जिस राशि में है उससे।
यदि इस श्लोक में दी गई चार शर्तों को अलग-अलग चार योग मान लिया जाये तब तो प्रायः सभी नीच ग्रहों का भंग हो जावेगा क्योंकि जो ग्रह नीच राशि का है उसका स्वामी यदि लग्न से केन्द्र में ही (चार घर उसके अंतर्गत आ गए) या चन्द्रमा से केन्द्र में हो (चार घर इस परिभाषा में आ गए) या उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो (चार घर इस में आ गये) या चन्द्र से केन्द्र में हों (चार घर इस में आ गए) इस प्रकार १६ निर्दिष्ट स्थानों में से कहीं न कही आ जायेगा हीा
एक टीकाकार यह भी अर्थ करते हैं कि यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी या उस नीच ग्रह का उच्चनाथ उस नीच ग्रह से केन्द्र में हो तो नीच भंग राजयोग होता है।
यद्येको नीचगतस्तद्राश्यधिपस्तदुच्चपः केन्द्रे।
यस्य स तु चक्रवर्ती समस्तभूपालवन्द्यांघ्रि ।।
इस श्लोक का एक अन्य अर्थ भी हो सकता है कि यदि कोई ग्रह नीच हो तो उस नीच राशि के स्वामी का जो उच्चनाथ है वह उच्चनाथ यदि केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है। उदाहरण के लिए किसी की कुंडली में सूर्य नीच राशि का है, तुलाराशि नाथ शुक्र है। शुक्र उच्च होता है मीन में। मीन का स्वामी हुआ बृहस्पति, यह बृहस्पति यदि केन्द्र में हो तो नीच भंग राज योग हुआ।
यस्मिन्राशौ वर्तते खेचरस्तद्राशीशेन प्रेक्षितश्चेत्स खेटः।
क्षोणीपालं कीर्तिमन्तं विदध्यात् सुस्थानश्चेति्कपुनः पार्थिवेन्द्रः।।
एक अन्य नीच भंग राजयोग बताते हैं। जिस राशि में नीच ग्रह हो उस राशि का स्वामी यदि नीच ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो नीच भंग राज योग होता है। यदि यह नीच ग्रह ६-८-१२ दुःस्थान में हो तो इतना अच्छा राजयोग नहीं होगा किन्तु सुस्थान में हो तो बहुत उत्तम नीचभंग राजयोग बनता है।
नीचे तिष्ठति यस्तदाश्रितगृहाधीशो विलग्नाद्यदा
चन्द्राद्वा यदि नीचगस्य विहगस्योच्चर्क्षनाथोऽथवा।
केन्द्रे तिष्ठति चेत्प्रपूर्णविभवः स्याच्चक्रवर्ती नृपो।
धर्मिष्ठोऽन्यमहीशवन्दितपदस्तेजोयशोभाग्यवान्।।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो तो (क) इस नीच राशि का स्वामी अथवा (ख) नीच ग्रह का उच्चनाथ इन दोनों में से एक भी जन्म लग्न या चन्द्र लग्न से केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है।
नीचे यस्तस्य नीचोच्चभेशौ द्वावेक एव वा।
केन्द्रस्थश्चेच्चक्रवर्ती भूपः स्याद्भूपवन्दितः।।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी और नीच ग्रह जिस राशि में उच्च होता है उसका स्वामी वह - एक या दोनों लग्न से केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है।
सौजन्य :- फलदीपिका भावार्थबोधिनी
Cancellation of Debilitation of a Planet
Due to the motion of the planets in the Zodiac, they pass through certain degrees of constellations and Rashis (Signs), they acquire or loose strength or power. In Western Astrology, the word Debilitated is used for a planet which is at fall due to its presence in a specific Zodiac Sign. But in Vedic Astrology Debilitated means when Planet is placed in a sign where it's not comfortable may be in an enemy house. Therefore, debilitation denotes planet's weakness or infirmity whereas Neecha means negative or malefic qualities of the planet in question to the native.
- The debilitation of a Planet stands cancelled if the lord of the sign the planet in question occupies is in a Kendra from the Lagna or the Chandra-lagna.
- The debilitation of a Planet also stands cancelled if the lord of the sign of exaltation of the said planet is in a Kendra from the Lagna or the Chandra-lagna.
- The debilitation of a Planet stands cancelled also if its dispositor fully aspects the Planet in question. The debilitation of a Planet is cancelled if the lords of the signs of debilitation and exaltation of the Planet in question conjoins or oppose each other or if they are at a distance of 4 houses or 10 houses from each other.
