Thursday, December 12, 2013

स्वगृही ग्रहों का फल

  1. सूर्य - जातक उत्तम विद्या, यश, कुटुंबियों से सुख, धन, वैभव तथा मान वृद्धि पाता है। 

  2. चंद्रमा - जातक कृषि से धन लाभ, राज सम्मान, बंधुजन तथा मित्रों का सुख पाता है। 

  3. मंगल - जातक भू-संपदा, धन, धान्य, उच्च अधिकार तथा मान व प्रतिष्ठा पाता है। 

  4. बुध - जातक धन, धान्य, वाणिज्य, भूमि, रत्नाभूषण तथा वस्त्रादि का सुख पाता है। उसे पत्नी, पुत्र और मित्रों का सुख तथा उत्तम भोजन कि प्राप्ति होती है।   

  5. गुरु - जातक भूमि, वस्त्र, उत्तम भोजन, वहाँ तथा सत्तालाभ का श्रेष्ठ सुख पाता है। 

  6. शुक्र - जातक को परोपकारी, गौरवशाली, सुख वैभव संपन्न तथा स्त्री, पुत्र मित्रों से सुखी बनाता है। 

  7. शनि - जातक के बल, पौरुष व यश कि वृद्धि होती है। वह राज्याश्रय पाता है। कोई जातक भूमि, भवन तथा वस्त्राभूषण का सुख पाता है। वह अपने गुणों के कारण सम्मान पाता है।  

  8. राहु - जातक स्त्री तथा वाहन का सुख प्राप्त करता है। कोई जातक ग्राम या नगर का अधिपत्य पाता है। 

  9. केतु - जातक को धन व सुख देता है। उसका साहस, बल व आत्म विश्वास बढ़ता है। धर्म व अध्यात्म में उसकी सहज रूचि होती है। 

Tuesday, December 3, 2013

वक्री ग्रह की दशा

वक्रोपगस्य हि दशा भ्रमयति च कुलालचक्रवत्पुरुषम्। 
व्यसनानि रिपुविरोधं करोति पापस्य न शुभस्य। 
(सारावली)

वक्री ग्रह की दशा में नित्य देशाटन, व्यसन तथा शत्रुओं का विरोध होता है। पापग्रहों की दशा में ही पाप फल का भोग होता है किन्तु शुभ ग्रह यदि वक्री हों तो उसका शुभफल नहीं होता है।  

वक्री ग्रह की दशा 
  1. जन्मांग  में जो ग्रह वक्री पड़ा हो वह अपनी दशा अंतर्दशा में अदभुत प्रभावशाली फल दिया करता है।वक्री ग्रह अपने से बारहवें पर भी प्रभावी होने से दो भावों से संबंधित हो जाता है।  अतः नवमस्थ ग्रह वक्री होने पर अष्टम भाव संबंधी फल भी देता है। 
  2. वक्री ग्रह की दशा में स्थान्च्युति, धन व सुख की कमी व विदेश/परदेश गमन होता है। वक्री ग्रह यदि शुभ भावोन्मुख हों (केंद्र, त्रिकोण, लाभ व धन भाव) तो सम्मान, सुख, धन व यश की वृद्धि करता है। ध्यान रहे मार्गी ग्रह त्रिक भाव में स्थित हो तो अपनी दशा अंतर्दशा में अभीष्ट सिद्धि में बाधा, व्यवधान व कठिनाई देता है। प्रत्येक ग्रह की एक निश्चित सामान्य चाल है पर कभी ये चाल अनिश्चित हो जाती है।ऐसा प्रतीत होता है मानो ग्रह की गति धीमी पड़ गई है। वह स्तंभित (स्थिर) सा जान पड़ता है फिर वह ग्रह वक्री हो जाता है। पाप ग्रह (मंगल, शनि) वक्री होने पर अधिक पापी हो जाते हैं तो शुभ ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र) भी वक्री होने पर अपनी शुभता में कमी महसूस करते हैं। सूर्य व चंद्र सदा ही मार्गी रहते हैं वे कभी वक्री नहीं होते राहू केतु सदा वक्री रहते हैं वे कभी भी मार्गी नहीं होते। 
  3. उदहारण के लिये यदि किसी जन्मांग से गुरु व शनि वक्री होकर लग्न में स्थित हों तो, वक्री गुरु की पाँचवीं दृष्टि कभी चौथे तो कभी कभी पंचम भाव का फल देगी।  इसी प्रकार शनि की तीसरी दृष्टि द्वितीय भाव पर पड़ने से वाद-विवाद, परनिंदा में रूचि तो कभी आलस्य, अकर्मण्यता व श्रम विमुखता देगी। 

विभिन्न वक्री ग्रहों का प्रभाव 

वक्री मंगल 
  1. उत्साह, साहस, परिश्रम, पराक्रम व संघर्ष शक्ति का दाता है। वक्री मंगल जातक को असहिष्णु, अति क्रोधी तथा आतंकवादी बना सकता है।
  2. जातक की कार्यक्षमता सृजनात्मक न होकर, विनाशकारी हो जाती है।  ऐसा लगता है मानो विधाता ने भूल से विकास की बजाए ललाट पर विनाश ही लिख दिया हो।
  3. अपनी दशा अंतर्दशा में वक्री मंगल वैर विरोध तथा आपसी मतभेद बढ़ाकर शत्रुता व मुकद्दमे बाजी भी दे सकता है।  
  4. ऐसा वक्री मंगल यदि जनमंग में दुस्थान (त्रिक भाव ६, ८, १२) में हो तो जातक हठी, जिद्दी व अड़ियल प्रकृति का होता है।  भूमि भवन व शौर्य पराक्रम संबंधी उसके कार्य प्रायः आधे अधूरे छूट जाते हैं।
  5. जातक किसी से भी सहयोग करना अपना अपमान समझता है। वह देह बल का अपव्यय कर मानो आत्म पीड़न में सुख पाता है।
  6. मंगल एक उग्र ग्रह है जो जातक को स्वार्थी व पशुवत् बना सकता है। ऐसा जातक आत्मतुष्टि व स्वार्थ सिद्धि के लिये अनुचित व अनिष्ट कार्य करने में तनिक भी संकोच नहीं करता वक्री मंगल की दशा/अंतर्दशा में अग्रिम घटनाएं हो सकती हैं।
वक्री मंगल में सावधानियाँ

वक्री मंगल के अनिष्ट प्रभाव से बचने के लिये निम्नलिखित सावधानियाँ बरतेंA वक्री मंगल की दशा अंतर्दशा में -
  1. अस्त्र-शस्त्र न खरीदें, न ही घर में घातक हथियार रखें।
  2. वाहन व नयी संपत्ति भी न खरीदें तो अच्छा है नये घर में गृह प्रवेश भी, वक्री मंगल की दशा में, अशुभ व अमंगलकारी माना गया है।
  3. यथासंभव ऑपरेशन (सर्जरी) से बचें, क्योंकि ऐसी सर्जरी प्राण घातक हो सकती है।
  4. नया मुकद्दमा शुरू करना भी उचित नहीं, कारण ये धन नाश व मानसिक अशांति देगा।
  5. नया नौकर/कर्मचारी न रखें कोई नया अनुबंध भी न करें।
  6. वक्री मंगल  के गोचर में विवाह से बचें।
ध्यान रहे,  मंगल वायदा व वचन बद्धता का  प्रतीक है। इसका वक्री होना बात से मुकर जाना, छल कपट या धोखे द्वारा हानिप्रद हो सकता है।

