Sunday, September 28, 2014

विशिष्ट ग्रह योग

किसी भी ग्रह की या ग्रहों की विशेष प्रकार की स्थिति को ज्योतिष में योग कहा जाता है। योग का शाब्दिक अर्थ जोड़ या मिलना होता है। इन योगों में भी ग्रह की स्थान विशेषगत राशि से युति या योग होता है। योग में निर्दिष्ट ग्रह उस स्थिति में हो तो योग का फल मिलता है यदि निर्दिष्ट ग्रह ग्रहान्तर से युक्त है तो योग नहीं बनता। हाँ, उसके साथ मित्र या अनुकूल शुभ ग्रह रहता  उतना बाधित नहीं होता। 

सारे योगों - जिनमे यवनाचार्यों एवं विदेशियों द्वारा बताये गए योगों की संख्या तो बहुत बड़ी है किन्तु यहाँ हम जिन योगों की चर्चा करेंगे वे अत्यंत प्रसिद्ध है तथा ज्योतिष में रुचि रखने वालों को उनका ज्ञान होना ही चाहिए।

यवनादिक पूर्वाचार्यों ने नाभस नाम के १८०० योग विस्तारपूर्वक वर्णन किये हैं उसमें से जो मुख्य ३२ योग हैं जिनमें सचराचर जगत के लोगों का प्रसव होता है वे ३२ योग नौका, कुट , छत्र , चाप, अर्धचन्द्र, वज्र, यव, कमल, वापी, शकट, पक्षि, गदा, श्रृंगाटक, हल, चक्र, समुद्र, यूप, शर, शक्ति, दण्ड , माला, सर्प, रज्जू , मूसल, नल, गोल, युग, शूल, केदार, पाश, दामिनी, वीणा हैं।

इन योगों के चार भेद कर लेते हैं जिनकी संज्ञा - आकृतिआश्रय, दल एवं संख्या के नाम से की जाती है। आकृति वर्ग में आने वाले योग ठीक उसी पद्धति पर तारामंडल का मेष, वृष, मिथुन आदि नामों से वर्गीकरण किया गया है। नामों की सार्थकता देखते हुए इनसे आगे के योग भी अपना स्वतंत्र अर्थ देते हैं किन्तु उनकी गुणात्मकता में परिवर्तन हो जाता है।

आकृति वर्ग  में आने वाले योग
नौका, कूट, छत्र, चाप, अर्धचन्द्र, वज्र, यव, कमल, वापी, शकट, पक्षी,  गदा, हल, श्रृंगाटक, चक्र, समुद्र, यूप, शर, शक्ति, दण्ड  - बीस आकृति नाम की संज्ञा के हैं। इन योगों में जन्म लेने वाले पुरुष विशेष कर सुखी, भाग्यवान्, नृप वल्लभ धनवान आनन्द भोगने वाले होते हैं। ये योग जिस व्यक्ति की कुंडली में बनते हैं, वह आनंदी प्रकृति का, सांसारिक सुख व ऐश्वर्य का उपभोक्ता, राजपूजित व प्रसिद्ध व्यक्ति होता है।

दल वर्ग में आने वाले योग
माला और सर्प दोनों योग फल संज्ञक हैं। इन योगों में जन्म लेने वाले व्यक्ति जीवन की धूप-छाँव में कभी सुख तो कभी दुःख का अनुभव करते हैं, कभी संगति, संबंध या अन्य आधारों के कारण दूसरों के भाग्य संपन्नता का उनके दुःखों  का उपभोग करते हैं कभी स्वार्जित सुखों और विषमताओं का अुनभव करते हैं।

आश्रय वर्ग में आने वाले योग
रज्जू, मूसल और नल नाम के तीन योगों में जन्म लेने वाले व्यक्ति भाग्यवान्, प्रसिद्ध, सुखी, धनिक, उदार तथा राज एवं समाज में सम्मानित होता है।

संख्या वर्ग में आने वाले योग 
गोल, युग, शूल, केदार पाश, दामिनी, वीणा नाम के सात योग व्यक्ति को परोपजीवी बनाते हैं। इन योगों में जन्म लेने वाला व्यक्ति अपने स्वार्जित या स्वकृत पुण्यों का फल स्वतंत्र रूप से नहीं भोगता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति यथासंभव सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हैं किन्तु दूसरे के यहाँ और पराश्रित होकर ही (पर पुरुषों की सेवाचाकरी करने वाले होते हैं) जैसे कोई घोड़ा किसी करोड़पति के अस्तबल में रहकर सब सुखों को प्राप्त करता है।

