Tuesday, September 29, 2015

स्वप्न में शरीर के विभिन्न अंगों को देखने का फल

स्वप्न में शरीर के विभिन्न अंगों को देखने का फल इस तरह से होगा :-

  • नाक - अधिकार प्राप्त होगा। 
  • कान - पुत्र-पत्नी से सुख मिलेगा। 
  • मुंह - संपर्क का दायरा बड़ेगा। 
  • चेहरा - साहस और पराक्रम में वृद्धि होगी। 
  • सिर - मान-सम्मान की प्राप्ति होगी। 
  • सिर के बाल - सौंदर्य और शक्ति में वृद्धि होगी। 
  • मस्तक - रौब और महत्त्व बढ़ेगा। 
  • भौंहे - प्रसिद्धि बढ़ेगी। 
  • पलकें - व्यवहार में मधुरता आएगी। 
  • आँखें - भलाई के काम संपन्न होंगे। 
  • होंठ - धनलाभ होगा।
  • दांत - किसी परिजन की मृत्यु होगी। 
  • ठोड़ी - विशेष व्यक्ति से मित्रता होगी। 
  • मूंछ - कर्ज का बोझ उतरेगा। 
  • सीना - मान-सम्मान प्राप्त होगा। 
  • वक्षस्थल - पुत्रियों का विवाह होगा। 
  • पेट - धन में वृद्धि होगी। 
  • हाथ - नई योजनाएं बनेगी। 
  • उंगलियाँ - भाई-बहनों से सुख मिलेगा। 
  • पसलियाँ - स्त्रियों द्वारा कोई भेद खुल जायेगा। 
  • दाढ़ी - अधिकार में वृद्धि होगी। 
  • गला - भलाई के काम होंगे। 
  • कंठ - व्यवहारकुशलता बढ़ेगी। 
  • कनपटी - रोजी-रोजगार मिलेगा। 
  • जबड़ा - व्यापार में प्रगति होगी। 
  • कंधे - ज़िम्मेदारियों में वृद्धि होगी। 
  • बाजू - शरीर शक्तिशाली होगा। 
  • पीठ - मान-प्रतिष्ठा बढ़ेगी। 
  • कमर - प्रसिद्धि मिलेगी। 
  • नितम्ब - सौभाग्य की प्राप्ति होगी। 
  • पैर - दूर-निकट की यात्रा होगी। 
  • ऐड़ी - ताकत बढ़ेगी। 
  • पैर के तलुये - सौभाग्य की प्राप्ति होगी। 
  • पैर की उंगलियां - धन की वृद्धि होगी। 
  • हथेली - धन-संपत्ति मिलेगी। 
  • मूत्रेन्द्रिय - भोग-विलास की बढ़ोतरी होगी। 
  • योनि - मुश्किलें आसान होंगी। 
  • जांघे - परिवार में वृद्धि होगी। 
  • पिंडलियाँ - रोजगार मिलेगा। 
  • घुटना - धन प्राप्त होगा। 
  • टखना - नए अनुबंध होंगे। 
  • हाथ का अंगूठा - विश्वासघात होने का भय रहेगा। 
  • पैर का अंगूठा - यात्रा होगी। 

Wednesday, September 23, 2015

शुभ-अशुभ शकुन विचार

छिपकली गिरने का विचार 
मनुष्य के किस अंग पर छिपकली गिरने का क्या फल होता है, इसे नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिए। जो फल छिपकली के गिरने का होता है, वही फल विभिन्न शारीरिक अंगों पर गिरगिट के चढ़ने का होता है। 
नीचे छिपकली गिरने का जो फल लिखा है, वह पुरुष के दायें अंग और स्त्री के बायें अंग पर गिरने का समझना चाहिए। 