वक्री बुध      
  1. साधारणतया  बुध बुद्धि, वाणी, अभिव्यक्ति, शिक्षा व साहित्य के प्रति लगाव का प्रतीक है। प्रायः  बुध अपनी दशा अंतर्दशा में मौलिक चिंतन तथा सृजनात्मक शक्ति बढ़ाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना करता है।
  2. बुध वक्री होने पर अपनी दशा-अंतर्दशा में आंकड़े व तथ्यों पर आधारित लेख व पुस्तक लिखाएगा। जातक अपनी रचना में अंतर्विरोध व परिवर्तन पर अधिक बल देगा कभी तो वह त्रुटिपूर्ण व ग़लत निर्णयों को भी तर्क द्वारा उचित ठहराएगा।
  3. वक्री बुध विचार, भावनाओं व मानसिक प्रवृतियों को प्रभावित कर उनमें क्रांतिकारी मोड़ (बदलाव) देने में सक्षम है। तर्क संगत विश्लेषण से प्रचलित मान्यताओं को ध्वस्त कर जातक मौलिक चिंतन को नयी दिशा दे सकता है।
वक्री  गुरु

साधारणतया गुरु ज्ञान, विवेक, प्रसन्नता व दैवीय ज्ञान का प्रतीक है।
  1. जन्मांग में गुरु का वक्री होना, अदभुत दैवी शक्ति या दैवी बल का प्रतीक है।  जिस कार्य को दूसरे लोग असंभव जान कर अधूरा छोड़ देते हैं वक्री गुरु वाला जातक ऐसे ही कार्यों को पूरा कर यश व प्रतिष्ठा पाता है।
  2. अन्य  शब्दों में दूसरों की असफलता को सफलता में बदल देना उसके लिये सहज संभव होता है। किसी भी योजना के गुण, दोष, शक्ति व दुर्बलताएं पहचानने की उसमे अदभुत शक्ति होती है।
  3. चतुर्थ भावस्थ वक्री गुरु, साथियों का मनोबल बढ़ा कर, रुके या अटके हुए कार्यों को सफलतापूर्वक सिरे चढ़ाने में दक्षता देता है। जातक की दूरदृष्टि व दूरगामी प्रभावों के आंकलन की शक्ति बढ़ जाती है।
  4. वह जोखिम उठाकर भी प्रायः सफलता प्राप्त करता है। उसकी प्रबंध क्षमता विशेषकर संकटकालीन व्यवस्था चमत्कारी हुआ करती है।
वक्री शुक्र
  1. शुक्र, मान-सम्मान, सुख-वैभव, वाहन, मनोरंजन, पत्नी या दाम्पत्य सुख व मैत्री पूर्ण सहयोग का प्रतीक है। साधारणतया, शुक्र यदि पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट न हो तो, जातक हंसमुख, हास्य-विनोद प्रिय, मिलनसार व पार्टी की जान होता है। उसको देखने भर से ही उदासी भाग जाती है व हँसी-खुशी का वातावरण सहज बन जाता है।
  2. किन्तु शुक्र जब वक्री होता है तो जातक समाज में घुल मिल नहीं पाता। वह एकाकी रहना पसंद करता है
  3. जातक की अलगाववादी प्रवृति अपने परिवार व परिवेश में अरुचि तथा अनासक्ति बढ़ाती है कभी गैर पारंपरिक ढंग से भी ऐसा जातक अपना प्यार वात्सल्य दर्शाता है
  4. यदि किसी जन्मांग में शुक्र वक्री होकर द्वादश भाव (भोग स्थान) में हो तो जातक में भोगों से पृथक रहने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। वह सुख वैभव से विमुख हो कर संन्यासी भी बन सकता है
वक्री शनि
  1. शनि को काल पुरुष का दुःख माना जाता है। ये प्रायः दुःख-दारिद्र्य, कष्ट, रोग व मनस्ताप देता है।
  2. वक्री शनि जातक को नैराश्य व अवसाद की स्थिति से उबारता है। जातक निराशा के गहन अन्धकार में भी आशा की किरण खोज लेता है।
  3. वक्री शनि अपनी दशा या अंतर्दशा में आत्मरक्षण व अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, जातक से सभी उचित, अनुचित कार्य करा लेता है कभी तो जातक स्वार्थ सिद्धि के लिये निम्न स्तर तक गिर सकता है।
  4. ऐसा व्यक्ति सभा गोष्ठी में आना जाना या लोगों से अधिक मेल जोल रखना भी पसंद नहीं करता।
  5. अपने अधिकारों के प्रति भी उदासीन रहता है। कोई व्यक्ति अपने कार्यों को गुप्त रख कर सफलता जनित सुख पाता है। 

Saturday, November 23, 2013

योगिनी दशा

योगिनी आठ होती हैं। योगिनी महादशा का एक सम्पूर्ण चक्र ३६ वर्ष में पूरा हो जाता है। इसके बाद इसकी पुनरावृत्ति होती है। केतु को छोड़कर बाकी सभी ग्रह एक-एक योगिनी के स्वामी हैं। योगिनी दशा की कुल अवधि ३६ वर्ष है जबकि विंशोत्तरी में दशा की अवधि १२० वर्ष की है. अन्य शब्दों में यदि मनुष्य की आयु १२० वर्ष मानें तो योगिनी दशा के तीन चक्र पूरे हो जाएंगे और चौथे चक्र की दशाएं जीवन के अंत समय में चल रही होंगी।

प्रत्येक योगिनी दशा के जन्म नक्षत्र तथा स्वामी निश्चित हैं, जो निम्न तालिका से स्पष्ट हो जाएंगे :-


भ्रामरी दशा अश्विनी नक्षत्र में होती है। इसके बाद सभी नक्षत्रों में एक-एक योगिनी दशा होती है। अतः ८-८ जन्म नक्षत्रों के बाद पुनः जन्म नक्षत्रों की आवृत्ति उसी दशा में होती है, जैसे भ्रामरी क्रमांक १, ९, १७ व २५ में प्रथम ३  (मंगला, पिंगला तथा धन्या)  एवं अंतिम २ (सिद्धा व संकटा ) प्रत्येक दशा ३-३ नक्षत्रों में होती है, जबकि बीच की ३ (भ्रामरी, भद्रा तथा उल्का दशाएं ४-४ नक्षत्रों में होती हैं। 

योगिनी दशाओं के नाम और फल निम्न प्रकार हैं :-
  1. मंगला (चंद्रमा) अवधि १ वर्ष : इस दशा में मन पवित्र होता है तथा धार्मिक कार्यों में सहज रूचि होती है. देव पूजन, सत्संग, धर्म चर्चा व पुराण कथाओं में सम्मिलित होने से सुख, वैभव और सम्पन्नता बढ़ती है. इस अवधि में सुख, सुविधा, यश एवं रत्नाभूषण की प्राप्ति होती है. घर परिवार में मंगल उत्सव होते हैं. विद्या, विनय, वैभव के साथ मित्र व संबंधियों का स्नेह व सहयोग भी मन की प्रसन्नता को बढ़ाता है. अन्य विद्वानों के अनुसार मंगल, मांगल्य, मंगला का अर्थ शुभ श्रेष्ठ व कल्याणकारी है. निष्ठावान पत्नी, सुशील, आज्ञाकारी और भाग्यशाली संतान, धन वैभव, शुभता, पूजा अर्चना प्रार्थना द्वारा अरिष्ट निवारण, स्वस्थ, श्रेष्ठ व कल्याणकारी आयोजन, पद, प्रतिष्ठा, प्रताप, पराक्रम व विशेष सफलता, मंगला की दशा या भुक्ति में सहज मिलती है. 

