पारिभाषिक सांकेतिक शब्दों तथा संज्ञाओं के ज्ञान के बिना ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान अधूरा है जैसे तारागण जो रात्रि के समय आकाश में चमकते हैं उनकी तीन प्रकार की संज्ञा है - ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्र। जैसे उत्तर दिशा में सात तारों का पुञ्ज है जो प्रत्येक रात्रि को यदि आकाश स्वच्छ रहे तो देखा जा सकता है। इसके नाम की कल्पना भिन्न-भिन्न प्रकार से की गई है। हमारे यहाँ उसका नाम सप्तऋषि है। जैसे प्राचीन काल में सात ऋषि एक साथ रहते थे उसी प्रकार यह सात तारे भी एक साथ रहते हैं। इसलिए इस पुञ्ज का नाम सप्तऋषि रखा गया है। इसी प्रकार एक तारा पुञ्ज ठीक बिच्छु की तरह देख पडता है। जिसे वृश्चिक राशि कहते हैं।
नक्षत्र - उन आकाशीय बिम्बों का नाम है जो ग्रहों में प्रकाश और उष्णता पहुँचाते है और अपनी आकर्षण शक्ति से उन्हें अपनी कक्षा में रखते हैं और स्थिर हैं। ये आकाश में एक ही स्थान पर कई कई तारे एकत्रित देखे जा सकते हैं। पहचान के लिए इन्हे पशु ढोलक पीड़ा इत्यादि नाम दिए गए हैं। प्रत्येक नक्षत्र बिम्ब सूर्य बिम्ब की अपेक्षा बड़ा है। दूरी होने के कारण छोटे दरब दिखाई देते हैं।
ग्रह - आकाश में चमकते गोल बिम्ब जो किसी नक्षत्र के चारों और घूमते हैं उन्हें ग्रह कहते हैं जैसे बुध:, भौम:, गुरु: इत्यादि।
उपग्रह - जो चमकते हुये गोल बिम्ब ग्रहों की परिक्रमा करने में ही लगे रहते हैं वो उपग्रह कहलाते हैं।
सौरमंडल - सौरमंडल उन सभी ग्रहों, उपग्रहों, धूमकेतुओं और उल्का इत्यादि के समूह को कहते हैं जिनका कुछ न कुछ सम्बन्ध सूर्य से रहता है। आकाश में सूर्य की स्थिति वही है जो किसी तारे की है। सूर्य भी एक तारे के सदृश है, पृथ्वी के बहुत निकट होने से इसकी गर्मी और ज्योति हम लोगों को तीव्र जान पड़ती है। सिद्ध है कि आकाश के कुछ पिंड ऐसे हैं जो सूर्य की परिक्रमा किया करते हैं। इन्ही पिंडों को आजकल ग्रह कहते हैं जैसे चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि इत्यादि। वरुण (युरेनस) इन्द्र (नेप्च्यून) और याम (प्लूटो) ये ग्रह पहले भी थे इनकी गति अति मंद होने के कारन महाऋषियों ने इनसे ज़्यादा काम नहीं लिया। मगर अब यह ग्रह प्रधान हैं। इसके अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे पिंड ऐसे हैं जो दिखाई नहीं पड़ते परन्तु मंगल और गुरु की कक्षाओं के बीच सूर्य की परिक्रमा किया करते हैं इनको अवान्तर कहते हैं।
ग्रह कक्षा - जो ग्रह जिस मार्ग पर चलता हुआ सूर्य की परिक्रमा करता है उसे उस ग्रह की कक्षा कहते हैं। कुछ धूमकेतु भी सूर्य की परिक्रमा करते हैं परन्तु उनकी कक्षा की लम्बाई बहुत दूर तक फैली रहती है। कई धूमकेतुओं की परिक्रमा का समय और कक्षा के आकार जान लिए गये हैं। धूमकेतु को साधारणत: पुच्छल तारा या झाड़ू तारा कहते हैं क्योंकि इसका आकार झाड़ू की भाँति है।
उल्का - उन आकाशीय पिण्डों को कहते हैं जो आकाश में कही क्षण के लिए चमक पड़ते हैं और पुनः लोप हो जाते हैं। उनको साधारण बोलचाल में टूटने वाले तारे कहते हैं। ऐसे असंख्या पिंड आकाश में विचरण करते हैं। ये जब कभी पृथ्वी के आकर्षण क्षेत्र में आ जाते हैं तब उनकी ओर गिरने लगते हैं। जब तक ये वायु मंडल में नहीं घुसते तब तक अदृश्य रहते हैं जब वायु की रगड़ से गर्म हो जाते हैं और चमकने लगते हैं। बहुत से तो इतने छोटे होते हैं कि पृथ्वी तक पहुँच नहीं पाते और वायु मंडल में ही विलीन हो जाते हैं। जो बड़े होते हैं वे पृथ्वी तक पहुँचते हैं और तीव्रता के कारण भूतल में घुस जाते हैं ऐसे अनेक पिंड उल्का पत्थर के नाम से कई स्थानों में रखे हुए हैं।
सुमेरु - उत्तर ध्रुव को सुमेरु कहते हैं।
कुमेरू - दक्षिण ध्रुव को कुमेरू वा वडवा नल प्रवेश कहते हैं।
भूमध्य रेखा - जो यामयोत्तर रेखा कुरुक्षेत्र उज्जयिनी लंका आदि स्थानों को वेधति हुई सुमेरु से कुमेरू तक जाती है और जो निरक्षवृक्त पर सम्पात रूप से प्रक्षेप करती है उसे भूमध्य रेखा कहते हैं।
