Sunday, January 11, 2015

कुंडली का फलकथन करने से पूर्व विचार करने योग्य बातें :-

  • किसी भी ग्रह की महादशा में उसी ग्रह की अन्तर्दशा अनुकूल फल नहीं देती। 
  • योगकारक ग्रह की महादशा में पापी या मारक ग्रह की अन्तर्दशा आने पर प्रारंभ में शुभ फल तथा उत्तरार्द्ध में अशुभ फल देने लगता है। 
  • अकारक ग्रह की महादशा में कारक ग्रह की अन्तर्दशा आने पर प्रारंभ में अशुभ तथा उत्तरार्द्ध में शुभ फल की प्राप्ति होती है।
  • भाग्य स्थान का स्वामी यदि भाग्य भाव में बैठा हो और उस पर गुरु की दृष्टि हो तो ऐसा व्यक्ति प्रबल भाग्यशाली माना जाता है।
  • लग्न का स्वामी सूर्य के साथ बैठकर विशेष अनुकूल रहता है।
  • सूर्य के समीप निम्न अंशों तक जाने पर ग्रह अस्त हो जाते हैं, (चन्द्र-१२ अंश, मंगल-१७ अंश, बुध-१३ अंश, गुरु-११ अंश, शुक्र-९ अंश, शनि-१५ अंश) फलस्वरूप ऐसे ग्रहों का फल शून्य होता है। अस्त ग्रह जिन भावों के अधिपति होते हैं उन भावों का फल शून्य ही समझना चाहिए। 
  • सूर्य उच्च  का होकर यदि ग्यारहवें भाव में बैठा हो तो ऐसे व्यक्ति अत्यंत प्रभावशाली तथा पूर्ण प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्तित्व होता है।
  • सूर्य और चन्द्र को छोड़कर यदि कोई ग्रह अपनी राशि में बैठा हो तो वह अपनी दूसरी राशि के प्रभाव को बहुत अधिक बढ़ा देता है।
  • किसी भी भाव में जो ग्रह बैठा है, इसकी अपेक्षा जो ग्रह उस भाव को देख रहा होता है, उसका प्रभाव ज़्यादा रहता है।
  • जिन भावों में शुभ ग्रह बैठे हों या जिन भावों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो वे भाव शुभ फल देने में सहायक होते हैं।
  • एक ग्रह दो भावों का अधिपति होता है। ऐसी स्थिति में वह ग्रह अपनी दशा में लग्न से गिनने पर जो राशि पहले आएगी उसका फल वह पहले प्रदान करेगा।
  • दो केन्द्रों  का स्वामी ग्रह यदि त्रिकोण के स्वामी के साथ बैठे हैं तो उसे केंद्रत्व दोष नहीं लगता और वह शुभ फल देने में सहायक हो जाता है। सामान्य नियमों के अनुसार यदि कोई ग्रह दो केंद्र भावों का स्वामी होता है तो वह अशुभ फल देने लग जाता है चाहे वह जन्म-कुंडली में करक ग्रह ही क्यों न हो।
  • अपने भाव से केन्द्र व कोण में पड़ा हुआ ग्रह शुभ होता है। 
  • केंद्र के स्वामी तथा त्रिकोण के स्वामी के संबंध हो तो वे एक दूसरे की दशा में शुभ फल देते हैं।  यदि संबंध न हो तो एक की महादशा में जब दूसरे की अंतर्दशा आती है तो अशुभ फल ही प्राप्त होता है।
  • वक्री होने पर ग्रह अधिक बलवान हो जाता है तथा वह ग्रह जन्म-कुंडली में जिस भाव का स्वामी है, उस भाव को विशेष फल प्रदान करता है। 
  • यदि भावाधिपति उच्च, मूल त्रिकोणी, स्वक्षेत्री अथवा मित्रक्षेत्री हो तो शुभ फल करता है।
  • यदि केन्द्र का स्वामी त्रिकोण में बैठा हो या त्रिकोण  केंद्र में हो तो वह ग्रह अत्यन्त ही श्रेष्ठ फल देने में समर्थ होता है। जन्म-कुंडली में पहला, पाँचवा तथा नवाँ  भाव त्रिकोण स्थान कहलाते हैं। परन्तु कोई ग्रह त्रिकोण में बैठकर केंद्र के स्वामी के साथ संबंध स्थापित करता है तो वह न्यून योगकारक ही माना जाता है।
  • त्रिक स्थान (कुंडली के ३, ६, ११वे भाव को त्रिक स्थान कहते हैं) में यदि शुभ ग्रह बैठे हो तो त्रिक स्थान को शुभ फल देते हैं परन्तु स्वयं दूषित हो जाते हैं और अपनी शुभता खो देते हैं। 
  • यदि त्रिक स्थान में पाप ग्रह बैठे हों तो त्रिक भावों को पापयुक्त बना देते हैं पर वे ग्रह स्वयं शुभ रहते हैं और अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। 
  • चाहे अशुभ या पाप ग्रह ही हो, पर यदि वह त्रिकोण भाव में या त्रिकोण भाव का स्वामी होता है तो उसमे शुभता आ जाती है।
  • एक ही त्रिकोण का स्वामी यदि दूसरे त्रिकोण भाव में बैठा हो तो उसकी शुभता समाप्त हो जाती है और वह विपरीत फल देते है। जैसे पंचम भाव का स्वामी नवम भाव में हो तो संतान से संबंधित परेशानी रहती है या संतान योग्य नहीं होती।
  • यदि एक ही ग्रह जन्म-कुंडली में दो केंद्रस्थानों का स्वामी हो तो शुभफलदायक नहीं रहता। जन्म-कुंडली में पहला, चौथा, सातवाँ तथा दसवां भाव केन्द्र स्थान कहलाते हैं।