  2. पिंगला (सूर्य) अवधि २ वर्ष : विद्वानों ने सूर्य को क्रूर ग्रह माना है. अतः इस दशा में मनोव्यथा, देह कष्ट, हृदय रोग तथा मिथ्या मनोरथ से उपजा दुःख अथवा अनैतिक आचरण, या कुसंगति के कारण धन व यश की हानि तो कभी पित्त रोग, ज्वर या रक्त विकार से कष्ट होता है. इस अवधि में संतान, सेवक तथा संबंधी भी कष्ट पाते हैं जिस कारण मन दुखी रहता है. कुछ विद्वान पिंगला का संबंध अग्नि-दुर्घटना या उष्णता, वरिष्ठ जन के सहयोग से कार्य सिद्धि, उल्लू जैसी सजगता, कुबेर का खजाना, पर्यटन प्रेम, व्यापार कुशलता, पीला या सुनहरी रंग जो प्रसन्नता का वातावरण बनाए, कष्ट-क्लेश से मुक्ति, किसी प्रभावशाली महिला का सहयोग व समर्थन तथा शुभ कृत्य, उदारता, परोपकार और अधिकार या सत्ता सुख से जोड़ते हैं. ध्यान रहे पिंगला एक सरल हृदया और धार्मिक विचार वाली राजनर्तकी थी जो अपने तोते को राम नाम सिखाते हुए मृत्यु प्राप्त कर मुक्त हो गई. 

  3. धान्या (गुरु) अवधि ३ वर्ष : धान्या दशा का संबंध गुरु, उन्नति, प्रगति, विकास, धन-मान की वृद्धि तथा सुख सम्पन्नता से माना जाता है. इस अवधि में विद्या, शिक्षा और योग्यता बढ़ती है तथा शत्रु नष्ट होते हैं. गुरु धर्म और अध्यात्म का कारक होने से, धान्या दशा में, जातक देवार्चन करता है तथा उपासना व तीर्थाटन से कार्यसिद्धि व सुख पाता है तो कभी राजा के अनुग्रह से धन, मान और पद प्रतिष्ठा मिलती है. अन्य विद्वान धान्या को धन धान्य की वृद्धि करने वाली दशा मानते हैं. ये दशा स्वास्थ्य, सम्मान, सद्गुण, स्नेह व परस्पर सहयोग को बढ़ाकर सुखी बनाती है. यों तो प्राचीन ग्रंथों में धान्या को मधुर, शीतल, स्वादिष्ट, स्वास्थयवर्धक तथा उत्तम भोजन माना है किन्तु मतान्तर में कहीं धान्या का अर्थ कसैला, कड़वा अथवा प्यास बढ़ाने वाला, तिक्त तथा मूत्र रोग का कारक भी माना गया है. 

  4. भ्रामरी (मंगल) अवधि ४ वर्ष : यह दशा पर्यटन, भ्रमण तो कभी घर परिवार से दूर निरर्थक भटकाव दिया करती है. मंगल अग्नि तत्त्व, क्रूर ग्रह होने से कभी, पदभंग, मानहानि या स्थानांतरण संबंधी क्लेश देता है. कोई जातक साहस, पराक्रम तथा परिश्रम से, अपनी प्रतिष्ठा बचाने या सफलता और सम्मान पाने से सुखी होता है. अन्य विद्वानों के अनुसार भ्रामरी दशा घर परिवार के सुख में तो कमी करती है किन्तु परिश्रम व पर्यटन द्वारा जातक, राजा सरीखे धनी मानी व्यक्तियों की कृपा से लाभ पता है. यदि जातक मानसिक संतुलन और धैर्य बनाए रखे तो जैसे देवी ने भ्रमरों द्वारा दैत्य समुदाय का नाश किया था, वैसे ही सारी बुराइयां इस दशा में स्वतः मिट जाती हैं.   

  5. भद्रिका (बुध) अवधि ५ वर्ष : यह दशा परिवार में स्नेह, सौहार्द तथा सहयोग बढ़ाती है. नए व लाभकार मैत्री संबंध बनते हैं. जातक संत, महात्मा, धनी मानी तथा राजा या उच्च अधिकारियों की कृपा से धन, मान व सुख पता है. घर में मंगल समारोह का आयोजन होता है. व्यापारिक दक्षता तथा सुख सुविधा की वृद्धि होती है. मित्रों के साथ आमोद-प्रमोद में समय बीतता है. भद्र या भद्रिका का अर्थ शुभ और कल्यानप्रद होता है. जातक मानो शुभता का आगार बन जाता है. सिद्ध महात्मा और धनी मानी व्यक्तियों के आशीर्वाद से उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं. वह स्वस्थ, गुणी, उदार, परोपकारी तथा दूसरों की सेवा सहायता को तत्पर रहने से स्नेह, सम्मान व प्रतिष्ठा पाता है.  

  6. उल्का (शनि) अवधि ६ वर्ष : किसी अग्नि पिंड का आकाश से गिरना उल्कापात कहलाता है. इसकी तुलना निर्धारित लक्ष्य पर मार करने वाले संहारक प्रक्षेपास्त्र से की जा सकती है. यह दशा धन, यश तथा वाहन सुख को नष्ट करती है. संतान तथा सेवक से मानसिक कष्ट क्लेश मिलता है. कभी राजा के कोप से धन और प्रतिष्ठा की हानि होती है. परिवार में मतभेद या वैर विरोध बढ़ने से, घर मानो युद्ध भूमि अथवा शत्रु दुर्ग सरीखा जान पढ़ता है. हृदय, उदर, दांत, कान या पाँव की पीड़ा भी दुःख दिया करती है. अन्य विद्वानों के मत से उल्का दशा, नगर या बस्ती में उपद्रव या उत्पाद (दंगों) से कष्ट देती है. कभी अग्नि या दुर्घटना का भय होता है. शायद ये अवधि व्यक्ति, परिवार, समाज तथा देश (स्थान) के लिए अशुभ और अनिष्टप्रद है. कोई जातक ज्योतिष या व्याकरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट सफलता भी पाता है. 

