Thursday, March 6, 2014

ग्रह

ग्रहों का अंग-विन्यास 

जिस प्रकार द्वादश राशियां कालपुरुष का अंग मानी गई हैं अर्थात् कालपुरुष के शरीर में राशियों का विन्यास किया गया है, वैसे ही ग्रहों का विन्यास भी किया जाता है। प्रश्नकाल, गोचर अथवा जन्म-समय में जब ग्रह प्रतिकूल फलदाता होता है तो वह कालपुरुष के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारण पीड़ा पहुंचाता है।

कालपुरुष के सिर और मुख पर ग्रहपति सूर्य का, हृदय और कंठ पर चंद्रमा का, पेट और पीठ पर मंगल का, हाथों और पांवो पर बुध का,  बस्ति  पर गुरु का, गुह्य स्थान पर शुक्र का तथा जाँघों पर शनि का अधिकार होता है। 

सूर्य कालपुरुष की आत्मा और चंद्रमा मन है। मंगल बल है और बुध वाणी है। बृहस्पति सुख और ज्ञान है। शुक्र कामवासना है। शनि दुःख है। ज्योतिष में सूर्य-चन्द्र को राजा, गुरु-शुक्र को मंत्री , मंगल को सेनापति, बुध को युवराज और शनि को भृत्य कहा गया है। 

वर्ण 

सूर्य लाल-श्याम मिले-जुले रंग का, चंद्रमा सफ़ेद रंग का, मंगल लाल रंग का, बुध दूब  की भांति हरे रंग का,  बृहस्पति गौर-पीत रंग का, शुक्र श्वेत रंग का, शनि काले रंग का, राहु नीले रंग का तथा केतु विचित्र रंग का है। 

उपरोक्त कथन जातक के आत्मा व मन आदि  के बारे में पता देता है। यदि ग्रहों के कारक बलवान होंगे तो ग्रह भी पुष्ट होंगे और यदि कारक निर्बल अवस्था में होंगे तो ग्रह भी निर्बल होंगे। वर्ण-सम्बन्धी प्रश्न में नष्ट द्रव्य, चोर के रंग-रूप तथा कुंडली में जातक के रंग-रूप आदि का पता ग्रह के रंग से चलता है। 

ग्रहों की दिशा 

सूर्य पूर्व का, शनि पश्चिम का, बुध उत्तर का, मंगल दक्षिण का, शुक्र अग्नि-कोण का, राहु नैऋत्य का, चंद्रमा वायव्य का और गुरु ईशान दिशा का स्वामी है।

सजल-निर्जल संज्ञा 

चंद्रमा और शुक्र सजल हैं।  शनि, सूर्य और मंगल निर्जल (शुष्क) हैं। बुध और गुरु सजल राशि में रहने पर सजल और निर्जल राशि में रहने पर निर्जल माने जाते हैं।

जातक के शरीर का विचार करने के लिए सजल आदि संज्ञाओं का उपयोग होता है। ग्रह  के सजल होने से शरीर स्थूल होगा तथा ग्रह के शुष्क होने से शरीर पतला होगा।

ग्रहों के वर्ण 

बृहस्पति और शुक्र ब्राह्मण वर्ण के हैं, सूर्य और मंगल का वर्ण क्षत्रिय है तथा चंद्रमा और बुध वैश्य वर्ण के हैं। बुध चूँकि बुद्धि का कारक ग्रह  है, अतः  इसे ब्राह्मणवर्णी मानना अधिक उपयुक्त हो सकता है। किन्तु प्राचीन शास्त्रकार बुध को वैश्य वर्ण का मानते हैं। शनि शूद्रवर्णी है। राहु का अधिपत्य म्लेछों और चाण्डालों पर है और केतु अंत्यजवर्णी है। सत्त्वगुणी ग्रहों में चंद्रमा, सूर्य और गुरु आते हैं। बुध और शुक्र रजोगुणी ग्रह  हैं तथा मंगल और शनि तमोगुणी ग्रह  हैं।

चोर की जाति बताने में ग्रहों के वर्णों का उपयोग किया जाता है।

ग्रहों की अवस्था 

शास्त्रकारों ने ग्रहों कि दस अवस्थाएं मानी हैं, परन्तु किन्हीं आचार्यों ने नौ अवस्थाएं भी मानी हैं।

मूल त्रिकोण राशि में अपनी उच्च राशि का ग्रह प्रदीप्तावस्था में होता है। अपने ही ग्रहों में (स्वगृही) हो तो स्वस्थ, मित्र के गृह में हो तो मुदित, शुभ ग्रह के वर्ण में हो तो शांत, दीप्त किरणों से युक्त हो तो शक्त, ग्रहों से युद्ध में पराजित हो तो पीड़ित, शत्रुक्षेत्रीय (शत्रु राशि में) हो तो दीन, पाप ग्रह  के वर्ण में हो तो खल, अपनी नीच राशि में हो तो भीत और अस्त ग्रह को विकल कहा जाता है।

