Friday, December 30, 2016

षोडश योग

षोडश योगों के विचार के बिना वर्ष कुंडली का अध्ययन अधूरा ही रहता है। षोडश यानि सोलह योगों का निर्माण लग्नेश तथा कर्मेश की पारस्परिक स्थिति के आधार पर बनता है। वर्ष लग्न पद्धति मूलतः यवनों में प्रचलित थी। उन्हीं के द्वारा भारत में लाई जाने के कारण इन योगों के नाम अरबी-फ़ारसी भाषा के ही हैं।
वर्ष कुंडली में निम्न सोलह योग बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं:-
इक्कबाल योग  - यदि वर्षकुण्डली में सभी ग्रह केन्द्र (१, ४, ७, १०) तथा पणफर (२, ५, ८, ११) स्थानों में (अष्टम स्थान को छोड़कर) पड़े हों यानि ३, ६, ८, ९, व १२वें स्थान में कोई ग्रह न हो तो इक्कबाल योग होता है। यह योग सुख, यश, धन, प्रगति, संतान-प्राप्ति एवं भाग्यवृद्धि का परिचायक है।

इन्दुवार योग - वर्षकुण्डली में सभी ग्रह आपोक्लिम (३, ६, ९, १२) स्थानों में हों तो इन्दुवार योग होता है। इस योग के होने से सामान्य सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु वर्ष-भर चिंता व परेशानी बनी रहती है। 

इत्थशाल योग - इस योग को समझने के लिए ग्रहों की गति एवं राशिगत अंशों पर ध्यान देना होगा। कुछ ग्रह शीघ्रगामी होते हैं तो कुछ मंदगति। मंदगति ग्रह के राशिगत अंश अधिक हों और शीघ्रगति ग्रह के अंश कम हों, वर्ष के मध्य किसी भी समय शीघ्रगति ग्रह अधिक अंश चल कर मन्दगति ग्रह के अंश के बराबर जायें तो इस प्रकार शीघ्रगति ग्रह मंदगति ग्रह को उसके अंश के बराबर पहुँच कर उसे अपना तेज देता है। इसे इत्थशाल योग कहते हैं।  
 
उदहारण - सूर्य ३ राशि ८ अंश तथा मंगल ३ राशि १२ अंश पर हैं, सूर्य १ दिन में १ अंश चलता है। मान लीजिये मंगल की उस समय की चाल ४५ कला प्रतिदिन है। १६ दिन में सूर्य १६ अंश चल कर ३ राशि २४ अंश हो जायेगा तथा मंगल १६ दिन में १६ x ४५ = ७२० कला या १२ अंश आगे बढ़कर ३ राशि २४ अंश हो जायेगा। 
 
परन्तु इत्थशाल योग में कुछ दशाएं आवश्यक हैं -
 
क)  दोनों ग्रहों में से एक लग्नेश होना चाहिये।
ख) दोनों ग्रह एक-दूसरे को देखते हों। 
ग) दोनों ग्रह दीप्तांश के भीतर हों। 
 
दोनों  ग्रहों में मूलतः ३० कला से कम का अंतर हो तो पूर्ण इत्थशाल योग बनता है। लग्नेश का प्रत्येक भाव के स्वामी के साथ इत्थशाल हो सकता है। जिस भावेश (कार्येश) का लग्नेश के साथ इत्थशाल होगा, उस भाव का फल वर्ष में अवश्य घटित होगा। षष्ठेश, अष्टमेश, तथा द्वादशेश का लग्नेश से इत्थशाल हो तो वर्ष में इन भावों से सम्बन्धित अशुभ घटनाएं (रोग, मृत्यु, व्यय, शत्रुभय) अधिक होंगी। इसके विपरीत द्वितीयेश, पंचमेश, नवमेश, व एकादशेश से इत्थशाल होना शुभ है। 
 
इसराफ़ योग - यह इत्थशाल योग से विपरीत है। इसके अन्तर्गत तीन आवश्यक दशाएं तो वे ही हैं जो इत्थशाल योग में हैं परन्तु तीव्रगामी ग्रह के अंश मन्द ग्रह से अधिक होते हैं, जिससे तीव्रगामी ग्रह मन्दगति ग्रह से अधिक दूर होता चला जाता है। अशुभ भावों के स्वामी से इसराफ़ योग शुभ होता है क्योंकि इसराफ़ योग अशुभ भावों के अशुभ फल की हानि (नष्ट) करता है, जैसे रोग-हानि, मृत्यु-हानि व व्यय-हानि यानि रोग न हो, मृत्यु न हो, व्यय न हो आदि। शुभ भावों के स्वामी से भी इसराफ़ योग इतना हानिकारक नहीं है। 
 