  • शनि और राहु विछेदात्मक ग्रह हैं अतः ये दोनों ग्रह जिस भाव में भी होंगे संबंधित फल में विच्छेद करेंगे जैसे अगर ये ग्रह सप्तम भाव में हों तो पत्नी से विछेद रहता है। यदि पुत्र भाव में हों तो पुत्र-सुख में न्यूनता रहती है। 
  • राहू या केतू  जिस भाव में बैठते हैं उस भाव की राशि के स्वामी  समान बन जाते हैं तथा जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उस ग्रह के गुण ग्रहण कर लेते हैं।
  • केतु जिस ग्रह के साथ बैठ जाता है उस ग्रह के प्रभाव को बहुत अधिक बड़ा देता है।
  • लग्न का स्वामी जिस भाव में भी बैठा होता है उस भाव को वह विशेष फल देता है तथा उस भाव की वृद्धि करता है।
  • लग्न से तीसरे स्थान पर पापी ग्रह शुभ प्रभाव करता है लेकिन शुभ ग्रह हो तो मध्यम फल मिलता है। 
  • तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में पापी ग्रहों का रहना शुभ माना जाता जाता है।
  • तीसरे भाव का स्वामी तीसरे में, छठे भाव का स्वामी छठे में या ग्यारहवें भाव का स्वामी ग्यारहवें भाव में बैठा हो तो ऐसे ग्रह पापी नहीं रहते अपितु शुभ फल देने लग जाते हैं।
  • चौथे भाव में यदि अकेला शनि हो तो उस व्यक्ति की वृद्धावस्था अत्यंत दुःखमय व्यतीत होती है। 
  • यदि मंगल चौथे, सातवें , दसवें भाव में से किसी भी एक भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति का गृहस्थ जीवन दुःखमय होता है। पिता से कुछ भी सहायता नहीं मिल पाती और जीवन में भाग्यहीन बना रहता है।
  • यदि चौथे भाव का स्वामी पाँचवे भाव में हो और पाँचवें भाव का स्वामी चौथे भाव में हो तो विशेष फलदायक होता है।  इसी प्रकार नवम भाव का स्वामी दशम भाव में बैठा हो तथा दशम भाव का स्वामी नवम भाव में बैठा हो तो विशेष अनुकूलता देने में समर्थ होता है। 
  • अकेला गुरु यदि पंचम भाव में हो तो संतान से न्यून सुख प्राप्त होता है या प्रथम पुत्र से मतभेद रहते हैं।
  • जिस भाव की जो राशि होती है उस राशि के स्वामी ग्रह को उस भाव का अधिपति या भावेश कहा जाता है। छठे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी जिन भावों में रहते हैं, उनको बिगाड़ते हैं, किन्तु अपवाद रूप में यदि यह स्वगृही ग्रह हों तो अनिष्ट फल नहीं करते, क्योंकि स्वगृही ग्रह का फल शुभ होता है। 
  • छठे भाव का स्वामी जिस भाव में भी बैठेगा, उस भाव में परेशानियाँ रहेगी। उदहारण के लिए छठे भाव का स्वामी यदि आय भाव में हो तो वह व्यक्ति जितना परिश्रम करेगा उतनी आय उसको प्राप्त नहीं सकेगी।
  • यदि सप्तम भाव में अकेला शुक्र हो तो उस व्यक्ति का गृहस्थ जीवन सुखमय नहीं रहता और पति-पत्नी में परस्पर अनबन बनी रहती है।
  • अष्टम भाव का स्वामी जहाँ भी बैठेगा उस भाव को कमजोर करेगा।
  • शनि यदि अष्टम भाव में हो तो उस व्यक्ति की आयु लम्बी होती है।
  • अष्टम भाव में प्रत्येक ग्रह कमजोर होता है परन्तु सूर्य या चन्द्रमा अष्टम भाव में हो तो कमजोर नहीं रहते।
  • आठवें और बारहवें भाव में सभी ग्रह अनिष्टप्रद होते हैं, लेकिन बारहवें घर में शुक्र इसका अपवाद है क्योंकि शुक्र भोग का ग्रह है  बारहवां भाव भोग का स्थान है।
  • यदि शुक्र बारहवें भाव में हो तो ऐसा व्यक्ति अतुलनीय धनवान एवं प्रसिद्ध व्यक्ति होता है। 
  • द्वादश भाव का स्वामी जिस भाव में भी बैठता है, उस भाव को हानि पहुँचाता है। 
  • दशम भाव में सूर्य और मंगल स्वतः ही बलवान माने गए हैं, इसी प्रकार चतुर्थ भाव में चन्द्र और शुक्र, लग्न में बुध तथा गुरु और सप्तम भाव में शनि स्वतः ही बलवान हो जाते हैं तथा विशेष फल देने में सहायक होते हैं।
  • ग्यारहवें भाव में सभी ग्रह अच्छा फल करते हैं। 
  • अपने स्वामी ग्रह से दृष्ट, युत या शुभ ग्रह से दृष्ट भाव बलवान होता है। 
  • किस भाव का स्वामी कहाँ स्थित है तथा उस भाव के स्वामी का क्या फल है, यह भी देख लेना चाहिए।
  • यदि कोई ग्रह जिस राशि में है उसी नवमांश में भी हो तो वह वर्गोत्तम ग्रह कहलाता है और ऐसा ग्रह पूर्णतया बलवान माना जाता है तथा श्रेष्ठ फल देने में सहायक होता है। 

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