मित्र ग्रहों की राशि में स्थित ग्रहों की संज्ञा 'बाल' होती है। मूल त्रिकोण में स्थित ग्रह  की संज्ञा 'कुमार' होती है। अपनी उच्च राशि में स्थित होने से ग्रह की 'युवराज' संज्ञा होती है और शत्रु की राशि में स्थित होने पर ग्रह की संज्ञा वृद्ध मानी गई है।

ग्रह अपनी अवस्था के अनुसार ही फल प्रदान करते है। 'बालक' संज्ञा वाला ग्रह सुख देता है। 'कुमार' हो तो अच्छा आचरण प्रदान करता है। यौवनावस्था में राज्याधिकार दिलाता है और वृद्धावस्था में हो तो ऋण या रोग प्रदान करता है।

ग्रहों के रस एवं काल 

जातक की किस प्रकार के भोज्य पदार्थों में रूचि है या रहेगी, इसका ज्ञान ग्रहों के रस द्वारा किया जाता है। प्रश्नकाल में लग्नेश के तुल्य या लग्न नवांशपति के कालतुल्य समय का ज्ञान किया जाता है। जातक प्रायः प्रश्न करते हैं कि कितने समय तक मेरा अमुक कार्य हो जायेगा या अमुक रोगी कब ठीक होगा? ग्रहों के काल का उपयोग ऐसा विचार करने में किया जाता है। दैवज्ञ को चाहिए की लग्नाधिपति और नवांशपति के सम कालतुल्य और देश, काल एवं परिस्थिति का विचार कर समय का निर्धारण करें।

चंद्रमा, सूर्य, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध क्रम से नमकीन, कटु, कषाय, मधुर, तिक्त, खट्टा और मिश्रित रसों के स्वामी हैं।

अयन का स्वामी सूर्य, वर्ष का शनि, ऋतु का बुध, मास का गुरु, पक्ष का शुक्र, दिन का मंगल और घटी का अधिपति चंद्रमा होता है।

मंगल युवा है, बुध बाल है, चंद्रमा और शुक्र प्रौढ़ है तथा शनि, गुरु और सूर्य वृद्ध हैं।

ग्रहों के सम्बन्ध 

ग्रहों के चार प्रकार के सम्बन्ध माने जाते हैं। किन्हीं आचार्यों ने पांच प्रकार के सम्बन्ध भी कहे हैं।
  1. दो ग्रहों में परस्पर राशि-परिवर्तन का योग हो-अर्थात् 'क' ग्रह  'ख' ग्रह की राशि में बैठा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह की राशि में बैठा हो-तो यह अति उत्तम सम्बन्ध होता है। 
  2. जब दो ग्रह परस्पर एक-दूसरे को देख रहे हों अर्थात् 'क' ग्रह 'ख' ग्रह को देख रहा हो और 'ख' ग्रह 'क' ग्रह को तो यह मध्यम सम्बन्ध माना जाता है। 
  3. दोनों ग्रहों में से एक ग्रह दूसरे ग्रह की राशि में बैठा हो और दोनों में से एक दूसरे ग्रह को देखता हो तो यह तीसरा सम्बन्ध माना जाता है। 
  4. जब दोनों ग्रह एक ही राशि में संयुक्त होकर बैठें हों तो यह चौथे प्रकार का सम्बन्ध होता है। इस प्रकार के सम्बन्ध को अधम माना जाता है। 
  5. जब दो ग्रह एक-दूसरे से त्रिकोण (पांचवे-नवें) स्थान पर स्थित हों तो यह मतान्तर से पांचवां सम्बन्ध होता है। 
भावों के स्थिर कारक ग्रह 

सूर्य लग्न, धर्म और कर्म भाव का, चंद्रमा सुख भाव का, मंगल सहज और शत्रु भाव का, बुध सुख और कर्म भाव का, गुरु धन, पुत्र, कर्म और आय भाव का, शुक्र स्त्री भाव का तथा शनि शत्रु, मृत्यु, कर्म और व्यय भाव के कारक ग्रह  हैं। 

आत्मादि चर कारक ग्रह 

सूर्यादि नौ ग्रहों में ग्रह स्पष्ट तुल्य अंशों में अधिक हो अर्थात् अंश वाला हो, वह आत्मकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह अमात्यकारक, उससे कम अंशों वाला ग्रह भ्रातृकारक, उससे कम अंशों वाला मातृकारक, उससे कम अंशों वाला पितृकारक, उससे कम अंशों वाला पुत्रकारक, उससे कम अंशों वाला पितृकारक, उससे कम अंशों वाला पुत्रकारक, उससे कम अंशों वाला जातिकारक तथा उससे भी कम अंशों वाला स्त्रीकारक कहा गया है। 

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