जन्म कुंडली में किसी ग्रह का नीच राशि में स्थित होना ख़राब योग माना गया है। किन्तु कभी-कभी ग्रह नीच राशि में स्थित होकर भी बहुत उत्तम प्रभाव दिखाते हैं यानि उनके नीच होने का जो दोष है वह भंग हो जाता है और वह फायदेमंद साबित होता है।
किसी ग्रह की नीचता तब बड़ी आसानी से भंग हो जाती है जब कुंडली में उस नीच राशि का स्वामी लग्न या चन्द्रमा से केन्द्र में अवस्थित हो। दूसरी स्थिति में नीचत्व तब भंग होता है जब नीच राशि का स्वामी और उसी के उच्च राशि स्वामी परस्पर एक-दूसरे से केन्द्र में हो (इसमें एक नियम यह भी कहा गया है कि कोई ग्रह नीच का है उस राशि में जो ग्रह उच्च का होता है उसकी युति या दृष्टि हो तो भी नीच भंग हो जाएगा)। यह भी माना गया है कि नीच ग्रह अगर लग्न और चंद्र से केन्द्र में अवस्थित हो तो भी ग्रहों का नीचत्व भंग हो जाता है। अष्टमेश ग्रह को नीचत्व का दोष स्वयं भंग हो जाता है और नीच ग्रह को उसके उच्च राशि स्वामी अगर पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो।
नीचस्थितो जन्मनि यो ग्रह: स्यात्तद्राशिनाथोSपि तदुच्चनाथः।
स चन्द्रलग्नाद्यदि केन्द्रवर्ती राजा भवेद्धार्मिकचक्रवर्ती।।
यदि किसी के जन्म के समय कोई ग्रह नीच राशि मे पड़ा हो और
क) इस नीच राशि का स्वामी चंद्रमा से केन्द्र में हो और
ख) जो ग्रह नीच है और उसका उच्चनाथ भी चन्द्रमा से केन्द्र में हो
तो नीच भंग हो जाता है बल्कि उत्तम राज योग बनाता है। यह समस्त एक योग है। उच्चनाथ शब्द का क्या अर्थ है? इसके अर्थ में मतभेद है; मान लीजिए शनि मेष राशि का नीच का हैा इसका उच्चनाथ कौन हुआ? एक मत तो यह है कि शनि तुला राशि का उच्च का होता है और तुला शुक्र होता है इस कारण उच्चनाथ शुक्र हुआ। दूसरा मत यह है कि शनि मेष राशि में है और मेष राशि में सूर्य उच्च का होता है इस कारण उच्चनाथ सूर्य हुआ। हमारे विचार से पहला अर्थ उपयुक्त है। सूर्य का उच्चनाथ मंगल, चन्द्रमा का उच्चनाथ शुक्र, बुध का उच्चनाथ बुध, बृहस्पति का उच्चनाथ चन्द्रमा, शुक्र का उच्चनाथ बृहस्पति और शनि का उच्चनाथ शुक्र है।
नीचभंग होने के लिए (क) और (ख) दोनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।
एक टीकाकार इस श्लोक का अर्थ यह कहते हैं कि (१) जो ग्रह नीच राशि में हो उसका स्वामी लग्न से केन्द्र में हो या (२) जो नीच राशि में ग्रह है उसका स्वामी चंद्रमा से केंद्र में हो (३) या जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो या (४) जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ चन्द्रमा से केन्द्र में हो - इन चारों परिस्थितियों में नीच भंग हो जाएगा। परन्तु मूल संस्कृत श्लोक में 'अपि' शब्द आया है जिस का अर्थ है कि जो ग्रह नीच राशि में है उसका स्वामी और उसका उच्चारण भी यानि दोनों, केवल एक नहीं।
इसी प्रकार मूल श्लोक में लिखा है 'चन्द्रलग्नात्' जिसका श्री सुब्रह्मण्य शास्त्री ने अर्थ किया है 'चन्द्रमा से या लग्न से' परन्तु यदि दोनों से अभिप्राय होता तो मूल संस्कृत में 'चन्द्रलग्नात्' यह पञ्चमी का एक वचन नहीं आता। चन्द्र लग्नात् का अर्थ है चन्द्र लग्न से यानि चन्द्रमा जिस राशि में है उससे।