आगे इसी वर्गीकरण के आधार पर ही इन योगों की विस्तार से चर्चा की जाएगी। ध्यान रखने योग्य बात है कि इन योगों में राहु केतु नहीं गिने जाते हैं। योग कर्त्ता ग्रह अन्य ग्रह से युत हो जावे तो योग का फल नहीं होता है।

आकृति वर्ग  में आने वाले योग (विस्तार से) 
  1. नौका योग - लग्न को आदि ले सात स्थान १, २, ३, ४, ५, ६, ७ में क्रम से सर्व ग्रह गये हों तो नौका नाम का योग होता है। यह योग जिसके जन्म समय में होता है वह जल के संबंध से जल मार्ग के संबंध से उपजीवीका करने वाला (जहाज नाव आदि के द्वारा जल मार्ग से व्यापार करने वाला) तथा सोडा वाटर, दवाई, मद्य आदि पानी के समान तरल पदार्थों का विक्रेता, ऐश्वर्यवान्, उद्योगी, हँसमुख, मान प्रतिष्ठा वाला बलवान, कृपण और लोभी होता है। 
  2. कूट योग - सप्तम स्थान से सात स्थान में अनुक्रम से ७,८,९,१०,११, १२,१ सर्वग्रह गये हों तो कूट योग होता है। जिस व्यक्ति की कुंडली में यह योग होता है वह क्रूर, झूठा, पाखण्डी, चालाक, जंगली और पहाड़ों की ख़ाक छानने वाला, कारावास भोगने वाला होता है। कोई आश्चर्य नहीं यदि यह चोर या डाकू हो।
  3.  छत्र योग -  चौथे स्थान से दसवें स्थान तक के सात स्थानों में ही सारे ग्रह रहें तो छत्र योग होता है। इस योग वाला व्यक्ति दीर्घायु होता है होता है। बचपन और वृद्धावस्था परम उत्कृष्ट और सुखकर रहती है। वैभव सम्पन्न, उदार हृदय, बलिष्ठ शरीर, दयावान, राज्य शासन से लाभ प्राप्त करने वाला होता है। 
  4. चाप योग - दशम स्थान से चौथे स्थान तक के (१०, ११, १२, १, २, ३, ४) सात स्थानों में सारे ग्रह स्थित हों तो चाप योग बनता है। चाप योग में जन्म लेने वाले व्यक्ति लूटेरे, ठग  धूर्त किस्म के होते हैं। क्रूरता, असत्य और निर्धनता उनके स्वभाव में रहती है। समाज में उनका कोई महत्व नहीं होता, इसलिए एकान्त स्थानों में अपने जैसे अपराधी वृत्ति के लोगों के बीच रहते है। 
  5. अर्धचन्द्र योग - केंद्र स्थानों को छोड़कर शेष स्थानों (२,३,५,६,८,९,११,१२) में से पाँच स्थानों में ही क्रमशः सारे ग्रह जायें तो अर्धचन्द्र नाम का योग होता है।   यह योग ८ प्रकार का होता है।  दूसरे भाव से आठवें भाव तक सर्व ग्रह जायें तो पहला,  ऐसे ही तीसरे भाव से नौवें भाव तक २, पांचवें भाव से ग्यारहवें भाव तक ३, छठे भाव से बारहवें भाव तक  ४, आठवें भाव से दूसरे भाव तक ५, नववें भाव से तीसरे भाव तक ६, ग्यारहवें भाव से पाँचवें स्थान तक ७, और बारहवें भाव से छठे भाव तक सर्व ग्रह जायें तो आठवें प्रकार का योग होता है। यह योग जिनके जन्म समय में होता है वह सुन्दर, बलिष्ठ, भाग्यवान्, राज्यपक्ष के विश्वस्त, सुखी तथा धनी होते हैं। 
  6. वज्र योग - लग्न व सप्तम (१-७) इन दोनों स्थानों में सर्व शुभ ग्रह और चतुर्थ व दशम (४-१०) स्थान में सर्व पाप ग्रह गए हो तो वज्र नाम का  होता है।  यह योग जिसके होता है वह पूर्व और अंत्य वय में सुखी, भाग्यवान,  शूर, निरोगी, मध्य वय में निर्धन और दुष्टों से विरुद्ध रहने वाला होता है।
