Wednesday, March 27, 2019

ज्योतिष शास्त्र के कुछ अन्य सांकेतिक शब्द

ज्योतिष शास्त्र के कुछ सांकेतिक शब्दों का एक लेख सितम्बर २०१५, में भी प्रकाशित किया जा चुका है। यह लेख उसी का विस्तार है जिसमें कुछ अन्य पारिभाषिक शब्दों की चर्चा की गई है। इससे भारतीय ज्योतिष को ना केवल समझने और जानने में सहजता का अनुभव होगा अपितु  कुंडली बनाने और उसका फलादेश करने में भी सहायता होगी :-

इष्टकाल - सूर्योदय से जन्मकाल तक के घट्यादि काल को इष्टकाल कहा जाता है।

सूर्योदय - यह समय हर स्थान के लिए भिन्न होता है अतः इसे हम पंचांग से जान सकते हैं जहाँ यह स्थानीय, मानक अथवा दोनों का ही उपलब्ध रहता है। 

जन्म समय - यह जातक के जन्म का समय होता है। इसे घण्टा-मिनट में व्यवहार किया जाता है।

घटी - घटी, दण्ड, घड़ी, नाड़ी आदि तुल्यार्थ बोधक शब्द हैं। एक अहोरात्र में ६० घड़ी माना गया है। अतः १ घंटे में २.३० घटी/पल होता है। ६० विपल का एक पल, ६० पल की एक घड़ी, ६० घड़ी का एक अहोरात्र होता है।

भयात - यह नक्षत्र का वह समय है जो नक्षत्र के प्रारम्भ काल से जातक के जन्म काल तक व्यतीत होता है।

भभोग - यह नक्षत्र के सम्पूर्ण स्पष्ट भोग काल का नाम है।

ग्रहस्पष्ट - जन्म या प्रश्न के समय ग्रहों की आकाशीय वास्तविक स्थिति, जो राशि, अंश, कला, विकला अदि के रूप में साधन करनी होती है।

मध्यम मान - स्पष्ट मानों का माध्य अर्थात् औसत मान को कहा जाता है। जैसे तिथि का औसत भोगमान ६० घड़ी, वैसे ही नक्षत्र, योग आदि का भी तुल्य ही औसत भोग मान होता है।

सावन दिन या वार - सूर्योदय से अन्यतम सूर्योदय तक के काल को सावन दिन या वार कहा जाता है, जिसे ही लोग रवि, सोम अदि सात वारों के नाम से जानते हैं।

भाव - जन्म कुंडली में १२ भाव होते हैं जिन्हें क्रम से तनु, धन, सहज, सुख, सुत, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय और व्यय कहा जाता है।

लग्न - इसे जन्म लग्न भी कहते हैं। यह कुंडली का पहला भाव होता है। जन्म के समय पूर्व क्षितिज में जो राशि प्रथम उदित होती है उसे लग्न कहा जाता है।

लग्न-स्पष्ट - लग्न के जितने राशि, अंश, कला, विकला आदि पर जन्म हो, उसे लग्न स्पष्ट कहते हैं।

क्रांतिवृत्त - इसे राशि-मंडल भी कहते हैं। आकाश गोल में अपनी गति से चलने का जो सूर्य का मार्ग है, उसी को क्रांतिवृत्त कहा जाता है।

मानक समय - सम्प्रति यूरोप महादेशीय ग्रीनविच नाम के स्थान से गुजरती भूमध्य रेखा से पूर्व ८२/३० अंश-कला रेखांश के स्थानिक समय को सम्पूर्ण भारत के लिए मानक समय (स्टैण्डर्ड टाईम) माना गया है।

स्थानिक समय - जब जिस स्थान के खमध्य में सूर्य, भ्रमण वश पहुँचता है, वह उस स्थान का दिनार्द्ध होता है। जिसे दिन-मध्य भी कहा जाता है। दिन-मध्य से पूर्व सूर्योदय तथा बाद में सूर्यास्त होता है। दिन मध्य या दिनार्द्ध का दो गुणा दिनमान और दिनमान का पाँचवाँ भाग स्थानिक सूर्यास्त घण्टा-मिनट होता है।सूर्यास्त काल को १२ में से निकाल देने पर सूर्योदय घण्टा-मिनट हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक पंचांग में इन्हे (दिनमान, सूर्योदय व सूर्यास्त को लिखने की परम्परा है।) यह प्रत्येक स्थान का भिन्न होता है। इसलिए ऐसे समय को स्थानिक समय (Local Time) कहा जाता है।

रेखांश - ग्रीनविच नामक स्थान को सम्प्रति भूमध्य माना गया है और भूमध्य रेखा पर जो स्थान जिस अंश-कला पर स्थित होता है, सम्पूर्ण विश्व के उस-उस स्थान का उसे रेखांश कहा जाता है। इस प्रकार ग्रीनविच को भूमध्य के 0 अंश पर स्थित मानकर उससे पूर्व और पश्चिम में स्थित स्थानों का रेखांश सर्वेक्षण द्वारा नियत कर मानचित्र में विधिवत् दर्शाया गया रहता है।

अक्षांश - भूगोल ध्रुवों द्वारा दो भागों में विभक्त माना गया है - एक उत्तरी और दूसरी दक्षिणी। ध्रुव से ९० अंश की दूरी पर निरक्ष देश स्थित माना गया है। मानचित्र में प्रायः तिरछी रेखाओं द्वारा अक्षांश का संज्ञापन करते हुए उत्तर तथा दक्षिण स्थान का प्रदर्शन किया हुआ रहता है। इसका उपयोग दो स्थानों के दक्षिणोत्तर अन्तरांश को जानने के लिए किया जाता है। निरक्ष देश पर से गई हुई रेखावृत्त विषुवत् वृत्त कहलाती है, जिससे भूगोल उत्तर अक्षांश और दक्षिण अक्षांश सम्बन्धी देशों में बँटा हुआ माना जाता है।

चरान्तर साधन - जन्म स्थान और पंचांग स्थान के चरों का अंतर चरान्तर होता है। अतः दोनों स्थानों का चर साधन करना पड़ता है। जन्म स्थान का चर अधिक होने पर चरान्तर घन अन्यथा ऋण जानना चाहिए अथवा घन या ऋण चरान्तर का निर्णय इस प्रकार करना चाहिए - जन्म स्थान के अक्षांश से पंचांग स्थान का अक्षांश कम हो तथा उत्तराक्रान्ति हो, तो घन चरान्तर, इसी तरह जन्मस्थान के अक्षांश से पंचांग स्थान का अक्षांश अधिक और दक्षिणक्रान्ति हो, तो भी घन चरान्तर जानना चाहिए बाकि अन्य स्थितियों में चरान्तर ऋण होगा।

अयनांश  - पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करने के साथ-साथ अपनी धुरी पर भी लट्टू की तरह घूमती रहती है। जिसके फलस्वरूप इसकी धुरी के केन्द्र बिंदु एक जगह स्थिर नहीं रहते हैं, अपितु एक प्रकार का वृत्त बनाते हैं। यह प्रतिवर्ष करीब-करीब ५० विकला से अधिक के हिसाब से पूर्व स्थान से खिसकते हैं और ३६० अंश की पूर्ण परिक्रमा २५,८०० वर्षों में पूरी करते हैं।    

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