यदि इस श्लोक में दी गई चार शर्तों को अलग-अलग चार योग मान लिया जाये तब तो प्रायः सभी नीच ग्रहों का भंग हो जावेगा क्योंकि जो ग्रह नीच राशि का है उसका स्वामी यदि लग्न से केन्द्र में ही (चार घर उसके अंतर्गत आ गए) या चन्द्रमा से केन्द्र में हो (चार घर इस परिभाषा में आ गए) या उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो (चार घर इस में आ गये) या चन्द्र से केन्द्र में हों (चार घर इस में आ गए) इस प्रकार १६ निर्दिष्ट स्थानों में से कहीं न कही आ जायेगा हीा
एक टीकाकार यह भी अर्थ करते हैं कि यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी या उस नीच ग्रह का उच्चनाथ उस नीच ग्रह से केन्द्र में हो तो नीच भंग राजयोग होता है।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो तो (क) उस नीच राशि का स्वामी और जो ग्रह नीच का है उसका उच्चारण यदि दोनों परस्पर केन्द्र में हों तो नीचभंग राजयोग होता है। यहाँ भी उच्चारण के दो अर्थ हो सकते हैं परन्तु हम यही अर्थ लेंगे कि नीच ग्रह जिस राशि में उच्च होता है उस राशि का स्वामी उच्चप या उच्चनाथ कहलाएगा।
इस श्लोक का एक अन्य अर्थ भी हो सकता है कि यदि कोई ग्रह नीच हो तो उस नीच राशि के स्वामी का जो उच्चनाथ है वह उच्चनाथ यदि केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है। उदाहरण के लिए किसी की कुंडली में सूर्य नीच राशि का है, तुलाराशि नाथ शुक्र है। शुक्र उच्च होता है मीन में। मीन का स्वामी हुआ बृहस्पति, यह बृहस्पति यदि केन्द्र में हो तो नीच भंग राज योग हुआ।
एक अन्य नीच भंग राजयोग बताते हैं। जिस राशि में नीच ग्रह हो उस राशि का स्वामी यदि नीच ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो नीच भंग राज योग होता है। यदि यह नीच ग्रह ६-८-१२ दुःस्थान में हो तो इतना अच्छा राजयोग नहीं होगा किन्तु सुस्थान में हो तो बहुत उत्तम नीचभंग राजयोग बनता है।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी और नीच ग्रह जिस राशि में उच्च होता है उसका स्वामी वह - एक या दोनों लग्न से केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है।
क) इस नीच राशि का स्वामी चंद्रमा से केन्द्र में हो और
ख) जो ग्रह नीच है और उसका उच्चनाथ भी चन्द्रमा से केन्द्र में हो
तो नीच भंग हो जाता है बल्कि उत्तम राज योग बनाता है। यह समस्त एक योग है। उच्चनाथ शब्द का क्या अर्थ है? इसके अर्थ में मतभेद है; मान लीजिए शनि मेष राशि का नीच का हैा इसका उच्चनाथ कौन हुआ? एक मत तो यह है कि शनि तुला राशि का उच्च का होता है और तुला शुक्र होता है इस कारण उच्चनाथ शुक्र हुआ। दूसरा मत यह है कि शनि मेष राशि में है और मेष राशि में सूर्य उच्च का होता है इस कारण उच्चनाथ सूर्य हुआ। हमारे विचार से पहला अर्थ उपयुक्त है। सूर्य का उच्चनाथ मंगल, चन्द्रमा का उच्चनाथ शुक्र, बुध का उच्चनाथ बुध, बृहस्पति का उच्चनाथ चन्द्रमा, शुक्र का उच्चनाथ बृहस्पति और शनि का उच्चनाथ शुक्र है।
नीचभंग होने के लिए (क) और (ख) दोनों शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।