ग्रहण - पूर्णिमा के दिन पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के बीच रहती है ऐसी स्थिति में जब चन्द्रमा पृथ्वी की छाया में आ जाता है तब चंद्रग्रहण होता है। जब पूर्ण चन्द्रमा छाया में हो तब सर्वग्रास चंद्रग्रहण, नहीं तो खण्ड चंद्रग्रहण लगता है। अमावस्या के दिन जब चन्द्रमा सूर्य के सामने आ जाता है इसी को सूर्य ग्रहण कहते हैं। यदि चंद्रमा पृथ्वी के निकट हुआ तो सर्वग्रास सूर्य ग्रहण अगर दूर हुआ तो कंकण सूर्य ग्रहण लगता है। कंकण ग्रहण में सूर्य का मध्य का भाग काल होता है।
देखा जाये तो वर्ष भर में अधिक से अधिक सात ग्रहण लग सकते हैं। जिनमे पांच सूर्य ग्रहण और दो चन्द्र ग्रहण या चार सूर्य ग्रहण और तीन चन्द्र ग्रहण हो सकते हैं।
पंचांग - तिथि, नक्षत्र, योग, करण और वार इन पाँचों का समाहार हो उसका नाम पंचांग है। यह गणित्त द्वारा निर्मित किया जाता है। सूर्य और चन्द्रमा की दैनिक गतियों का अंतर ही 'तिथि' चन्द्रमा की प्रतिदिन गति ही नक्षत्र, सूर्य और चंद्रमा की गतियों का योग ही 'योग ' और तिथि के अर्धभाग को 'करण ' कहते हैं। एक सूर्योदय से दूसरी बार के सूर्योदय तक के काल का नाम ही वार है।
वार - यह सभी जानते हैं की वार सात होते हैं जैसे रवि, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि।
काल-गणना - भारतीय काल गणना पद्धति संसार की अन्य गणनाओं की अपेक्षा पूर्ण निर्दोष और वैज्ञानकी है। भारतीय शास्त्रो में काल ज्ञान का सूक्ष्मति विवेचन है। किसी भी धार्मिक कार्य करने से पूर्व संकल्प करने का विधान है। संकल्प में कल्प, मन्वन्तर युगादि से लेकर सम्वत, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, ग्रह और नक्षत्रादि सब का उच्चारण आवश्यक माना जाता है।
सृष्टि की उत्पत्ति सबसे पहले भारत में हुई क्योंकि इतिहास का यहाँ उपलब्ध होना ही इसका स्पष्ट प्रमाण है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद भी भारत की ही देन है। यह काल गणना विश्व की अन्य गणनाओं से सूक्ष्म और महान है। प्रथम काल गणना का आरम्भ अहोरात्र में हुआ है। अहोरात्र को २४ भागों में विभाजित करने पर प्रत्येक भाग को होरा कहते हैं।
स्मरण रहे कि 'होरा' शब्द अहोरात्र का ही संक्षिप्त रूप है। अहोरात्र शब्द में से 'अ' और 'त्र' शब्द को अलग कर देने से 'होरा' शब्द बनता है। इसी पाश्चात्य प्रणाली को घंटा कहते हैं। होरा का ६०वां भाग विहोरा (मिनट) ३६००वां भाग प्रति विहोरा कहलाता है।
मुहूर्त्त - मुहूर्त्त तीन प्रकार के होते हैं। १) वैदिक २) पौराणिक ३) नक्षत्र। दो घटी (४८) मिनट के समय का मुहूर्त्त और मुहूर्त्त के ८ पल का एक सूक्ष्म मुहूर्त्त होता है। मुहूर्त्त प्रातः वार प्रवृत्ति के समय से (दिन के ६ बजे से) और रात्रि के मुहूर्त्त का आरम्भ सायंकाल (६ बजे से होता है) ।
दिन और रात्रिमान - सूर्योदय के घंटा और मिनटों को पाँच से गुणा करने पर रात्रिमान के घटी और पल होते हैं। सूर्यास्त के घंटा और मिनटों को पाँच से गुणा करने पर दिनमान के घटी और पल होते हैं।
ऋतु - भारतीय काल गणना में ऋतु काल भी प्राचीन है। सबसे प्रथम वेदों में एक सम्वत्सर में केवल पांच ऋतु ही मानी जाती थी।यानि वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमंत तथा शिशिर को एक ही मान कर पांच ऋतुएँ मानी जाती थीं मगर हेमंत और शिशिर ऋतु को अलग-अलग गिन कर छ: ऋतुएँ मानी गई हैं।
राशि - मध्य भाग के अश्विन्यादि २७ नक्षत्रों के १०८ पादों में से ९ पाद के अनुसार १२ राशियां होती हैं यानि २ नक्षत्र के भीतर जितने तारों का समूह मिलकर जो आकार दिखाई देता है उस आकार के साथ ही उस राशि का नामकरण कर दिया गया है। यह व्यवस्था २२०० वर्ष के लगभग से आरंभ हुई थी। २२०० वर्ष पहले केवल नक्षत्रों के द्वारा हर कार्य किया जाता था। इसी कारण से महाभारत, रामायण, मनुस्मृति और गर्ग आदि ग्रंथों में राशियों का नाम नहीं है।