  7. यव योग - लग्न व सप्तम स्थान में सर्व पापग्रह और चतुर्थ व दशम स्थान में सर्व शुभ ग्रह गए हों तो यव नाम का योग होता है। यह योग जिसके होता है वह जप टप व्रत नियम में प्रीति रखने वाला मध्य वय में पुत्र, धनादि सुख युत दाता और स्थिर चित्त वाला  शुद्ध पुरुष होता है। 
  8. कमल योग - लग्न, सप्तम और चतुर्थ दशम इन चारों स्थानों शुभ व पाप मिश्र ग्रह गये हो तो कमल नाम का योग बनता है। यह योग जिसके होता है वह विख्यात यश कीर्तिवान गुणी दीर्घायु सुन्दर रूपवान शुभकार्य कर्त्ता राजा या राजा के समान अत्यंत सुखी पुरूष होता है। 
  9. वापी योग - पणफर और आपोक्लिम स्थान २, ५, ११, ३, ६,९, १२ में  ही सर्व ग्रह गए हों तो वापी योग होता है। यह योग जिसके होता है वह धन संपादन करने में चतुर, अचल धनवान, सुतृप्त, विभव भोक्ता, आनंदी स्वभाव का, सुखी अन्नदाता और नाती के सुख से सदा प्रसन्न रहने वाला होता है। 
  10. शकट योग - लग्न और सप्तम इन दो केंद्र स्थान में ही सर्वग्रह गये हों तो शकट नाम का योग होता है।  यह  योग जिसके होता है वह रोगी स्त्री से दुखी (दुष्ट स्त्री वाला) मूर्ख गाड़ी के धंधे से जीविका चलाने वाला धनहीन और कुटुंब व मित्रों से रहित होता है। 
  11. पक्षी योग - चतुर्थ दशम (४, १०) इन दो केंद्र स्थान में ही सर्व ग्रह गए हों तो पक्षी नाम का योग बनता है। यह योग जिसके होता है वह सदैव फिरने वाला मुर्ख, निकृष्ट वृत्ति से जीविका चलाने वाला  दूत (चपरासी, हलकारा, सिपाही किवा वकील वगैरा) का काम करने वाला हास्य मुख कलह प्रिय (लड़ाई का शौकीन) होता है। 
  12. गदा योग - किसी भी एक के आगे के दूसरे ऐसे दो केन्द्र स्थान में सर्वग्रह गए हों तो ४ प्रकार का गदा योग होता है। जैसे प्रथम और चतुर्थ स्थान में सर्वग्रह गए हों तो प्रथम चौथे और सातवें स्थान में सर्वग्रह गए हों तो  दूसरे सातवें और दशम स्थान में सर्वग्रह गए हों तो तीसरे दशम और लग्न में सर्वग्रह गए हों तो चौथा गदा योग होता है। यह योग जिसके होता है वह प्रतिदिन उद्योग धंधा करने वाला होने से धनवान होता है तथा यज्ञ कर्त्ता शास्त्रज्ञ गायन कला में निपुण धनरत्न ऐश्वर्यादि समृद्धि संपन्न होता है। 
  13. श्रृंगाटक योग - लग्न के बिना अन्य स्थानों में गये हुये संपूर्ण ग्रह परस्पर नवम पंचम में गये हों तो श्रृंगाटक नाम का योग बनता है। यह योग तीन प्रकार का होता है। २, ६, १० में सभी ग्रह गयें हो तो प्रथम ३, ७, ११ वें स्थान में सर्व ग्रह जायें तो दूसरे और ४, ८, १२ स्थान में ही सर्वग्रह जायें तो तीसरे प्रकार का होता है।  इस योग में जो जन्मता है वह कलह प्रेमी युद्धाभिलाषी निरन्तर सुखी नृपप्रिय सुरूपवान धनवान पर स्त्री का द्वेषी होता है। 
  14. हल योग - लग्न, नवम, पंचम (१, ५, ९) इन तीनों स्थानों में ही सर्वग्रह गयें हों तो हल योग होता है।  इस योग में जो जन्मते हैं वह बहुभोजी, दरिद्री कृषिकर्म कर्त्ता दुःखी उदासीन रहने वाला, स्वजन बंधुओं से परित्यक्त और दूत का काम करने वाला होता है। 