- The debilitation of a Planet stands cancelled also if the Planet in Question is Retrograde, i.e., it is moving in the reverse direction.
- If a planet is in his sign or debilitation, and is aspected by the lord of that sign, the debilitation gets cancelled.
The Mars is said to be the dispositor of the Saturn if the Saturn happens to occupy the sign and the house owned by the Mars.
There is some difference of opinion about the interpretation of the word Ucchanatha. Suppose Saturn is in the Aries in debilitation who will be Ucchanatha or Saturn? According to one view Saturn is exalted in Libra. Therefore lord of Libra, namely, Venus is the Ucchanatha. Another view is that Saturn being in Aries and the Sun is exalted in Aries. Therefore, the Sun is the Ucchanatha. In our view the second view is more appropriate.
Thus, there are five kinds of Neechbhanga Raj Yogas as described below:-
a) The lord of depression sign or the planet that is exalted in that sign, is in a Kendra position from the Lagna or the Moon.
b)The lord of the sign of debilitation and the lord of the exaltation sign of the debilitation planet are mutually in Kendra positions.
c) The planet in the sign of debilitation is aspected by the lord of that sign.
d) The lord of the sign of debilitation or the lord of the exaltation sign of the planet in debilitation, is in Kendra from the Lagna or the Moon.
e) The planet in his sign of debilitation is in Kendra with reference to the Lagna or the Moon.
Study by Yashraj Sharma @ aaskplanets.com
In Kalyuga, most of us are not so pure. So energies syncs easily and debilitated planets helps people to go through lowest level of Karma or Materialistic work to achieve something but exalted helps to go through highest level to achieve something. These debilitated planets makes one very cunning and they are more selfish to gain and achieve something.
Also, Debilitated planets are more materialistic than exalted ones. Debilitated planet does very well in 6th house, if it's alone there, and lagna is strong. This is because, person will have to face low level of enemies, competitions and small diseases. And if lagna is weak than it can be dangerous.
Study by Yogita (Astrologer) Shimla, India
Consideration to Judge whether Debilitated Planet is weak or not:-
- The Planet can said to be weak when it is mrit or very old. One should see the degree. Planets become neech at specific degree.
- A retrograde planet has a very strong impact on the native. So certainly, a debilitated planet is not weak when it comes in retrogression. It cancel the neechta as well.
- Debilitated Planet is not weak if has any benefic aspect or it is aspected directly by the lord of the sign it is place in.
- If the planet is improving in the navamsa chart.
Debilitated planets can give fruitful results as well in my experience in the following cases:-
- When present in a prominent nakshatra.
- If the lord of the sign is well placed in natal chart and navamsa. The debilitated planets improves with time if it is exalted in Navamsa Chart or in Kendra with moon in Navamsa Chart.
Study by Adit Venkat, Vedic Astrologer and Researcher
- Debilitated planets are weak but it still produces results. The result given by a debilitated planet may not be satisfactory or worthy. Debilitated Jupiter in Capricorn gives lot of wealth and status usually but the person may lack inner contentment, joy and happiness which is signified by Jupiter.
- Most planets are debilitated in signs of planets which they are not comfortable with except for Venus which is debilitated in a sign of its friend.
- Mars is debilitated in Cancer which is ruled by Moon. Moon is an emotional planet and Mars rules aggression and courage. Both these do not get together.
- Jupiter is debilitated in Capricorn which is sign of Materialism. Jupiter is inner joy and happiness (Cancer) which does not come from external things (Saturn).
- Sun is debilitated in Libra. Sun is a singular planer and always likes to be alone. Libra is a sign of sharing and compromise. Here sun is forced to oblige and come down.
- Venus is debilitated in Virgo because Virgo is breaking apart of agreements (12th to Libra). Venus likes to keep promises and contracts as that is what it rules over (Libra stands for agreements, contacts, promises). Venus debilitated can still be helped by Mercury.
- Mercury is debilitated in Pisces because Mercury relies on facts and data, things which can be verified by the 5 senses. Pisces is the imagination and mercury does not take anything which is not tangible. Mercury rules Virgo which is outright tangible things of the earth.
- Saturn is debilitated in Aries because Saturn likes to do things patiently while Aries rushes through things. Saturn likes to follow while Aries like to take charge and lead.
- So Debilitated planets are not bad. They are just opposed to their natural functions and find it difficult to easily manifest the significance of those signs.
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