षोडश योगों के विचार के बिना वर्ष कुंडली का अध्ययन अधूरा ही रहता है। षोडश यानि सोलह योगों का निर्माण लग्नेश तथा कर्मेश की पारस्परिक स्थिति के आधार पर बनता है। वर्ष लग्न पद्धति मूलतः यवनों में प्रचलित थी। उन्हीं के द्वारा भारत में लाई जाने के कारण इन योगों के नाम अरबी-फ़ारसी भाषा के ही हैं।
वर्ष कुंडली में निम्न सोलह योग बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं:-
वर्ष कुंडली में निम्न सोलह योग बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं:-
इन्दुवार योग - वर्षकुण्डली में सभी ग्रह आपोक्लिम (३, ६, ९, १२) स्थानों में हों तो इन्दुवार योग होता है। इस योग के होने से सामान्य सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु वर्ष-भर चिंता व परेशानी बनी रहती है।
इत्थशाल योग - इस योग को समझने के लिए ग्रहों की गति एवं राशिगत अंशों पर ध्यान देना होगा। कुछ ग्रह शीघ्रगामी होते हैं तो कुछ मंदगति। मंदगति ग्रह के राशिगत अंश अधिक हों और शीघ्रगति ग्रह के अंश कम हों, वर्ष के मध्य किसी भी समय शीघ्रगति ग्रह अधिक अंश चल कर मन्दगति ग्रह के अंश के बराबर जायें तो इस प्रकार शीघ्रगति ग्रह मंदगति ग्रह को उसके अंश के बराबर पहुँच कर उसे अपना तेज देता है। इसे इत्थशाल योग कहते हैं।
उदहारण - सूर्य ३ राशि ८ अंश तथा मंगल ३ राशि १२ अंश पर हैं, सूर्य १ दिन में १ अंश चलता है। मान लीजिये मंगल की उस समय की चाल ४५ कला प्रतिदिन है। १६ दिन में सूर्य १६ अंश चल कर ३ राशि २४ अंश हो जायेगा तथा मंगल १६ दिन में १६ x ४५ = ७२० कला या १२ अंश आगे बढ़कर ३ राशि २४ अंश हो जायेगा।
परन्तु इत्थशाल योग में कुछ दशाएं आवश्यक हैं -
क) दोनों ग्रहों में से एक लग्नेश होना चाहिये।
ख) दोनों ग्रह एक-दूसरे को देखते हों।
ग) दोनों ग्रह दीप्तांश के भीतर हों।
दोनों ग्रहों में मूलतः ३० कला से कम का अंतर हो तो पूर्ण इत्थशाल योग बनता है। लग्नेश का प्रत्येक भाव के स्वामी के साथ इत्थशाल हो सकता है। जिस भावेश (कार्येश) का लग्नेश के साथ इत्थशाल होगा, उस भाव का फल वर्ष में अवश्य घटित होगा। षष्ठेश, अष्टमेश, तथा द्वादशेश का लग्नेश से इत्थशाल हो तो वर्ष में इन भावों से सम्बन्धित अशुभ घटनाएं (रोग, मृत्यु, व्यय, शत्रुभय) अधिक होंगी। इसके विपरीत द्वितीयेश, पंचमेश, नवमेश, व एकादशेश से इत्थशाल होना शुभ है।
इसराफ़ योग - यह इत्थशाल योग से विपरीत है। इसके अन्तर्गत तीन आवश्यक दशाएं तो वे ही हैं जो इत्थशाल योग में हैं परन्तु तीव्रगामी ग्रह के अंश मन्द ग्रह से अधिक होते हैं, जिससे तीव्रगामी ग्रह मन्दगति ग्रह से अधिक दूर होता चला जाता है। अशुभ भावों के स्वामी से इसराफ़ योग शुभ होता है क्योंकि इसराफ़ योग अशुभ भावों के अशुभ फल की हानि (नष्ट) करता है, जैसे रोग-हानि, मृत्यु-हानि व व्यय-हानि यानि रोग न हो, मृत्यु न हो, व्यय न हो आदि। शुभ भावों के स्वामी से भी इसराफ़ योग इतना हानिकारक नहीं है।
नक्त योग - जिस भाव के सम्बन्ध में विचार करना हो, उस भाव का स्वामी (कार्येश) व लग्नेश एक-दूसरे को न देखते हों, परन्तु इन दोनों के बीच में एक तीव्रगामी ग्रह हो, जो दोनों को देखता हो, बीच वाला ग्रह पीछे वाले ग्रह से तेज ले कर आगे वाले ग्रह को देता है। इस योग को नक्त योग कहते हैं। इससे कार्यसिद्धि किसी अन्य व्यक्ति के सहयोग से होती है।