नक्त योग - जिस भाव के सम्बन्ध में विचार करना हो, उस भाव का स्वामी (कार्येश) व लग्नेश एक-दूसरे को न देखते हों, परन्तु इन दोनों के बीच में एक तीव्रगामी ग्रह हो, जो दोनों को देखता हो, बीच वाला ग्रह पीछे वाले ग्रह से तेज ले कर आगे वाले ग्रह को देता है। इस योग को नक्त योग कहते हैं। इससे कार्यसिद्धि किसी अन्य व्यक्ति के सहयोग से होती है। 
 
यमय योग - इस योग में लग्नेश व कार्येश दीप्तांश के भीतर हो, पर दृष्टि न हो। इन दोनों के बीच में तीसरा मंद ग्रह हो, जो दोनों को देखता हो। यह मंद ग्रह पीछे वाले ग्रह से तेज लेकर आगे वाले ग्रह को देता है। इससे भी कार्य तीसरे व्यक्ति के सहयोग से होता है। 
 
मणऊ योग - लग्नेश व कार्येश के इत्थशाल में बाधा डालने वाला योग मणऊ योग है। शनि या मंगल, जिसकी दोनों में से एक पर शत्रु दृष्टि हो तथा उनके दीप्तांश के भीतर हो तो यह पाप ग्रह इत्थशाल योग में खलनायक का कार्य करता है। यह योग अशुभ एवं कार्यनाशक है। 
 
कम्बूल योग - जब लग्नेश व कार्येश का इत्थशाल हो और चंद्रमा दोनों में से किसी एक से भी इत्थशाल करे तो कम्बूल योग होता है। यदि दोनों ग्रह उच्च या स्वराशिस्थ हों तो उत्तम कम्बूल योग तथा दोनों नीच या शत्रुक्षेत्री हों तो अधम कम्बूल योग, परन्तु एक उच्च या स्वक्षेत्री और एक नीच या शत्रुक्षेत्री और एक नीच या शत्रुक्षेत्री हो तो माध्यम कम्बूल योग होता है। 
उत्तम कम्बूल  योग लग्नेश और कार्येश के इत्थशाल योग के शुभ फल की वृद्धि करता है। 
 
गैर कम्बूल योग -  जब चन्द्रमा लग्नेश कार्येश को नहीं देखता हो, अपनी राशि के अंतिम अंशों में हो और अपनी राशि में जाकर किसी अन्य (गैर) बली ग्रह से कम्बूल करे तो गैर कम्बूल योग होता है। यह योग भी तीसरे व्यक्ति की सहायता से कार्यसाधक है। 
 
खल्लासर योग - लग्नेश और कार्येश में इत्थशाल हो, पर चन्द्रमा शून्यमार्गी (वह ग्रह जो न उच्च का है न नीच का, न शुभ ग्रह दृष्ट हो न ही अशुभ ग्रह दृष्ट हो न मित्र ग्रही हो और न शत्रु ग्रही हो, यानि एकाकी असम्बद्ध हो) हो, लग्नेश या कार्येश से कम्बूल न करे और न ही किसी अन्य ग्रह से गैर कम्बूल करे तो या योग खल्लासर कहलाता है। यह योग कार्य को बिगाड़ने वाला होता है। 
 
रद्द योग - यदि लग्नेश अथवा कार्येश जिनका इत्थशाल हो, वक्री, अस्तंगत, नीच अथवा ६, ८, १२वें घर का स्वामी हो तो वह कार्य को नष्ट (रद्द) करता है। यह योग प्राणघातक, शत्रुओं को बढ़ाने वाला एवं उन्नति में बाधक है। 
 
दुफालि कुत्थ योग - इत्थशाल करने वाले लग्नेश व कार्येश में से मंदगति ग्रह बली (उच्च, स्वराशिस्थ, वर्गोत्तम) हो, पर तीव्रगामी ग्रह में ये गुण न हो (निर्बल हो) तो यह योग होता है। इसमें भी कार्यसिद्धि होती है, पर सफलता की गति धीमी होती है। 
 
दुत्थ कुत्थीर योग - यदि लग्नेश व कार्येश में इत्थशाल होते हुए भी दोनों निर्बल हों तो दुत्थ कुत्थीर योग होता है। इसमें भी तीसरे व्यक्ति की सहायता से कार्य होता है।  
 
तम्बीर योग - जब लग्नेश व कार्येश में इत्थशाल न हो, उनमें से एक ग्रह राशि के अंतिम अंशों में रह कर अगली राशि में किसी बली ग्रह से इत्थशाल करे तो तम्बीर योग होता है। इससे वर्ष में सुख-शान्ति बढ़ती है। 
 
कुत्थ योग - वर्षकुण्डली में जब लग्नेश व कार्येश केन्द्र तथा पणफर में स्थित हो, पंचवर्गी तथा हर्ष बल के अनुसार बली हो तो कुत्थ योग होता है। इस योग से वर्ष में सफलता, उन्नति तथा हर्ष होता है। 
 
