शनि -
शनि का व्यास १,२०,००० किलोमीटर, परिभ्रमण काल १० घंटे ३८ मिनट तथा परिक्रमण काल २९. ४६ वर्ष है। शनि के चारों ओर ७ प्रकाशमान छल्ले हैं। शनि ग्रह से विचित्र संगीत की भिनभिनाहट की ध्वनि की खोज की गयी है। इसके १७ उपग्रह हैं। शनि एक राशि पर ढ़ाई (२½) वर्ष रहता है। शनि काला, तमोगुणी, वायु तत्त्व, स्त्री नपुंसक पाप ग्रह है। यह पश्चिम दिशा, संकर जातियों तथा शिशिर ऋतु का स्वामी है। यह एक ठंडा व शुष्क ग्रह है। शनि अंधकार, दुर्भाग्य, हानि तथा संकट का प्रतीक है, परन्तु इसके बलवान होने पर यह विपत्तियां कम हो जाती हैं। शनि वायु का अधिपति तथा विपत्ति का अधिष्ठाता है। प्राचीन काल में Satan (शैतान) या Satar (शातिर) के नाम पर इसका नाम Saturn (शनि) पड़ा है। कान, दांत, अस्थियों, वायु रोग व स्नायु से सम्बन्धित रोगों विचार शनि से किया जाता है। अंग्रेज़ी शिक्षा, आयु, जीवन, मृत्यु, शारीरिक बल, उदारता, विपत्ति, प्रभुता, ऐश्वर्य, मोक्ष, जमीन-जायदाद, खानों तथा छठे, आठवें, दसवें व बारहवें भाव का कारक शनि है। बुध और शुक्र शनि के मित्र, गुरु सम, तथा सूर्य, चंद्र और मंगल शत्रु हैं। शनि तुला राशि में 1° से 20° तक उच्च, परन्तु 20° पर परमोच्च, मेष राशि में 1° से 20° तक नीच, परन्तु 20° पर परमनीच, कुम्भ राशि में 1° से 20° तक मूलत्रिकोण में व कुम्भ में ही 20° से 30° तक स्वगृही है। यह मकर व कुम्भ राशियों का स्वामी है। इसकी पूर्ण दृष्टि तीसरी, सातवीं तथा दसवीं हैं।
शनि का व्यास १,२०,००० किलोमीटर, परिभ्रमण काल १० घंटे ३८ मिनट तथा परिक्रमण काल २९. ४६ वर्ष है। शनि के चारों ओर ७ प्रकाशमान छल्ले हैं। शनि ग्रह से विचित्र संगीत की भिनभिनाहट की ध्वनि की खोज की गयी है। इसके १७ उपग्रह हैं। शनि एक राशि पर ढ़ाई (२½) वर्ष रहता है। शनि काला, तमोगुणी, वायु तत्त्व, स्त्री नपुंसक पाप ग्रह है। यह पश्चिम दिशा, संकर जातियों तथा शिशिर ऋतु का स्वामी है। यह एक ठंडा व शुष्क ग्रह है। शनि अंधकार, दुर्भाग्य, हानि तथा संकट का प्रतीक है, परन्तु इसके बलवान होने पर यह विपत्तियां कम हो जाती हैं। शनि वायु का अधिपति तथा विपत्ति का अधिष्ठाता है। प्राचीन काल में Satan (शैतान) या Satar (शातिर) के नाम पर इसका नाम Saturn (शनि) पड़ा है। कान, दांत, अस्थियों, वायु रोग व स्नायु से सम्बन्धित रोगों विचार शनि से किया जाता है। अंग्रेज़ी शिक्षा, आयु, जीवन, मृत्यु, शारीरिक बल, उदारता, विपत्ति, प्रभुता, ऐश्वर्य, मोक्ष, जमीन-जायदाद, खानों तथा छठे, आठवें, दसवें व बारहवें भाव का कारक शनि है। बुध और शुक्र शनि के मित्र, गुरु सम, तथा सूर्य, चंद्र और मंगल शत्रु हैं। शनि तुला राशि में 1° से 20° तक उच्च, परन्तु 20° पर परमोच्च, मेष राशि में 1° से 20° तक नीच, परन्तु 20° पर परमनीच, कुम्भ राशि में 1° से 20° तक मूलत्रिकोण में व कुम्भ में ही 20° से 30° तक स्वगृही है। यह मकर व कुम्भ राशियों का स्वामी है। इसकी पूर्ण दृष्टि तीसरी, सातवीं तथा दसवीं हैं।
राहु (Dragon's Head or Ascending Node of the Moon) -