  15. चक्र योग - लग्न को आदि लेकर एक-एक राशी के अंतर से १, ३, ५, ७, ९, ११ इन छः स्थानों में ही सर्वग्रह गये हों तो चक्र नाम का योग बनता है। यह योग जिसके जन्म काल में होता है वह महाराजाधिराज (बड़ा राजा) यशस्वी सर्व संपत्तिवान होता है। 
  16. समुद्र योग -  धन भाव को आदि लेकर एक-एक राशी के अंतर से २, ४, ६, ८, १०, १२ इन छः स्थानों में ही सर्व ग्रह गये हों तो समुद्र नाम का योग होता है। यह योग जिन जातकों में होता है वह बहुत बड़ा धन रत्नादि समृद्धशाली स्त्रियों का प्यार परन्तु पुत्रहीन स्थिर चित्त का श्रेष्ठ स्वभाव वाला होता है। 
  17. यूप योग - लग्न, द्वित्य, तृतीय और चतुर्थ (१, २, ३, ४) इन चारों स्थानों में ही सभी ग्रह गए हों तो यूप योग होता है। इस योग में जन्म पाने वाला ज्ञानी आत्मवेत्ता यज्ञादि सत्कर्म कर्त्ता त्यागी सत्यवादी सुखी व्रत नियम जप तप मंत्र निरत और दाता पुरुष होता है। 
  18. शर योग - चतुर्थ, पंचम, षष्टम और सप्तम (४, ५, ६, ७) इन चारों स्थानों में ही सभी ग्रह गए हों तो शर योग होता है। इसमें जन्म पाने वाला चोर व्याघ (पशु पक्षी हिंसक पारधी) मांसाहारी दुष्ट स्वभाव का होता है। 
  19. शक्ति योग - सप्तम, अष्टम, नवम, दशम (७, ८, ९, १०)  इन स्थानो में ही सभी ग्रह हों तो शक्ति योग होता है। इस शक्ति योग में जन्म पाने वाला जातक, धनहीन उन्मत्त दुःखी नीच आलसी दीर्घायु युद्ध प्रेमी और भाग्यवान होता है। 
  20. दंड योग - दशम एकादशम द्वादशम व लग्न (१०,११, १२, १) इन चार स्थानों में ही सर्वग्रह गये हों तो दंड योग बनता है। यह जिनके जन्म काल में होता है वह विपरीत स्वाभाव का, कठोर मन का धनहीन विलल्ज दुःखी अच्छे पुरुष जिससे घृणा करें वैसा नीच और दुष्ट वृत्ति से पेट भरने वाला होता है। 
दल वर्ग में आने वाले योग (विस्तार से)
  1. स्रक् (माला) योग - केंद्र स्थान (१, ४, ७, १०) में सर्व ग्रह गये हों तो स्रक् नाम का योग होता है। यह योग जिसके होता है वह सदा सुखी वाहन वस्त्र धन सुख से युत आनंदी और अनेक स्त्रियों का सुख भोगने वाला होता है।
  2. सर्प योग - केंद्र स्थान (१, ४, ७, १०) में सर्व पाप ग्रह गये हों तो सर्प नाम का योग होता है। यह योग जिसके होता है वह दुष्ट स्वभाव का अस्थिर प्रकृति का सदा दुःखी क्रोधी दीन दूसरों के घर का टुकड़ा खा कर निर्वाह करने वाला भिखारी नर होता है। 
आश्रय वर्ग में आने वाले योग (विस्तार से)
  1. रज्जू योग - स्थिर राशि २, ५, ८, ११ में ही सर्वग्रह गये हों तो रज्जू योग होता है। इस योग में जो जन्मता है वह अधम पुरुषों से प्रीति करने वाला सुरुपवान परदेस में धन प्राप्त करने वाला क्रोधी दुष्ट स्वभाव का मनुष्य होता है। 
  2. मूसल योग - चर राशि १, ४, ७, १० में ही सर्व ग्रह गये हों तो मूसल योग होता है। यह योग जिसके जन्म में हो वह मान मर्यादा को पहचानने वाला उद्योगी राजा की कृपा संपादन कर्त्ता प्रसिद्ध धनवान और बहुत नौकर चाकर व पुत्रों वाला दृढ़मानी होता है। 