          शारीरिक अंग                         फल 
  • सिर पर                                प्रतिष्ठा मिले 
  • ललाट पर                             प्रियजनों का दर्शन 
  • नाक पर                               बीमारी 
  • दायें कान पर                        आयु में वृद्धि 
  • बायें कान पर                        विशेष लाभ        
  • दाईं भुजा पर                        राज्य द्वारा सम्मान 
  • बाईं भुजा पर                        राज्य द्वारा भय 
  • कंठ पर                                शत्रु नाश  
  • पेट पर                                 सुख, भूषण लाभ 
  • पीठ पर                                बुद्धि नाश 
  • जांघ पर                               शुभदायक 
  • हाथों पर                               वस्त्र लाभ 
  • नाभि पर                              विशेष लाभ 
  • कन्धों पर                             विजय प्राप्ति
  • पैरों पर                                 यात्रा योग 

छींक विचार 


  • चलते समय अपनी पीठ के पीछे अथवा बाईं ओर को छींक हो तो वह शुभ फल देती है। 
  • चलते समय यदि सामने की और कोई छींके तो झगड़ा होता है। 
  • चलते समय दाईं ओर छींक हो तो धन की हानि होती है।
  • चलते समय उंचाईं पर छींक हो तो विजय प्राप्त होती है। 
  • यदि एक साथ दो छींकें हों तो वे शुभ फलदायक होती हैं। 
  • मार्ग में जाते समय छींक होना शुभ फलदायक होता है।
  • आसन, शयन, शौच, दान, भोजन, अौषध सेवन, विद्यारम्भ, बीज बोने के समय, युद्ध अथवा विवाह के लिए जाते समय छींक होना शुभ फलदायक होता है। 
  • कन्या, विधवा, वेश्या, रजस्वला, मालिन, धोबिन तथा हरिजन स्त्री की छींक अशुभ फल देने वाली होती है। इनके छींकने पर यात्रा स्थगित कर देनी चाहिए तथा किसी कार्य को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। 

Sunday, September 20, 2015

नक्षत्र और नाम के अनुसार व्यक्तियों का सामूहिक चरित्र

सौरमंडल में २७ नक्षत्र माने गए हैं। नक्षत्रों के चरणाक्षर भी राशि निर्धारण करने के लिए निश्चित हैं। इन नक्षत्रों और नाम के प्रारंभिक अक्षरों के अनुसार व्यक्तियों का जो सामूहिक चरित्र उभर कर आता है, वह इस प्रकार ज्योतिषशास्त्र में वर्णित है :-
  1. अश्विनी - सुखद दाम्पत्य जीवन, सीमित संतान, सीमित मर्यादित सेक्स और शांत-गंभीर कामुकता से घृणा। 
  2. भरिणी - सुखमय दांपत्य जीवन, पुत्रवान, पति/पत्नी व्रत, संयमित सेक्स। 
  3. कृतिका - कुकर्मी, पत्नी-संतान को सुख देने वाला, कलहप्रिय, संतप्त दाम्पत्य जीवन। 
  4. रोहिणी -  उत्तम चरित्र, संतानवान, सुखद दाम्पत्य जीवन, सीमित मैथुन। 
  5. मृगशिरा - परस्त्री/पुरूष भोगी, मध्यम सुख वाला, दांपत्य जीवन, उद्वेगमय सेक्स। 
  6. आद्रा - पति/पत्नी, संतान के लिए कठोर, पापी, चरित्रहीन, स्वार्थमय सेक्स। 
  7. पुनर्वसु - सुखद दाम्पत्य जीवन, पर भोग विलास प्रिय, संतानमय। 
  8. पुष्य - सुखद जीवन, संतान  प्रेम में निष्ठा, उचित मैथुन। 
  9. अश्लेषा - महाकामी, क्रूर, परिवार को अत्यंत दुःख, संतानमय। 
  10. मघा  - विलासप्रिय, सामान्य सुखी परिवार, प्राय: पुत्रहीन। 
  11. फाल्गुनी (पूर्वा ) - अनेक प्रेमी/प्रेमिकाएं, सुखी दाम्पत्य, अवैध वैध संतानें। 
  12. फाल्गुनी (उत्तरा ) - संयमी, परिवार नियंत्रण सुख, पुत्रवान। 
  13. हस्त - पर स्त्रीगामी, दाम्पत्य जीवन, कलहपूर्ण, संतानहीन।  
  14. चित्रा - निष्ठावान, उचित सेक्स, कई संतानें। 
  15. स्वाति - ब्रह्मचर्य में आस्था, कठोर नियंत्रण वाला पर सुखद दांपत्य जीवन, पुत्रवान। 
  16. विशाखा - वेश्यागामी, परिवार को नष्ट करने वाला, संतानहीन। 
  17. अनुराधा - रोहिणी के समान। 
  18. ज्येष्ठा - पुष्य के समान। 
  19. मूल - हिंसक, मैथुनप्रिय, सुखी परिवार, काम संतान। 
  20. पूर्वाषाढ़ - गुप्त प्रेमी, सामान्य दाम्पत्य जीवन। 
  21. उत्तराषाढ़ - रतिप्रिय, मध्यम सुखी परिवार, अधिक संतान। 
  22. श्रवणा - अत्यंत कामुक पद, सुखी परिवार, संतानहीन।  
  23. घनिष्ठा - परिवार में भी कुकर्म करने वाला, दुःखी दांपत्य, निर्बल रोगी संतान। 
  24. शतभिषा - पराई स्त्री का दीवाना, दुःखी  परिवार, विश्वस्त प्रेमी, अधिकतम संतान। 
  25. पूर्वभाद्र् - सामान्य सेक्स, कम संतान, दांपत्य जीवन, साधारण सुख। 
  26. उत्तरभाद्र् - अदम्य सेक्स, गुप्त प्रेम, दुखी दांपत्य जीवन, पुत्रवान/पुत्रहीन। 
  27. रेवती - अश्विनी के समान। 