दुरुफ योग - यह कुत्थ योग से विपरीत है। जब वर्षकुण्डली में सभी ग्रह आपोक्लिम में स्थित हों या पंचवर्गी हर्ष बल के अनुसार निर्बल हों तो दुरुफ योग होता है। यह योग वर्ष भर संताप देने वाला, कष्टदायक तथा प्राणघातक है।
इस प्रकार वर्षकुंडली का फलादेश करते समय उक्त सोलह योगों पर विचार करना भी आवश्यक है। 

यह अनमोल कृति ज्योतिष के विद्वान "श्री रघुनन्दनप्रसाद जी" की अनमोल कृति है जिसका प्रकाशन इस ब्लॉग के पड़ने वालों के ज्योतिष-ज्ञान में वृद्धि के लिए किया गया है। 

Tuesday, December 6, 2016

Astrology Basics

TIME LIMIT

A Day = 24 hours
An Hour = 60 minutes
A Minute = 60 seconds
1 Day = 86,400 seconds

THE HINDU TIME TABLE

A day = 60 ghatikas 
A Ghatikas = 60 vighatikas
A Vighati = 60 liptas
A Lipta = 60 viliptas
A Vilipta = 60 paras
A Para = 60 tatparas
1 Day = 46,656,000,000 tatparas

Time is eternal. It cannot be measured. But, a change may happen in a thing, as mud becoming a pot by the labour of a potter. This new form may be said to have started a certain particular time and its destruction by being broken etc. also may be indicated by a certain time. This duration or interim period when it existed as a pot, is the limitation of time for the thing. 

Astrology may be divided into six divisions: 
  1. Vegetable Horoscopy - This indicates the seasons and mostly relates to crops and weather conditions.
  2. Animal Horoscopy - This indicates animals, their increase, decrease etc. 
  3. Human Horoscopy - This speaks of human beings.
  4. Mundane Horoscopy - This refers to countries and places.
  5. Horary Horoscopy - This type of horoscopy deals with knowing future through prasna or questioning time.
  6. Electional Horoscopy or Muhurt - This speaks of methods of selection of auspicious time for performance of important functions in life. 
As can be seen Moon takes 27 days to pass through the entire Zodiac. Sun takes about a month to pass through each Rasi. But the next month will not commence unless the New Moon has taken place and this will mean roughly another two days and a quarter making a total of 29-1/4 days. The difference in the Lunar and Solar months would become too great. Therefore, in Lunar System once in about three years, a year gets thirteen months to bring it into conformity with the Solar years.
 
The year is divided into 12 months. 
 
The Lunar months are:-
  1. Chaitra
  2. Vaisakha
  3. Jyestha
  4. Ashada
  5. Sravana
  6. Bhadrapada
  7. Aswina
  8. Karthika
  9. Margashira
  10. Pushya
  11. Magham
  12. Phalguna
When Moon finishes a round and Amavasya or New Moon occurs, a month ends and the next begins from the first day after the New Moon.

The months got their names from the fact that on the Full Moon day, during the month of Chaitra Nakshatra will be Chittra. 
  1. Vaisakha - Visakha
  2. Jyestha - Jyestha
  3. Ashada - Purvashada
  4. Sravana - Sravana
  5. Bhadrapada -Bhadrapada
  6. Aswina - Aswini
  7. Karthika - Kruttika
  8. Margashira - Mrigasira
  9. Pushyam - Pushyami
  10. Magha - Makha
  11. Phalguna - Uttara Phalguni
The Solar year has also twelve months called - 
  1. Chittrai 
  2. Adi
  3. Alpisi
  4. Thai
  5. Vykasi
  6. Avani
  7. Karthikai
  8. Masi
  9. Ani
  10. Perattasi
  11. Margali
  12. Panguni
These months are calculated according to the entry of Sun into each Rasi from Mesha. 

Each year is said to produce certain effects independently on its own and that refers not to individual  but has a distinct bearing on mundane horoscopy with particular reference to general masses. 

Name of Planet              Takes to move in a sign or Rasi
Sun - Surya                           about one month
Moon - Chandra                     about 2 1/4 days
Mars - Mangal or Kuja            about 45 days
Mercury - Budha                    about a month
Jupiter - Guru                        about a year
Venus - Sukra                        about a month
Saturn - Sani                         about 2 1/2 years (Two and Half Year)
Dragon's Head - Rahu/
Ascending Node                     about 1 1/2 years (One and Half Year)
Dragon's Tail - Kethu
Descending Node                   about 1 1/2 year (One and Half Year)
 
Sun and Moon never have a retrograde motion but have an accelerated or retarded motion. 
 
Rahu and Kethu have always a retrograde motion. 
 
All other planets have direct, retrograde, accelerated or retarded motion.
 
This extract has been taken from "Indian Astrology" written by great astrologer Sh. C.J. Krishnasamy.