  7. सिद्ध (शुक्र) अवधि ७ वर्ष : इस दशा विद्वानों ने धन, विद्या, सफलता व संपन्नता देने वाली दशा माना है.  जातक सुख, सौभाग्य, सम्मान तथा पद-प्रतिष्ठा व यश पाता है. उसे धन, वस्त्र, रत्नाभूषण तथा वाहन सुख की प्राप्ति होती है. कभी बच्चों का विवाह होने से सुख व संतोष मिलता है. अन्य विद्वानों के अनुसार इस दशा में जातक की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं. उसे मनोवांछित लाभ और सफलता मिलती हैं. वह उच्च पद, अधिकार व सत्ता सुख पाता है. कभी सिद्ध महात्माओं की कृपा से, दैवीय गुण और शक्तियों का विकास होता है. वह निर्णय कुशल, सभी के झगड़े निपटाने वाला तथा चमत्कारिक व्यक्तित्व का धनी व प्रतिष्टित व्यक्ति होता है. 

  8. संकटा (राहू) अवधि ८ वर्ष : यह दशा धन, मान, यश तथा पद प्रतिष्ठा की हानि करती है. कभी चोरी, अग्निभय या उपद्रव के कारण धन सम्पदा का नाश होता है. मिथ्या मनोरथ, देह की दुर्बलता, परिवार से वियोग या स्वर्ण की हानि भी क्लेश देती है. यदि आयुष्य स्माप्त प्रायः हो तो जातक की मृत्यु होना भी संभव है. मतान्तर से जातक मनमानी करने की प्रवृत्ति, हठी स्वभाव, कुसंगति व स्वार्थपूर्ण आचरण के कारण अपनी परेशानी स्वयं ही बढ़ाता है. लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर वह नीति विरुद्ध कार्य कर अपयश और कलंक का भागी बनता है. कभी संकीर्ण व संकुचित मनोवृति भी मनोव्यथा का कारण बनती है. बनारस की संकटा देवी की उपासना करने से संकट मिटते हैं तथा सुख की प्राप्ति होती है. 
ब्लॉग में  सम्मिलित सभी लेख किसी न किसी महानुभव की वर्षों  की तपस्या का फल है.  इस ब्लॉग में इनका पुनः प्रकाशन  ज्योतिष शास्त्र में रूचि रखने वाले मित्रों के कल्याणार्थ किया जा रहा  है. 

Friday, November 22, 2013

ग्रहों के विषय

सभी ग्रह अपने कारकत्व के अनुरूप अपनी दशा/अंतर्दशा (भुक्ति) में जातक पर प्रभाव डालते हैं :-
  1. सूर्य आत्मा, पिता, पद, प्रतिष्ठा, स्वास्थय व शक्ति (शारीरिक व आत्म बल) के साथ धन व लक्ष्मी का कारक है. 

  2. चंद्रमा से मन, बुद्धि, राजकृपा तथा धनसंपदा का विचार किया जाता है. 

  3. मंगल से पराक्रम, परिश्रम, संघर्ष शक्ति, अनुज, भूमि, शत्रु, रोग व चचेरे भाई का ज्ञान होता है. मंगल बली होने पर जातक अपने पराक्रम से सुख व सफलता पता है. 

  4. बुध विद्या, बुद्धि, बंधू, माया, मित्र, मनोरंजन, वाणी, कार्यक्षमता का कारक है. अतः शुभ होने पर अपनी दशा अंतर्दशा में बुध मौज मस्ती कराएगा मित्र मण्डली का सुख देगा.

  5. गुरु ज्ञान, प्रजा, धर्म, धन, संतान, शरीर की पुष्टि, मंत्रोपासना का कारक है. गुरु अपनी अंतर्दशा में प्रायः स्नेह, सहयोग, सुख व समृद्धि देता है. जातक की धर्म में रूचि होती है. 

  6. शुक्र वस्त्राभूषण, दांपत्य सुख, पत्नी से सम्बन्ध, सुख वैभव तथा वहाँ का कारक होता है. शुभ शुक्र अपनी दशा में सुख, समृद्धि व दांपत्य सुख देता है. 

  7. शनि आयु, जीवन, जीविका (नौकरी), दस-दासी या दुःख देता है. मृत्यु व विपत्ति का विचार भी शनि से होता है. कालपुरुष का लग्न, शनि की नीच राशि है. अतः इसे काल पुरुष का दुःख माना गया है. बहुधा शनि विलम्ब या बाधा देता है. 

  8. राहू से दादा का विचार किया जाता है. तीसरे भाव अथवा मिथुन/वृष राशि का उच्चस्थ राहू साहस पराक्रम बढ़ाता है. 

  9. केतु से नाना का विचार किया जाता है. द्वादश भाव का केतु मोक्षदायी व मुक्ति कारक माना गया है. केतु अपनी दशा/भुक्ति में प्रायः अनिष्ट व अशुभ से छुटकारा दिलाया करता है. 

Saturday, September 28, 2013

पुरुष की या स्त्री की रति शक्ति के सूचक योग

रति शक्ति का सम्बन्ध व्यक्ति के शारीरिक गठन, नस्ल और देशकाल (जलवायु) से रहता है. इसका ज्ञान हमें स्नायु संस्थान के कारक व रक्त संचार कारक ग्रह की स्थिति से होता है तथा सप्तम स्थान में स्थित राशि व ग्रह के स्वभाव तथा बल के अनुसार निष्कर्ष निकलना पड़ता है.

मान्यता यह है कि काम का उद्गम सबसे पहले मन से होता है. काम को मनोज व मन्मथ भी कहा जाता है देह तो मन की आज्ञाकारी दास है. इसलिए यहाँ हम व्यक्ति की मानसिक स्थिति व काम की ओर होने वाली सहज रूचि के सूचक योगों पर विचार करेंगे.

प्रमुख रूप से कामप्रिय (सेक्सी) होना शुक्र की स्थिति पर निर्भर करता है. विशेष यह है की यह बलवान होकर या निर्बल होकर त्रिक स्थान छठे, आठवें या बारहवें में आ जाये तो व्यक्ति को कामी बनाता है. यहाँ इसमें स्थानगत प्रभाव रहता है. हाँ, यदि इस पर बलवान बृहस्पति की दृष्टि हो तो बात दूसरी है. शुक्र पाप ग्रहों के साथ देखा जाए अथवा पाप ग्रहों के साथ बैठा हो तो कामी बनाता है. बुध की या अपनी राशि में बैठा हुआ शुक्र भी कामी बना देता है. अगर रिपुभाव में धनु या मीन राशि हो ओर शुक्र मंगल के साथ किसी भी भाव में स्थित हो या कामी होने के लिए सातवें स्थान में शुक्र का बैठना ही प्रयाप्त रहता है.

ये योग व्यक्ति को काम का आवेश आने पर उचित या अनुचित का ध्यान नहीं रहने देते वह कामांध सा हो जाता है. अप्राकृतिक काम घटनाएं या कामापराध कामी व्यक्ति ही किया करते हैं. जब कुंडली में शुक्र की यह स्थिति हो ओर गोचर में वह प्रबल पद रहा हो या इसकी दशा-अंतर्दशा चल रही हो तब यह व्यक्ति को मथकर रख देता है, सिवा काम-वासना के कुछ और दिखाई नहीं देता और वह निर्मम भाव से अपने शरीर का नाश करता रहता है. 