ज्योतिष शास्त्र के सांकेतिक शब्द

पारिभाषिक सांकेतिक शब्दों तथा संज्ञाओं के ज्ञान के बिना ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान अधूरा है जैसे तारागण जो रात्रि के समय आकाश में चमकते हैं उनकी तीन प्रकार की संज्ञा है - ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र। जैसे उत्तर दिशा में सात तारों का पुञ्ज है जो प्रत्येक रात्रि को यदि आकाश स्वच्छ रहे तो देखा जा सकता है। इसके नाम की कल्पना भिन्न-भिन्न प्रकार से की गई  है। हमारे यहाँ उसका नाम सप्तऋषि है। जैसे प्राचीन काल में सात ऋषि एक साथ रहते थे उसी प्रकार यह सात तारे भी एक साथ रहते हैं। इसलिए इस पुञ्ज का नाम सप्तऋषि रखा गया है। इसी प्रकार एक तारा पुञ्ज ठीक बिच्छु  की तरह देख पडता है। जिसे वृश्चिक राशि कहते हैं। 

नक्षत्र - उन आकाशीय बिम्बों का नाम है जो ग्रहों में प्रकाश और उष्णता पहुँचाते है और अपनी आकर्षण शक्ति से उन्हें अपनी कक्षा में रखते हैं और स्थिर हैं। ये आकाश में एक ही स्थान पर कई कई तारे एकत्रित देखे जा सकते हैं। पहचान के लिए इन्हे पशु ढोलक पीड़ा इत्यादि नाम दिए गए हैं। प्रत्येक नक्षत्र बिम्ब सूर्य बिम्ब की अपेक्षा बड़ा है। दूरी होने के कारण छोटे दरब दिखाई देते हैं। 

ग्रह - आकाश में चमकते गोल बिम्ब जो किसी नक्षत्र के चारों और घूमते हैं उन्हें ग्रह कहते हैं जैसे बुध:, भौम:, गुरु: इत्यादि। 

उपग्रह - जो चमकते हुये गोल बिम्ब ग्रहों की परिक्रमा करने में ही लगे रहते हैं वो उपग्रह कहलाते हैं। 