  3. नल योग - द्विस्वभाव राशि ३, ६, ९, १२ में ही सभी ग्रह गये हों तो नल नाम का योग बनता है। यह योग जिस जातक की जन्मकुंडली में होता है वह बड़ा कपटी दुर्बल देह का क्रूर धन संग्रह कर्त्ता बड़ा चतुर कुटुम्बियों से प्रेम रखने वाला सुन्दर रूपवान होता है। 
संख्या वर्ग में आने वाले योग  (विस्तार से) 
  1. गोल योग - एक ही स्थान में सर्वग्रह गये हो तो गोल नाम का योग होता है। इस योग में जो जन्म पाता है वह बलवान निर्धन विद्या और मान प्रतिष्ठा से रहित मलिन दीन सदा दुःखी पुरुष होता है। 
  2. युग योग - किन्ही दो स्थानों में ही सर्वग्रह गए हों तो गोल नाम का योग बनता है। इस योग में जिसका जन्म होता है वह पाखण्डी निर्धन जाति से बहिष्कृत भिखारी सुत मान धर्मादि रहित होता है। 
  3. शूल योग -  तीन स्थानों पर सभी ग्रह गए हो तो शूल योग होता है। इस योग में जो जन्मता है वह महाक्रोधी धनहीन, हिंसक शरीर में जख्म लगा हुआ बड़ा शूरवीर और युद्धाभिलाषी होता है। 
  4. केदार योग - चार स्थानों में ही सभी ग्रह गए हों तो केदार नाम का योग बनता है। जिस जातक के यह योग होता है वह खेती के काम में बलवान बहुत मनुष्यों का पालनकर्ता निरालसी धनवान् श्रेष्ठ भाग्यवान् सत्यवादी और बंधुओं पर उपकार करने वाला होता है। 
  5. पाश योग - पाँच स्थानों में ही सभी ग्रह गए हों तो पाश नाम का योग बनता है। यह योग जिसके जन्म काल में होता है वह बंधन पाने वाला प्रपंची बहुत नौकरी वाला साहसी धन प्राप्त करने में चतुर अच्छा वक्ता और पुत्रवान होता है। 
  6. दामिनी योग - छः  स्थानों में ही सभी ग्रह गए हों तो दामिनी योग बनता है। जो इस योग में जन्मते हैं वे पुरूष परोपकारी बहु पशुवान धीर पुत्रवान् सुवर्णरत्ना भारणादियुत प्रख्यात विद्वान व धनवान सुज्ञ पुरूष होता है। 
  7. वीणा योग - सात स्थानों में ही सभी ग्रह गये हों तो वीणा योग होता है। इस योग में जन्मता है वह सुखी धनवान नेता पुरुष बहु भृत्ययुत न्याय मार्ग का ज्ञाता सर्व कर्म में चतुर गीतप्रिय व नृत्य प्रिया होता है। 
ये योग सर्व काल में फल देने वाले होते हैं। 

संत्तान सुख बाधाकारक योग

मंगल एवं गुरु को विशेष रूप से संतान कारक ग्रह माना गया है। पंचम भाव, पंचमेश ग्रह एवं गुरु का जन्म कुंडली में स्थान आदि से संतान संबंधी विशेष योग आदि का निर्णय किया जाता है। 
  1. सूर्य पंचम भाव में नीच तुला राशि का हो तथा नवमांश कुंडली में सूर्य शनि की राशि का हो, अथवा सूर्य  अष्टम  भाव में, शनि पंचम में तथा पंचमेश राहु से युक्त हो, पंचम भाव में राहु शनि आदि सूर्य के साथ हो तो पितृ श्राप के दोष के कारण सन्तान सुख में कमी आती है। 
  2. सूर्य गुरु एवं  पंचमेश राहु, शनि, केतु आदि पाप ग्रहों से युक्त हो।
  3. पंचमेश, पंचम या नवम भाव में चन्द्रमा राहु, शनि या मंगल आदि पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो। 
  4. पंचम भाव में राहु हो और पंचमेश को दूषित करता हो तो सर्प के श्राप का प्रभाव समझे। 
  5. यदि केतु के कारण संतान सुख में कमी हो तो ब्राह्मण का श्राप समझे।