कम या संतुलित काम (सेक्स) वाले लोगों के चंद्रमा वृष या तुला राशि का होता है. शनि और चंद्रमा का योग चौथे स्थान में हो रहा हो. लग्न में विषम राशि हो और शुक्र वहाँ बैठा हो. लग्न में वृष या धनु राशि हो और उसमे शनि स्थित हो. शुक्र सप्तम स्थान में हो और उस पर लग्नपति की दृष्टि हो. यह सभी योग रति शक्ति में कमी होने के थे. 
  • बलवान मंगल आय भाव में रहे तो व्यक्ति चिर युवा रहता है. 
  • लग्न में चंद्र और शुक्र एक साथ रहे तो व्यक्ति सदाबहार रहता है. 
  • बलवान बुध पाप ग्रहों से युत या दृष्ट न होकर त्रिक स्थान के अलावा कहीं हो तो व्यक्ति सदाबहार रहता है. 
अब उन योगों का वर्णन है जिसमें व्यक्ति स्त्रियों को संतुष्ट नहीं कर पता है और उनका प्रिय नहीं होता. उसमे धारण क्षमता का अभाव होता है. 

चंद्र मंगल की राशि (मेष) में हो, सूर्य चंद्रमा की राशि (कर्क) में हो और राहू, शुक्र व शनि इनमें से कोई दो ग्रह अपनी उच्च राशि में हो. शनि और बृहस्पति गर्भस्थान (पाँचवें) में एक साथ हों और चंद्रमा लग्न में हो. शुक्र मकर या कुम्भ राशि में हो, लग्न में कन्या राशि हो जिस पर शनि एवं बुध की दृष्टि हो. इन योगों में व्यक्ति शीघ्र पतन, शुक्रमेह, स्वप्नदोष या अन्य वीर्य विकारों से ग्रस्त रहता है. 

पुरुषत्वहीन करने वाले योग
  • शुक्र और शनि एक साथ दसवें या आठवें स्थान में हो. 
  • शनि जलराशि का होकर छठे या बारहवें स्थान में रहे. 
  • लग्न में विषम राशि हो, मंगल समराशि में हो और लग्न को देख रहा हो. 
  • शुक्र और शनि का योग दसवें स्थान में होने पर भी यह योग बनता है. 
  • शनि, शुक्र से छठे या आठवें स्थान में रहे. नीच राशि का शनि छठे या बारहवें स्थान में हो. 

यह योग जिनके होते है वे लोग पुरुषत्वहीन होते हैं. पुरुषत्वहीनता लाने योगों में व्यक्ति के जननेन्द्रिय संस्थान करीब-करीब निष्क्रिय से रहते हैं. स्मरण रहे इन योगों में पाप ग्रहों के साथ युति स्थिति दृष्टि आदि का सम्बन्ध होने पर ही यह योग सार्थक होते हैं. 

Thursday, September 26, 2013

ग्रहों के मारक ग्रह

सूर्य से शनि, शनि से मंगल, मंगल से गुरु, गुरु से चंद्र, चंद्र से शुक्र, शुक्र से बुध, बुध से चंद्र निश्चय कर के मारे जाते हैं... अर्थात् सूर्य से शनि का दोष मिटता है इसी तरह सर्व ग्रह एक दूसरे के फल को मार देते हैं.....

ग्रहों के दोष शामक ग्रह 

राहू का दोष बुध नाश करता है राहू व बुध इन दोनों के दोष को शनि नाश करता है.... राहू, बुध, शनि इन तीनों के दोष को मंगल नाश करता है... राहू, बुध, शनि, मंगल इन चारों के दोष को शुक्र और राहू, बुध, शनि, मंगल और शुक्र इन पाँचों के दोष को गुरु नाश करता है, राहू, बुध, शनि, मंगल,  शुक्र और गुरु इन छहों के दोष को चंद्रमा और सातों ही ग्रहों के दोष को विशेषकर उत्तरायण में रवि नाश कर देता है.......

According to Jataka Parijata (II - 73.74),


Mercury when in strength is said to counter the evil used by Rahu. Saturn can counter the evil caused by the combining of Mercury and Rahu. Mars is said to be capable of overcoming the evil generated by these three planets put together. Venus can counter the evil caused by all these four planets being together.  Jupiter can overcome the joint evil of all the 5 planets Mercury, Rahu, Saturn, Mars and Venus. The Sun is said to be so powerful that he can remove the evil effects of the foregoing planets plus of the Moon. 

Friday, June 7, 2013

कुंडली में मांगलिक योग

विवाह सर्वमांगल्ये यात्रायां ग्रह गोचरे
जन्म राशि प्रधानत्वं नाम राशि न चिन्तयेत।।
देशे ग्रामे ग्रहे युद्धे सेवायां व्यवहारके
नाम राशि: प्रधानत्वं जन्म राशि न चिन्तयेत।।

वर का प्रसिद्ध नाम तथा कन्या का जन्म नाम, कन्या का जन्म नाम तथा व वर का प्रसिद्ध नाम कदापि न लें। वैवाहिक समय में वर तथा कन्या की कुंडली का मिलान करने से प्रथम निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है ताकि वर-कन्या (नव दंपत्ति) अपना जीवन सुखमय व्यतीत कर सकें।
  1. सर्वप्रथम ध्यान में रखने वाली बात यह है कि कुंडली में मांगलिक दोष, अगर हो तो वर कन्या दोनों की जन्म कुंडलियों में हो।
  2. वर्ण, कूट, वश्य कूट, तारा कूट, योनि कूट ग्रह मैत्री, गण मैत्री, भकूट, नाड़ी कूट इन आठ कूटों का मिलान अवश्य करें।
  3. वर कन्या का जन्म समय ठीक होना चाहिए।
  4. सबसे अधिक ध्यान रखने योग्य बात यह है कि क्या वर तथा कन्या का जन्म-पत्र शुद्ध, सूक्ष्म एवं सिद्धान्तीय गणित के अनुसार है।   

एक नाड़ीस्थनक्षत्रे दम्पत्योर्मरण  ध्रुवं
सेवायां च भवेद्धानि विवाहे प्राण नाशकः ।।

वर-कन्या कि एक नाड़ी हो तो निश्चय मरण, सेवा में हानि और विवाह में प्राणों का नाश होता है

आदि नाड़ी वर हान्ति मध्य नाड़ी च कन्यकाम्
अन्त्यनाड़ायां दूयोमृत्यु नाड़ी दोषं त्यजेद् बुधः ।।

आदि नाड़ी वर को, मध्य नाड़ी कन्या को और अन्य नाड़ी दोनों का हनन करती हैं। इससे नाड़ी दोष विद्वानों को त्याग देना चाहिए।

नाड़ी दोषश्च विप्राणां  वर्णदोषस्तु भुभ्रुजाम्
गण दोषश्च वैश्यषु योनि दोषतु पादजाम्।।

विवाह में ब्राह्मणों के लिए नाड़ी दोष, क्षत्रियों के लिए वर्ण दोष, वैश्यों को गण दोष और शुद्रों को योनि दोष विशेष कर विचारना चाहिए।

एक नक्षत्र जातानां नाड़ी दोषो न विधते
अन्यर्क्षे नाड़िवेधे च विवाहो वर्जितः सदा
ऐकर्क्षे  चैक पापे च विवाहो मरणः प्रदः।।
ऐकर्क्षे भिन्न पापे च विवाहः शुभदायक ।।