सौरमंडल - सौरमंडल उन सभी ग्रहों, उपग्रहों, धूमकेतुओं और उल्का इत्यादि के समूह को कहते हैं जिनका कुछ न कुछ सम्बन्ध सूर्य से रहता है। आकाश में सूर्य की स्थिति वही है जो किसी तारे की है। सूर्य भी एक तारे के सदृश है, पृथ्वी के बहुत निकट होने से इसकी गर्मी और ज्योति हम लोगों को तीव्र जान पड़ती है। सिद्ध है कि आकाश के कुछ पिंड ऐसे हैं जो सूर्य की परिक्रमा किया करते हैं। इन्ही पिंडों को आजकल ग्रह कहते हैं जैसे चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि इत्यादि। वरुण (युरेनस) इन्द्र (नेप्च्यून) और याम (प्लूटो) ये ग्रह पहले भी थे इनकी गति अति मंद होने के कारन महाऋषियों ने इनसे ज़्यादा काम नहीं लिया। मगर अब यह ग्रह प्रधान हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे पिंड ऐसे हैं जो दिखाई नहीं पड़ते परन्तु मंगल और गुरु की कक्षाओं के बीच सूर्य की परिक्रमा किया करते हैं इनको अवान्तर कहते हैं। 

ग्रह कक्षा - जो ग्रह जिस मार्ग पर चलता हुआ सूर्य की परिक्रमा करता है उसे उस ग्रह की कक्षा कहते हैं।  कुछ धूमकेतु भी सूर्य की परिक्रमा करते हैं परन्तु उनकी कक्षा की लम्बाई बहुत दूर तक फैली रहती है। कई धूमकेतुओं की परिक्रमा का समय और कक्षा के आकार जान लिए गये हैं। धूमकेतु को साधारणत: पुच्छल तारा या झाड़ू तारा कहते हैं क्योंकि इसका आकार झाड़ू की भाँति है। 

उल्का - उन आकाशीय पिण्डों को कहते हैं जो आकाश में कही क्षण के लिए चमक पड़ते हैं और पुनः लोप हो जाते हैं। उनको साधारण बोलचाल में टूटने वाले तारे कहते हैं। ऐसे असंख्या पिंड आकाश में विचरण करते हैं। ये जब कभी पृथ्वी के आकर्षण क्षेत्र में आ जाते हैं तब उनकी ओर गिरने लगते हैं। जब तक ये वायु मंडल में नहीं घुसते तब तक अदृश्य रहते हैं जब वायु की रगड़ से गर्म हो जाते हैं और चमकने लगते हैं। बहुत से तो इतने छोटे होते हैं कि पृथ्वी तक पहुँच नहीं पाते और वायु मंडल में ही विलीन हो जाते हैं। जो बड़े होते हैं वे पृथ्वी तक पहुँचते हैं और तीव्रता के कारण भूतल में घुस जाते हैं ऐसे अनेक पिंड उल्का पत्थर के नाम से कई स्थानों में रखे हुए हैं। 

सुमेरु - उत्तर ध्रुव को सुमेरु कहते हैं। 

कुमेरू - दक्षिण ध्रुव को कुमेरू वा वडवा नल प्रवेश कहते हैं। 

भूमध्य रेखा - जो यामयोत्तर रेखा कुरुक्षेत्र उज्जयिनी लंका आदि स्थानों को वेधति हुई सुमेरु से कुमेरू तक जाती है और जो निरक्षवृक्त पर सम्पात रूप से प्रक्षेप करती है उसे भूमध्य रेखा कहते हैं। 

ग्रहण - पूर्णिमा के दिन पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के बीच रहती है ऐसी स्थिति में जब चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में आ जाता है तब चंद्रग्रहण होता है। जब पूर्ण चन्द्रमा छाया में हो तब सर्वग्रास चंद्रग्रहण, नहीं तो खण्ड चंद्रग्रहण लगता है। अमावस्या के दिन जब चन्द्रमा सूर्य के सामने आ जाता है इसी को सूर्य ग्रहण कहते हैं। यदि चंद्रमा पृथ्वी के निकट हुआ तो सर्वग्रास सूर्य ग्रहण अगर दूर हुआ तो कंकण सूर्य ग्रहण लगता है। कंकण ग्रहण में सूर्य का मध्य का भाग काल होता है। 

देखा जाये तो वर्ष भर में अधिक से अधिक सात ग्रहण लग सकते हैं। जिनमे पांच सूर्य ग्रहण और दो चन्द्र ग्रहण या चार सूर्य ग्रहण और तीन चन्द्र ग्रहण हो सकते हैं। 

