यह
मांगलिक दोष कैसे बनता है? क्या मंगल ग्रह इतना भयावह है कि उसकी उपस्थिति से जन्म पत्रिका श्रापित हो जाती है? जब
मंगल ग्रह जन्म कुण्डली के लग्न, चौथे, सातवें, आठवें व बारहवें
भाव में स्थित हो तो जातक को मांगलिक कहा जाता है, चाहे वह पुरुष
हो या स्त्री। इसी प्रकार कुण्डली में जहाँ चन्द्र स्थित होता है अर्थात चन्द्र कुण्डली से लग्न, चौथे, सातवें, आठवें
व बारहवें भाव में जब मंगल स्थित
हो तो भी जातक को मांगलिक कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि लग्न कुण्डली के बारह में से पांच भावों में
यदि मंगल स्थित होंगे तो जातक मांगलिक
होगा। साथ ही इस लग्न कुण्डली में जहां चन्द्र स्थित है वहां से भी चन्द्र के साथ या उससे चौथे, या उसके सातवें, आठवें या बारहवें में यदि मंगल स्थित हो तो भी जातक मांगलिक
कहलाएगा। अब इसे एक उदाहरण से समझते हैं।
कल्पना करते हैं एक कुण्डली का लग्न मेष है और चन्द्रमा
तीसरे भाव अर्थात मिथुन
में स्थित हैं। इस कुण्डली के 12 भावों
में से मात्र 2 भाव (5वां व 11वां) बचे जहां मंगल स्थित हो तो जातक मांगलिक नहीं होगा, बाकी के बचे 10 भावों में से जहां कहीं भी मंगल स्थित
होंगे तो जातक मांगलिक कहलाएगा। अब
बताइये कि 12 भावों में से
किसी एक भाव में तो मंगल उपस्थित होंगे ही और 12
भावों में से लगभग 10 भावों
में उनकी उपस्थिति से जातक ‘मांगलिक’ कहलाएगा। इस ‘मांगलिक’ से बचने की कितनी कम संभावना है।
ज्योतिष के किसी भी शास्त्रीय ग्रंथ में मांगलिक या मांगलिक-दोष का वर्णन इस रूप
में प्राप्त नहीं होता। विवाह हेतु
गुण मिलान इत्यादि के साथ इसका
वर्णन कुछ एक ग्रंथों में बहुत सूक्ष्म वर्णित है जिस पर कालान्तर में कुछ शोध ग्रंथों में थोड़ा बहुत विस्तार दिखाई देता है किन्तु मांगलिक का जैसा
रूप इस प्रकरण में महत्व प्राप्त कर
गया ऐसा तो कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है। यह तो भ्रम का विस्तार ज्ञात होता है न कि ज्योतिष विज्ञान का।
विवाह प्रकरण में ही मंगल ग्रह व मांगलिक शब्द का उपयोग या महत्व या चर्चा सुनाई देती
है, ऐसा क्यों? जहां भी मांगलिक शब्द सुनने को मिलेगा उसका संदर्भ मात्र
एवं मात्र विवाह ही होगा। इसका ज्योतिषीय कारण है किन्तु उस कारण का या
मंगल के विवाह-प्रकरण से संबंध का न
तो कोई भयावह अर्थ है और न ही कोई अशुभ परिणाम। मंगल या मांगलिक का विवाह से संबंध किस प्रकार स्थापित होता है
इसे समझने का प्रयास करते हैं।
लग्न यानि पहला भाव तनु भाव भी कहलाता है अर्थात् शरीर अथवा स्वयं। इस से सप्तम यानि सातवां भाव भार्या स्थान कहलाता है अर्थात् जीवन संगिनी या फिर जीवन संगी का स्थान। यह दोनों ही भाव विवाह से सम्बंधित हो गए अर्थात् लग्न या तनु भाव एवं सप्तम या भार्या भाव। पहला स्वयं का और दूसरा जीवन साथी का।
इस के पश्चात् मंगल के विषय में भी कुछ प्रमुख तथ्य जान लेते हैं। पहला तो यह कि ज्योतिष विज्ञानं में जो दो श्रेणियां वर्णित हैं - पुण्य ग्रह और पाप ग्रह, उन में मंगल 'पाप ग्रह' की श्रेणी में आता है। दूसरा तथ्य मंगल के विषय में यह है कि अन्य ग्रहों की भांति सातवीं दृष्टि के अतिरिक्त मंगल की चतुर्थ एवं अष्टम दृष्टि भी है।
अब इन तथ्यों को मांगलिक बनाने वाले कारणों के साथ रखते हैं अर्थात् यदि मंगल लग्न, चौथे, सातवें, आठवें व बारहवें स्थान पर हो तो मांगलिक कहलाता है। इस कथन को ऊपर दिए तथ्यों पर कसेंगे तो इन सब का आपस में सम्बन्ध दिखाई देगा।
- मंगल
एक पाप ग्रह है।
_ लग्न
में बैठकर मंगल अपने से सातवें भाव अर्थात् भार्या स्थान को देखता है।
- चौथे
स्थान पर बैठकर मंगल अपनी विशेष चौथी दृष्टि से सप्तम अर्थात् भार्या स्थान को देखता है।
- सप्तम
स्थान में स्थित मंगल भार्या भाव पर ही बैठा है।
- अष्टम
स्थान में स्थित मंगल अपने से सप्तम अर्थात दूसरे भाव को देखता है जो सप्तम भाव का आयु स्थान
है। (सप्तम से अष्टम)।
- द्वादश
भाव में स्थित मंगल अपनी विशेष अष्टम दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है।
उपरोक्त सभी कारणों से स्पष्ट है कि मंगल जो कि एक
पाप ग्रह है वह लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव से सप्तम स्थान (जो कि जीवन साथी का भाव है) को किसी न किसी रूप में स्पष्ट
व सीधे तौर पर प्रभावित करता है। इसीलिए
इन भावों में मंगल के बैठने पर मंगल का संबंध विवाह से जुड़ता है एवं जातक मांगलिक कहलाता है।