चंद्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के साथ 5° का कोण बनाती हुई पृथ्वी की कक्षा को दो विपरीत स्थानों पर काटती है। इन दोनों कटान बिंदुओं को ज्योतिष में छाया ग्रह माना गया है। जिस कटान बिंदु से चंद्रमा पृथ्वी के कक्षा तल से ऊपर आता है, वह राहु (Dragon's Head or Ascending Node of the Moon) कहलाता है। जिस कटान बिंदु से चंद्रमा पृथ्वी के कक्षा ताल से नीचे उतरता है वह केतु (Dragon's Tail or Descending Node of the Moon) कहलाता है। यह दोनों बिंदु एक-दूसरे से 180° दूर है तथा विपरीत दिशा में सरकते हुए दिखाई देते हैं। यह १८ वर्ष में पुनः उसी स्थान पर आ जाते हैं। पृथ्वी, चंद्रमा व सूर्य के इन बिंदुओं को सीध में आने तथा 5° के कोण का अंतर कम हो जाने पर ग्रहण होते हैं। इसीलिए कहा जाता है राहु चंद्रमा को ग्रस्ता है। राहु तमोगुणी, कृष्णवर्णी तथा पाप ग्रह है। यह कुंडली में जिस स्थान पर बैठता है, उसकी प्रगति को रोकता है। राहु मद का अधिष्ठाता है। राहु लगभग १८ माह तक एक राशि पर रहता है। यह सदैव वक्री रहता है तथा प्रत्येक राशि में इसके अंश कम होते जाते हैं। मिथुन राशि में उच्च 20° पर परमोच्च, धनु राशि में नीच 20° पर परमनीच तथा कुम्भ के 6° तक मूल त्रिकोण में होता है। शुक्र तथा शनि राहु के मित्र तथा सूर्य, चंद्रमा व मंगल शत्रु हैं। इसकी पूर्ण दृष्टि पांचवी, सातवीं, नवीं व बारहवीं है।
केतु (Dragon's Tail or Descending Node of the Moon) -
केतु सदैव राहु से 180° दूर रहता है। इसके अंश, कला और विकला समान रहते हैं। केतु धब्बेदार काले रंग का तमोगुणी पाप ग्रह है। हाथ, पैर, पेट व चर्म रोगों का विचार केतु से किया जाता है। केतु धनु राशि में उच्च 20° पर परमोच्च, मिथुन राशि में नीच 20° पर परम नीच तथा सिंह राशि में 6° तक मूल त्रिकोण में होता है। यह भी राहु की तरह वक्री ग्रह है। सिरविहीन होने के कारण यह दृष्टिविहीन भी है। कुछ विद्वान राहु की दृष्टि के समान ही केतु की दृष्टि भी मानते हैं।
चंद्रमा की कक्षा पृथ्वी की कक्षा के साथ 5° का कोण बनाती हुई पृथ्वी की कक्षा को दो विपरीत स्थानों पर काटती है। इन दोनों कटान बिंदुओं को ज्योतिष में छाया ग्रह माना गया है। जिस कटान बिंदु से चंद्रमा पृथ्वी के कक्षा तल से ऊपर आता है, वह राहु (Dragon's Head or Ascending Node of the Moon) कहलाता है। जिस कटान बिंदु से चंद्रमा पृथ्वी के कक्षा ताल से नीचे उतरता है वह केतु (Dragon's Tail or Descending Node of the Moon) कहलाता है। यह दोनों बिंदु एक-दूसरे से 180° दूर है तथा विपरीत दिशा में सरकते हुए दिखाई देते हैं। यह १८ वर्ष में पुनः उसी स्थान पर आ जाते हैं। पृथ्वी, चंद्रमा व सूर्य के इन बिंदुओं को सीध में आने तथा 5° के कोण का अंतर कम हो जाने पर ग्रहण होते हैं। इसीलिए कहा जाता है राहु चंद्रमा को ग्रस्ता है। राहु तमोगुणी, कृष्णवर्णी तथा पाप ग्रह है। यह कुंडली में जिस स्थान पर बैठता है, उसकी प्रगति को रोकता है। राहु मद का अधिष्ठाता है। राहु लगभग १८ माह तक एक राशि पर रहता है। यह सदैव वक्री रहता है तथा प्रत्येक राशि में इसके अंश कम होते जाते हैं। मिथुन राशि में उच्च 20° पर परमोच्च, धनु राशि में नीच 20° पर परमनीच तथा कुम्भ के 6° तक मूल त्रिकोण में होता है। शुक्र तथा शनि राहु के मित्र तथा सूर्य, चंद्रमा व मंगल शत्रु हैं। इसकी पूर्ण दृष्टि पांचवी, सातवीं, नवीं व बारहवीं है।
केतु (Dragon's Tail or Descending Node of the Moon) -
केतु सदैव राहु से 180° दूर रहता है। इसके अंश, कला और विकला समान रहते हैं। केतु धब्बेदार काले रंग का तमोगुणी पाप ग्रह है। हाथ, पैर, पेट व चर्म रोगों का विचार केतु से किया जाता है। केतु धनु राशि में उच्च 20° पर परमोच्च, मिथुन राशि में नीच 20° पर परम नीच तथा सिंह राशि में 6° तक मूल त्रिकोण में होता है। यह भी राहु की तरह वक्री ग्रह है। सिरविहीन होने के कारण यह दृष्टिविहीन भी है। कुछ विद्वान राहु की दृष्टि के समान ही केतु की दृष्टि भी मानते हैं।
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