पंचांग - तिथि, नक्षत्र, योग, करण और वार इन पाँचों का समाहार हो उसका नाम पंचांग है। यह गणित्त द्वारा निर्मित किया जाता है। सूर्य और चन्द्रमा की दैनिक गतियों का अंतर ही 'तिथि' चन्द्रमा की प्रतिदिन गति ही नक्षत्र, सूर्य और चंद्रमा की गतियों का योग ही 'योग ' और तिथि के अर्धभाग को 'करण ' कहते हैं। एक सूर्योदय से दूसरी बार के सूर्योदय तक के काल का नाम ही वार है। 

वार - यह सभी जानते हैं की वार सात होते हैं जैसे रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि। 

काल-गणना -  भारतीय काल गणना पद्धति संसार की अन्य गणनाओं की अपेक्षा पूर्ण निर्दोष और वैज्ञानकी है।  भारतीय शास्त्रो में काल ज्ञान का सूक्ष्मति विवेचन है। किसी भी धार्मिक कार्य करने से पूर्व संकल्प करने का विधान है। संकल्प में कल्प, मन्वन्तर युगादि से लेकर सम्वत, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, ग्रह और नक्षत्रादि सब का उच्चारण आवश्यक माना जाता है। 

सृष्टि की उत्पत्ति सबसे पहले भारत में हुई क्योंकि इतिहास का यहाँ उपलब्ध होना ही इसका स्पष्ट प्रमाण है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद भी भारत की ही देन है। यह काल गणना विश्व की अन्य गणनाओं से सूक्ष्म और महान है। प्रथम काल गणना का आरम्भ अहोरात्र में हुआ है। अहोरात्र को २४ भागों में विभाजित करने पर प्रत्येक भाग को होरा कहते हैं।

स्मरण रहे कि 'होरा' शब्द अहोरात्र का ही संक्षिप्त रूप है। अहोरात्र शब्द में से 'अ' और 'त्र' शब्द को अलग कर देने से 'होरा' शब्द बनता है। इसी पाश्चात्य प्रणाली को घंटा कहते हैं। होरा का ६०वां भाग विहोरा (मिनट) ३६००वां भाग प्रति विहोरा कहलाता है। 

मुहूर्त्त - मुहूर्त्त तीन प्रकार के होते हैं। १) वैदिक २) पौराणिक ३) नक्षत्र। दो घटी (४८) मिनट के समय का मुहूर्त्त और मुहूर्त्त के ८ पल का एक सूक्ष्म मुहूर्त्त होता है। मुहूर्त्त प्रातः वार प्रवृत्ति के समय से (दिन के ६ बजे से) और रात्रि के मुहूर्त्त का आरम्भ सायंकाल (६ बजे से होता है) । 

दिन और रात्रिमान - सूर्योदय के घंटा और मिनटों को पाँच से गुणा करने पर रात्रिमान के घटी और पल होते हैं। सूर्यास्त के घंटा और मिनटों को पाँच से गुणा करने पर दिनमान के घटी और पल होते हैं। 

ऋतु - भारतीय काल गणना में ऋतु काल भी प्राचीन है। सबसे प्रथम वेदों में एक सम्वत्सर में केवल पांच ऋतु ही मानी जाती थी।यानि वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमंत तथा शिशिर को एक ही मान कर पांच ऋतुएँ मानी जाती थीं मगर हेमंत और शिशिर ऋतु को अलग-अलग गिन कर छ: ऋतुएँ मानी गई हैं। 

राशि - मध्य भाग के अश्विन्यादि २७ नक्षत्रों के १०८ पादों में से ९ पाद के अनुसार १२ राशियां होती हैं यानि २ नक्षत्र के भीतर जितने तारों का समूह मिलकर जो आकार दिखाई देता है उस आकार के साथ ही उस राशि का नामकरण कर दिया गया है। यह व्यवस्था २२०० वर्ष के लगभग से आरंभ हुई थी। २२०० वर्ष पहले केवल नक्षत्रों के द्वारा हर कार्य किया जाता था। इसी कारण से महाभारत, रामायण, मनुस्मृति और गर्ग आदि ग्रंथों में राशियों का नाम नहीं है।