एक नक्षत्र में उत्पन्न हुए वर-कन्या को नाड़ी का दोष नहीं है  जो दूसरे नक्षत्रों का नाड़ी वेध हो तो विवाह सदा वर्जित है परन्तु एक नक्षत्र में एक ही चरण हो तो विवाह मरणदायक और एक नक्षत्र में अलग-अलग चरण हो तो विवाह शुभदायक है

लग्ने व्यये व पातालेयामित्रे चाष्टमे कुजे
पत्नी हंति स्वभर्त्ता  भर्त्ता भार्यां विनाश्येत  ।।

यदि स्त्री के लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और व्यय स्थान में मंगल हो तो पुरुष की मृत्यु होती है इसलिए वर कन्या दोनों का मंगल होना आवश्यक है अन्यथा एक को कष्ट स्वाभाविक है

यामित्रे च यदा सौरिर्लग्ने वा हिबुकेऽथवा
अष्टमे द्वादशे चैव भौम दोषो न विद्यते ।।

यदि लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में शनि हो तो मंगल का दोष नहीं रहता

शानिभौमोऽथवा कश्चित् पापो वा तादृशो भवेत्
तेप्नेव भवनेप्वेव भौम दोष विनाशकृत।।

यदि वर या कन्या किसी एक के मंगल हो और दूसरे की कुंडली में मंगल न होकर मंगल के स्थान पर शनि या राहू पाप ग्रह हो तो मंगल दोष नहीं रहता

न वर्ग वर्णों न गणो न योनि योनीर्द्धिद्धादशे नैवषडष्टक
तारा विरुद्धे नवपंचमेवा राशिश मैत्री शुभदे विवाह।।

वर और कन्या की राशियों के स्वामी एक हो व दोनों के स्वामियों की परस्पर मित्रता हो तो वर्णादि कूटों का दोष नहीं रहता
इसी तरह नाड़ी दोष में यदि वर और कन्या का नक्षत्र भिन्न-भिन्न हो किन्तु राशि एक है या दोनों का नक्षत्र एक हो और राशि भिन्न-भिन्न हो तो नाड़ी दोष नहीं होता।
यदि दोनों ही एक राशि और एक ही नक्षत्र हो तो विवाह शुभ नहीं होता।
किन्तु नक्षत्र में भिन्न-भिन्न चरण होने से अति आवश्यक हो तो शुभ रहेगा।

वरस्य पंचमे कन्या, कन्याया नवमेवरः
एतत् त्रिकोणकं ग्रहमं पुत्र पौत्र सुखावहम
मरण पितु मात्रोश्च सन्ग्राह्मं नवपंचकम् ।।
षड्ष्टके भवेन मृत्युर्यत्नं तस्य विचारयेत ।।

वर की राशि से कन्या की राशि पंचम हो, कन्या की राशि से वर की नवम हो तो यह नवपंचम त्रिकोण शुभ है। यदि विपरीत हो यानि कन्या से पंचम वर की व वर से नवम कन्या की तो माता पिता को मृत्यु तुल्य कष्ट कहें

Friday, May 31, 2013

मांगलिक दोष के परिहार

'मुहूर्त दीपक',  'मुहूर्त पारिजात' तथा अन्य मानक ग्रंथों में मांगलिक योग या दोष के कुछ आत्म कुंडलीगत तथा कुछ पर कुंडलीगत परिहार बताए गए हैं। यदि प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्ठम व द्वादश भावों में कहीं भी मंगल हो और अन्य ग्रहों की स्थिति, दृष्टि या युति निम्न प्रकार हो तो कुजदोष स्वतः ही प्रभावहीन हो जाता है :-

  • यदि मंगल ग्रह वाले भाव का स्वामी बली हो, उसी भाव में बैठा हो या दृष्टि रखता हो, साथ ही सप्तमेश या शुक्र अशुभ भावों (6/8/12) में न हो। 
  • यदि मंगल शुक्र की राशि में स्थित हो तथा सप्तमेश बलवान होकर केंद्र त्रिकोण में हो। 
  • यदि गुरु या शुक्र बलवान, उच्च के होकर सप्तम में हो तथा मंगल निर्बल या नीच राशिगत हो। 
  • मेष या वृश्चिक का मंगल चतुर्थ में, कर्क या मकर का मंगल सप्तम में, मीन का मंगल अष्टम में तथा मेष या कर्क का मंगल द्वादश भाव में हो। 
  • यदि मंगल स्वराशि, मूल त्रिकोण राशि या अपनी उच्च राशि में स्थित हो। 
  • यदि वर-कन्या दोनों में से किसी की भी कुंडली में मंगल दोष हो तथा परकुंडली में उन्हीं पाँच में से किसी भाव में कोई पाप ग्रह स्थित हो। 

इनके अतिरिक्त भी कई योग ऐसे होते हैं, जो कुजदोष का परिहार करते हैं। अतः मंगल के नाम पर मांगलिक अवसरों को नहीं खोना चाहिए।

सौभाग्य की सूचिका भी है मंगली कन्या? 

कन्या की जन्मकुंडली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादशभाव में मंगल होने के बाद भी प्रथम (लग्न, त्रिकोण), चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम तथा दशमभाव में बलवान गुरु की स्थिति कन्या को मंगली होते हुए भी सौभाग्यशालिनी व सुयोग्यभार्या तथा गुणवान व संतानवान बनाती है।

क्या कहता है आप का मंगल?

यह मांगलिक दोष कैसे बनता हैक्या मंगल ग्रह इतना भयावह है कि उसकी उपस्थिति से जन्म पत्रिका श्रापित हो जाती है जब मंगल ग्रह जन्म कुण्डली के लग्न, चौथे, सातवें, आठवें व बारहवें भाव में स्थित हो तो जातक को मांगलिक कहा जाता है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। इसी प्रकार कुण्डली में जहाँ चन्द्र स्थित होता है अर्थात चन्द्र कुण्डली से लग्न, चौथे, सातवें, आठवें व बारहवें भाव में जब मंगल स्थित हो तो भी जातक को मांगलिक कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि लग्न कुण्डली के बारह में से पांच भावों में यदि मंगल स्थित होंगे तो जातक  मांगलिक होगा। साथ ही इस लग्न कुण्डली में जहां चन्द्र स्थित है वहां से भी चन्द्र के साथ या उससे चौथे, या उसके सातवें, आठवें या बारहवें में यदि मंगल स्थित हो तो भी जातक मांगलिक कहलाएगा। अब इसे एक उदाहरण से समझते हैं।

कल्पना करते हैं एक कुण्डली का लग्न मेष है और चन्द्रमा तीसरे भाव अर्थात मिथुन में स्थित हैं। इस कुण्डली के 12 भावों में से मात्र 2 भाव (5वां व 11वां) बचे जहां मंगल स्थित हो तो जातक मांगलिक नहीं होगा, बाकी के बचे 10 भावों में से जहां कहीं भी मंगल स्थित होंगे तो जातक मांगलिक कहलाएगा। अब बताइये कि 12 भावों में से किसी एक भाव में तो मंगल उपस्थित होंगे ही और 12 भावों में से लगभग 10 भावों में उनकी उपस्थिति से जातक मांगलिककहलाएगा। इस मांगलिकसे बचने की कितनी कम संभावना है।