एक टीकाकार इस श्लोक का अर्थ यह कहते हैं कि (१) जो ग्रह नीच राशि में हो उसका स्वामी लग्न से केन्द्र में हो या (२) जो नीच राशि में ग्रह है उसका स्वामी चंद्रमा से केंद्र में हो (३) या जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो या (४) जो ग्रह नीच राशि में है उसका उच्चनाथ चन्द्रमा से केन्द्र में हो - इन चारों परिस्थितियों में नीच भंग हो जाएगा। परन्तु मूल संस्कृत श्लोक में 'अपि' शब्द आया है जिस का अर्थ है कि जो ग्रह नीच राशि में है उसका स्वामी और उसका उच्चारण भी यानि दोनों, केवल एक नहीं।
इसी प्रकार मूल श्लोक में लिखा है 'चन्द्रलग्नात्' जिसका श्री सुब्रह्मण्य शास्त्री ने अर्थ किया है 'चन्द्रमा से या लग्न से' परन्तु यदि दोनों से अभिप्राय होता तो मूल संस्कृत में 'चन्द्रलग्नात्' यह पञ्चमी का एक वचन नहीं आता। चन्द्र लग्नात् का अर्थ है चन्द्र लग्न से यानि चन्द्रमा जिस राशि में है उससे।
यदि इस श्लोक में दी गई चार शर्तों को अलग-अलग चार योग मान लिया जाये तब तो प्रायः सभी नीच ग्रहों का भंग हो जावेगा क्योंकि जो ग्रह नीच राशि का है उसका स्वामी यदि लग्न से केन्द्र में ही (चार घर उसके अंतर्गत आ गए) या चन्द्रमा से केन्द्र में हो (चार घर इस परिभाषा में आ गए) या उच्चनाथ लग्न से केन्द्र में हो (चार घर इस में आ गये) या चन्द्र से केन्द्र में हों (चार घर इस में आ गए) इस प्रकार १६ निर्दिष्ट स्थानों में से कहीं न कही आ जायेगा हीा
एक टीकाकार यह भी अर्थ करते हैं कि यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी या उस नीच ग्रह का उच्चनाथ उस नीच ग्रह से केन्द्र में हो तो नीच भंग राजयोग होता है।
यद्येको नीचगतस्तद्राश्यधिपस्तदुच्चपः केन्द्रे।
यस्य स तु चक्रवर्ती समस्तभूपालवन्द्यांघ्रि ।।
इस श्लोक का एक अन्य अर्थ भी हो सकता है कि यदि कोई ग्रह नीच हो तो उस नीच राशि के स्वामी का जो उच्चनाथ है वह उच्चनाथ यदि केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है। उदाहरण के लिए किसी की कुंडली में सूर्य नीच राशि का है, तुलाराशि नाथ शुक्र है। शुक्र उच्च होता है मीन में। मीन का स्वामी हुआ बृहस्पति, यह बृहस्पति यदि केन्द्र में हो तो नीच भंग राज योग हुआ।
यस्मिन्राशौ वर्तते खेचरस्तद्राशीशेन प्रेक्षितश्चेत्स खेटः।
क्षोणीपालं कीर्तिमन्तं विदध्यात् सुस्थानश्चेति्कपुनः पार्थिवेन्द्रः।।
एक अन्य नीच भंग राजयोग बताते हैं। जिस राशि में नीच ग्रह हो उस राशि का स्वामी यदि नीच ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो नीच भंग राज योग होता है। यदि यह नीच ग्रह ६-८-१२ दुःस्थान में हो तो इतना अच्छा राजयोग नहीं होगा किन्तु सुस्थान में हो तो बहुत उत्तम नीचभंग राजयोग बनता है।
नीचे तिष्ठति यस्तदाश्रितगृहाधीशो विलग्नाद्यदा
चन्द्राद्वा यदि नीचगस्य विहगस्योच्चर्क्षनाथोऽथवा।
केन्द्रे तिष्ठति चेत्प्रपूर्णविभवः स्याच्चक्रवर्ती नृपो।
धर्मिष्ठोऽन्यमहीशवन्दितपदस्तेजोयशोभाग्यवान्।।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो तो (क) इस नीच राशि का स्वामी अथवा (ख) नीच ग्रह का उच्चनाथ इन दोनों में से एक भी जन्म लग्न या चन्द्र लग्न से केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है।
नीचे यस्तस्य नीचोच्चभेशौ द्वावेक एव वा।
केन्द्रस्थश्चेच्चक्रवर्ती भूपः स्याद्भूपवन्दितः।।
यदि कोई ग्रह नीच राशि में हो और उस नीच राशि का स्वामी और नीच ग्रह जिस राशि में उच्च होता है उसका स्वामी वह - एक या दोनों लग्न से केन्द्र में हो तो नीचभंग राजयोग होता है।
सौजन्य :- फलदीपिका भावार्थबोधिनी