यमय योग - इस योग में लग्नेश व कार्येश दीप्तांश के भीतर हो, पर दृष्टि न हो। इन दोनों के बीच में तीसरा मंद ग्रह हो, जो दोनों को देखता हो। यह मंद ग्रह पीछे वाले ग्रह से तेज लेकर आगे वाले ग्रह को देता है। इससे भी कार्य तीसरे व्यक्ति के सहयोग से होता है।
मणऊ योग - लग्नेश व कार्येश के इत्थशाल में बाधा डालने वाला योग मणऊ योग है। शनि या मंगल, जिसकी दोनों में से एक पर शत्रु दृष्टि हो तथा उनके दीप्तांश के भीतर हो तो यह पाप ग्रह इत्थशाल योग में खलनायक का कार्य करता है। यह योग अशुभ एवं कार्यनाशक है।
कम्बूल योग - जब लग्नेश व कार्येश का इत्थशाल हो और चंद्रमा दोनों में से किसी एक से भी इत्थशाल करे तो कम्बूल योग होता है। यदि दोनों ग्रह उच्च या स्वराशिस्थ हों तो उत्तम कम्बूल योग तथा दोनों नीच या शत्रुक्षेत्री हों तो अधम कम्बूल योग, परन्तु एक उच्च या स्वक्षेत्री और एक नीच या शत्रुक्षेत्री और एक नीच या शत्रुक्षेत्री हो तो माध्यम कम्बूल योग होता है।
उत्तम कम्बूल योग लग्नेश और कार्येश के इत्थशाल योग के शुभ फल की वृद्धि करता है।
गैर कम्बूल योग - जब चन्द्रमा लग्नेश कार्येश को नहीं देखता हो, अपनी राशि के अंतिम अंशों में हो और अपनी राशि में जाकर किसी अन्य (गैर) बली ग्रह से कम्बूल करे तो गैर कम्बूल योग होता है। यह योग भी तीसरे व्यक्ति की सहायता से कार्यसाधक है।
खल्लासर योग - लग्नेश और कार्येश में इत्थशाल हो, पर चन्द्रमा शून्यमार्गी (वह ग्रह जो न उच्च का है न नीच का, न शुभ ग्रह दृष्ट हो न ही अशुभ ग्रह दृष्ट हो न मित्र ग्रही हो और न शत्रु ग्रही हो, यानि एकाकी असम्बद्ध हो) हो, लग्नेश या कार्येश से कम्बूल न करे और न ही किसी अन्य ग्रह से गैर कम्बूल करे तो या योग खल्लासर कहलाता है। यह योग कार्य को बिगाड़ने वाला होता है।
रद्द योग - यदि लग्नेश अथवा कार्येश जिनका इत्थशाल हो, वक्री, अस्तंगत, नीच अथवा ६, ८, १२वें घर का स्वामी हो तो वह कार्य को नष्ट (रद्द) करता है। यह योग प्राणघातक, शत्रुओं को बढ़ाने वाला एवं उन्नति में बाधक है।
दुफालि कुत्थ योग - इत्थशाल करने वाले लग्नेश व कार्येश में से मंदगति ग्रह बली (उच्च, स्वराशिस्थ, वर्गोत्तम) हो, पर तीव्रगामी ग्रह में ये गुण न हो (निर्बल हो) तो यह योग होता है। इसमें भी कार्यसिद्धि होती है, पर सफलता की गति धीमी होती है।
दुत्थ कुत्थीर योग - यदि लग्नेश व कार्येश में इत्थशाल होते हुए भी दोनों निर्बल हों तो दुत्थ कुत्थीर योग होता है। इसमें भी तीसरे व्यक्ति की सहायता से कार्य होता है।
तम्बीर योग - जब लग्नेश व कार्येश में इत्थशाल न हो, उनमें से एक ग्रह राशि के अंतिम अंशों में रह कर अगली राशि में किसी बली ग्रह से इत्थशाल करे तो तम्बीर योग होता है। इससे वर्ष में सुख-शान्ति बढ़ती है।
कुत्थ योग - वर्षकुण्डली में जब लग्नेश व कार्येश केन्द्र तथा पणफर में स्थित हो, पंचवर्गी तथा हर्ष बल के अनुसार बली हो तो कुत्थ योग होता है। इस योग से वर्ष में सफलता, उन्नति तथा हर्ष होता है।
दुरुफ योग - यह कुत्थ योग से विपरीत है। जब वर्षकुण्डली में सभी ग्रह आपोक्लिम में स्थित हों या पंचवर्गी हर्ष बल के अनुसार निर्बल हों तो दुरुफ योग होता है। यह योग वर्ष भर संताप देने वाला, कष्टदायक तथा प्राणघातक है।
यह अनमोल कृति ज्योतिष के विद्वान "श्री रघुनन्दनप्रसाद जी" की अनमोल कृति है जिसका प्रकाशन इस ब्लॉग के पड़ने वालों के ज्योतिष-ज्ञान में वृद्धि के लिए किया गया है।
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