ज्योतिष के किसी भी शास्त्रीय ग्रंथ में मांगलिक या मांगलिक-दोष का वर्णन इस रूप में प्राप्त नहीं होता। विवाह हेतु  गुण मिलान इत्यादि के साथ इसका वर्णन कुछ एक ग्रंथों में बहुत सूक्ष्म वर्णित है जिस पर कालान्तर में कुछ शोध ग्रंथों में थोड़ा बहुत विस्तार दिखाई देता है किन्तु मांगलिक का जैसा रूप इस प्रकरण में महत्व प्राप्त कर गया ऐसा तो कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है। यह तो भ्रम का विस्तार ज्ञात होता है न कि ज्योतिष विज्ञान का। 

विवाह प्रकरण में ही मंगल ग्रह व मांगलिक शब्द का उपयोग या महत्व या चर्चा सुनाई देती है, ऐसा क्यों? जहां भी मांगलिक शब्द सुनने को मिलेगा उसका संदर्भ मात्र एवं मात्र विवाह ही होगा। इसका  ज्योतिषीय कारण है किन्तु उस कारण का या मंगल के विवाह-प्रकरण से संबंध का न तो कोई भयावह अर्थ है और न ही कोई अशुभ परिणाम। मंगल या मांगलिक का विवाह से संबंध किस प्रकार स्थापित होता है इसे समझने का प्रयास करते हैं।

लग्न यानि पहला भाव तनु भाव भी कहलाता है अर्थात् शरीर अथवा स्वयं।  इस से सप्तम यानि सातवां भाव भार्या स्थान कहलाता है अर्थात् जीवन संगिनी या फिर जीवन संगी का स्थान। यह दोनों ही भाव विवाह से सम्बंधित हो गए अर्थात् लग्न या तनु भाव एवं सप्तम या भार्या भाव। पहला स्वयं का और दूसरा जीवन साथी का। 

इस के पश्चात् मंगल के विषय में भी कुछ प्रमुख तथ्य जान लेते हैं। पहला तो यह कि ज्योतिष विज्ञानं में जो दो श्रेणियां वर्णित हैं - पुण्य ग्रह और पाप ग्रह, उन में मंगल 'पाप ग्रह' की श्रेणी में आता है। दूसरा तथ्य मंगल के विषय में यह है कि अन्य ग्रहों की भांति सातवीं दृष्टि के अतिरिक्त मंगल की चतुर्थ एवं अष्टम दृष्टि भी है

अब इन तथ्यों को मांगलिक बनाने वाले कारणों के साथ रखते हैं अर्थात् यदि मंगल लग्न, चौथे, सातवें, आठवें व बारहवें स्थान पर हो तो मांगलिक कहलाता है। इस कथन को ऊपर दिए तथ्यों पर कसेंगे तो इन सब का आपस में सम्बन्ध दिखाई देगा

- मंगल एक पाप ग्रह है।
लग्न में बैठकर मंगल अपने से सातवें भाव अर्थात् भार्या स्थान को देखता है।
- चौथे स्थान पर बैठकर मंगल अपनी विशेष चौथी दृष्टि से सप्तम अर्थात् भार्या स्थान को देखता है।
- सप्तम स्थान में स्थित मंगल भार्या भाव पर ही बैठा है।
- अष्टम स्थान में स्थित मंगल अपने से सप्तम अर्थात दूसरे भाव को देखता है जो सप्तम भाव का आयु स्थान   
 है। (सप्तम से अष्टम)।
- द्वादश भाव में स्थित मंगल अपनी विशेष अष्टम दृष्टि से सप्तम भाव को देखता है।

उपरोक्त सभी कारणों से स्पष्ट है कि मंगल जो कि एक पाप ग्रह है वह लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम या द्वादश भाव से सप्तम स्थान (जो कि जीवन साथी का भाव है) को किसी न किसी रूप में स्पष्ट व सीधे तौर पर प्रभावित करता है। इसीलिए इन भावों में मंगल के बैठने पर मंगल का संबंध विवाह से जुड़ता है एवं जातक मांगलिक कहलाता है।

Sunday, May 26, 2013

शकट योग

जैसे कुण्डली मे उपस्थित शुभ योग के परिणामस्वरूप शुभ फल की प्राप्ति होती है उसी प्रकार कुण्डली में अशुभ योग होने पर व्यक्ति को उसका अशुभ परिणाम भी भोगना पड़ता है। 

अशुभ योगों में से एक है "शकट योग" 

इस योग में व्यक्ति को जीवन भर असफलताओं का सामना करना होता है. अगर इस योग को भंग करने वाला कोई ग्रह योग कुंडली में न हो।

शकट पुल्लिंग शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ गाड़ी होता है| गाड़ी पहिये पर चलती है, पहिया जिस प्रकार घूमता है उसी तरह से जिनकी कुंडली में शकट योग बनता है उनके जीवन में उतार चढ़ाव लगा रहता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह योग जिनकी कुंडली में बनता है वो भले ही आमिर घराने में पैदा हुए हो पर उन्हें गरीबी और तकलीफों का सामना करना पड़ता है अगर किसी भी प्रकार से यह योग भंग नहीं होता हो। 

शकट योग ग्रह स्थिति

शकट योग कुंडली में तब बनता है जबकि सभी ग्रह प्रथम और सप्तम भाव में उपस्थित हों। इसका अलावा गुरु और चन्द्र कि स्थिति के अनुसार भी यह योग बनता है। चंद्रमा से गुरु जब षष्टम या अष्टम भाव में होता है और गुरु लग्न केंद्र से बाहर रहता है तब जन्मपत्री में यह अशुभ योग बनता है। इस योग के होने पर व्यक्ति को अपमान, आर्थिक कष्ट, शारीरिक पीड़ा, मानसिक दंश मिलता है। जो व्यक्ति इस योग से पीड़ित होते हैं उनकी योग्यता को सम्मान नहीं मिल पता है। 

शकट योग भंग 

अगर आपकी कुंडली में शकट योग है तो इसके लिए आप को परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि एक पुरानी कहावत है कि प्रकृति अगर आप को बीमार बनाती है तो इसका इलाज़ भी स्वयं ही करती है। इसी तरह कुछ ग्रह स्थिति के कारण आपकी कुंडली में अगर अशुभ शकट योग बन रहा है तो शुभ ग्रह स्थिति आप का बचाव भी करती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार चन्द्रमा बलवान एवं मजबूत स्थिति में होने पर व्यक्ति शकट योग में आने वाली परेशानियों और मुश्किलों से घबराता नहीं है और अपनी मेहनत और कर्तव्य निष्ठा से मान और सम्मान के साथ जीवन के सुख को प्राप्त करता है। लग्नेश और भाग्येश के लग्न में मौजूद होने पर जीवन में उतार चढ़ाव के बावजूद व्यक्ति मान सम्मान के साथ जीता है। 

जिनकी कुंडली में चंद्रमा पर मंगल की दृष्टि होती है उनका शकट योग भंग हो जाता है। षड्बल में गुरु अगर चंद्रमा से मजबूत स्थिति में होता है अथवा चन्द्रमा उच्च राशि या स्वराशि में हो तो यह अशुभ योग प्रभावहीन हो जाता है। राहू अगर कुंडली में चन्द्रमा के साथ युति बनाता है या फिर गुरु पर राहू की दृष्टि तो शकट योग का अशुभ प्रभाव नहीं भोगना पड़ता है। जिस व्यक्ति की कुंडली में लग्न स्थान से चंद्रमा या गुरु केंद्र में हो या फिर शुक्र चन्द्र की युति हो उन्हें शकट योग में भी धन लाभ, सफलता एवं उन्नति मिलती है. इसी प्रकार कि समान स्थिति तब भी होती है जबकि चंद्रमा वृषभ, मिथुन, कन्या या तुला राशि में हो और कर्क राशि में बुध शुक्र की युति बन रही हो। 

Monday, March 4, 2013

बुरी फेंग शुई का घर में प्रवेश कैसे होता है?

बुरी फेंग शुई का प्रवेश घर के अंदर, घर की संरचना तथा अनावश्यक वस्तुओं को रकने से भी होता है. वस्तुओं को ग़लत जगह रखने से भी बुरी फेंग शुई का प्रवेश होता है. बुरी फेंग शुई प्रवेश करने के कुछ उदाहरण इस प्रकार से हैं :-
  • मकान के मुख्य द्वार के आगे शौचालय या रसोईघर का दरवाजा होना 
  • मुख्य द्वार के आगे दीवार या खम्भा होना 
  • सोने वाले स्थान के उपर बीम होना 
  • मुख्य दीवार के आगे दर्पण होना 
  • घर के अंदर घुमावदार सीढ़ियाँ होना 
  • सबसे ऊपरी मंजिल के फ्लैट में रहना 
  • सूखे फूलों को घर में रखना 
  • अलमारी का दरवाजा खुला रखना 
  • शौचालय के दरवाजों को खुला रखना 
  • हिंसात्मक चित्र घर में लगाना 
  • शयन कक्ष में शीशा होना 
  • दरवाजे के सामने सिर या पैर कर के सोना 
  • शयन कक्ष में मछली घर होना 
  • झाड़ू को खुली जगह रखना 
  • अनावश्यक वस्तुओं को घर में रखना 
  • किचन में गैस का चूल्हा और सिंक का एक साथ होना 
  • चाकू, कैंची खुले रखना 
  • खुली खिड़की तथा दरवाजे की तरफ पीठ करके बैठना
  • नल की टंकी या टूटी से पानी का फालतू बहना 
  • फर्नीचर का तिकोना होना 
  • खाली दीवार की तरफ मुंह करके बैठना या सिर करके सोना 
  • फैक्स, टेलीफोन, कंप्यूटर का अनुचित स्थान पर होना 
  • टूटे हुए शीशे घर में रखना 
  • कैक्टस के पौधे घर के अंदर होना
  • डूबता जहाज़ या तिकोने पहाड़ों के चित्र का होना 
  • पलंग के अंदर अनावश्यक वस्तुएं संभाल कर रखना 

Friday, January 4, 2013

वक्री ग्रह - कितने शुभ कितने अशुभ

सारावली के अनुसार वक्री ग्रह सुखकारक व बलहीन अथवा शत्रु राशिगत वक्री ग्रह अकारण भ्रमण देने वाला तथा अरिष्टकारक सिद्ध होता है.

संकेतनिधि के अनुसार वक्री मंगल अपने स्थान से तृतीय भाव के प्रभाव को दर्शाता है. इसी प्रकार गुरु अपने से पंचम, बुध चतुर्थ, शुक्र सप्तम तथा शनि नवम भाव के फल प्रदान करता है.

जातक पारिजात में स्पष्ट लिखा है कि वक्री ग्रह के अतिरिक्त शत्रु भाव में किसी अन्य ग्रह का भ्रमण अपना एक तिहाई फल खो देता है.

उत्तर कलामृत के अनुसार वक्री ग्रह के समय कि स्थिति ठीक वैसी हो जाती है जैसे कि ग्रह के अपने उच्च अथवा मूल त्रिकोण राशि में होने से होती है.

फल दीपिका में मंत्रेश्वर का कथन है कि ग्रह कि वक्री गति उस ग्रह विशेष के चेष्टाबल को बढ़ाती है.

कृष्णमूर्ति पद्धति का कथन है कि प्रश्न के समय संबंधित ग्रह का वक्री ग्रह के नक्षत्र अथवा उसमें रहना नकारात्मक उत्तर का प्रतीक है. यदि कोई संबंधित ग्रह वक्री नहीं है परन्तु वक्री ग्रह के नक्षत्र में प्रश्न के समय स्थित है तो वह कार्य तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक कि वह ग्रह वक्री है.

आचार्य वेंकटेश कि सर्वार्थ चिंतामणि में वक्री ग्रह कि दशा, अंतर्दशा के फल का सुंदर विवरण मिलता है - 
मंगल ग्रह यदि वक्री है तथा उसकी दशा अथवा अंतर्दशा चल रही हो तो व्यक्ति अग्नि, शत्रु आदि के भय से त्रस्त रहेगा, वह ऐसे में एकांतवास अधिक चाहेगा.

वक्री बुध अपनी दशा अंतर्दशा में शुभ फल देता है. वह पत्नी, परिवार आदि का सुख भोगता है. धार्मिक कार्यों में उसकी रूचि जागृत होती है.

वक्री गुरु पारिवारिक सुख, समृद्धि देता  है तथा शत्रु पक्ष पर विजय करवाता है. व्यक्ति ऐश्वर्यमय जीवन जीता है.

वक्री शुक्र मान-सम्मान का द्योतक है. वाहन सुख तथा सुख-सुविधा के अनेक साधन वह जुटा पता है.

वक्री शनि अपनी दशा अंतर्दशा में अपव्यय करवाता है, व्यक्ति के प्रयासों में सफलता नहीं मिलने देता. ऐसा शनि मानसिक तनाव, दुःख आदि देता है.

अनेक ग्रंथो के अध्ययन-मनन के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि कोई ग्रह वक्री है और साथ ही साथ बलहीन भी है तो फलादेश में वह बलवान सिद्ध होगा. इसी प्रकार बलवान ग्रह यदि वक्री है तो अपनी दशा अंतर्दशा में निर्बल सिद्ध होगा. शुभाशुभ का फलादेश अन्य कारकों पर भी निर्भर करेगा यह कदापि नहीं भूलना चाहिए.

अनेक बार अनुभव में आया है कि ग्रह कि वक्रता का सुप्रभाव अथवा दुष्प्रभाव उसी ग्रह के लिए गणना किया जाता है जहाँ  पर वह स्थित है यह अशुद्ध गणना है. वक्रता का शुभाशुभ फल उससे पहले वाले भाव से सुनिश्चित किया जाना चाहिए.

देखने में आता है कि जब कोई ग्रह, मुख्य रूप से गुरु वक्री अथवा मार्गी होता है तो किसी न किसी व्यक्ति, देश, मौसम आदि को शुभ अथवा अशुभ रूप से प्रभावित अवश्य करता है.