Friday, January 23, 2015

चन्द्र और चन्द्र लग्न का महत्व

दक्षिण भारत को छोड़कर पूरे भारत में प्रत्येक जन्मपत्री में दो लग्न बनाये जाते हैं। एक जन्म लग्न और दूसरा चन्द्र लग्न। जन्म लग्न को देह समझा जाये तो चन्द्र लग्न मन है। बिना मन के देह का कोई अस्तित्व नहीं होता और बिना देह के मन का कोई स्थान नहीं  है। देह और मन हर प्राणी के लिए आवश्यक है इसीलिये लग्न और चन्द्र दोनों की स्थिति देखना ज्योतिष शास्त्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सूर्य लग्न का अपना महत्व है। वह आत्मा की स्थिति को दर्शाता है। मन और देह दोनों का विनाश हो जाता है परन्तु आत्मा अमर है। 

चन्द्र ग्रहों में सबसे छोटा ग्रह है। परन्तु इसकी गति ग्रहों में सबसे अधिक है। शनि एक राशि को पार करने के लिए ढ़ाई वर्ष लेता है, बृहस्पति लगभग एक वर्ष, राहू लगभग १४ महीने और चन्द्रमा सवा दो दिन - कितना अंतर है। चन्द्रमा की तीव्र गति और इसके प्रभावशाली होने के कारण किस समय क्या घटना होगी, चन्द्र से ही पता चलता है।  विंशोत्तरी दशा, योगिनी दशा, अष्टोतरी दशा आदि यह सभी दशाएं चन्द्र की गति से ही बनती है।  चन्द्र जिस नक्षत्र के स्वामी से ही दशा का आरम्भ होता है। अश्विनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक की दशा केतु से आरम्भ होती है क्योंकि अश्विनी नक्षत्र का स्वामी केतु है। इस प्रकार जब चन्द्र भरणी नक्षत्र में हो तो व्यक्ति शुक्र दशा से अपना जीवन आरम्भ करता है क्योंकि भरणी नक्षत्र का स्वामी शुक्र है। अशुभ और शुभ समय को देखने के लिए दशा, अन्तर्दशा और प्रत्यंतर दशा देखी जाती है। यह सब चन्द्र से ही निकाली जाती है। 

ग्रहों की स्थिति  निरंतर हर समय बदलती  रहती है। ग्रहों की बदलती स्थिति का प्रभाव विशेषकर चन्द्र कुंडली से ही देखा जाता है। जैसे शनि चलत में चन्द्र से तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में हो तो शुभ फल देता है और दुसरे भावों में हानिकारक होता है। बृहस्पति चलत में चन्द्र लग्न से दूसरे, पाँचवे, सातवें, नौवें और ग्यारहवें भाव में शुभ फल देता है और दूसरे भावों में इसका फल शुभ नहीं होता। इसी प्रकार सब ग्रहों का चलत में शुभ या अशुभ फल देखना के लिए चन्द्र लग्न ही देखा जाता है। कई योग ऐसे होते हैं तो चन्द्र की स्थिति से बनते हैं और उनका फल बहुत प्रभावित होता है।

चन्द्र से अगर शुभ ग्रह छः, सात और आठ राशि में हो तो यह एक बहुत ही शुभ स्थिति है।  शुभ ग्रह शुक्र, बुध और बृहस्पति माने जाते हैं।  यह योग मनुष्य जीवन सुखी, ऐश्वर्या वस्तुओं से भरपूर, शत्रुओं पर विजयी , स्वास्थ्य, लम्बी आयु कई प्रकार से सुखी बनाता है। 

जब चन्द्र से कोई भी शुभ ग्रह जैसे शुक्र, बृहस्पति और बुध दसवें भाव में हो तो व्यक्ति दीर्घायु, धनवान और परिवार सहित हर प्रकार से सुखी होता है।चन्द्र  से कोई भी ग्रह जब दूसरे या बारहवें भाव में न हो तो वह अशुभ होता है। अगर किसी भी शुभ ग्रह की दृष्टि चन्द्र पर न हो तो वह बहुत ही अशुभ होता है। 

इस प्रकार से चन्द्र की स्थिति से १०८ योग बनते हैं और वह चन्द्र लग्न से ही बहुत ही आसानी के साथ देखे जा सकते हैं।

चन्द्र का प्रभाव पृथ्वी, उस पर रहने वाले प्राणियों और पृथ्वी के दूसरे पदार्थों पर बहुत ही प्रभावशाली होता है। चन्द्र के कारण ही समुद्र मैं ज्वारभाटा उत्पन्न होता है। समुद्र पर पूर्णिमा और अमावस्या को २४ घंटे में एक बार चन्द्र का प्रभाव देखने को मिलता है। किस प्रकार से चन्द्र सागर के पानी को ऊपर ले जाता है और फिर नीचे ले आता है।  तिथि बदलने के साथ-साथ सागर का उतार चढ़ाव भी बदलता  रहता है। 

प्रत्येक व्यक्ति में ६० प्रतिशत से अधिक पानी होता है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है चन्द्र के बदलने का व्यक्ति पर कितना प्रभाव पड़ता होगा।  चन्द्र के बदलने के साथ-साथ किसी पागल व्यक्ति की स्थिति को देख कर इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

चन्द्र साँस की नाड़ी और शरीर में खून का कारक है। चन्द्र की अशुभ स्थिति से व्यक्ति को दमा भी हो सकता है।  दमे के लिए वास्तव में वायु की तीनों राशियाँ मिथुन, तुला और कुम्भ इन पर अशुभ ग्रहों की दृष्टि, राहु और केतु का चन्द्र संपर्क, बुध और चन्द्र की स्थिति यह सब देखने के पश्चात ही निर्णय लिया जा सकता है।

चन्द्र माता का कारक है। चन्द्र और सूर्य दोनों राजयोग के कारक होते हैं। इनकी स्थिति शुभ होने से अच्छे पद की प्राप्ति होती है। चन्द्र जब धनी बनाने पर आये तो इसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता।

चन्द्र खाने-पीने के विषय में बहुत प्रभावशाली है। अगर चन्द्र की स्थिति ख़राब हो जाये  तो व्यक्ति कई नशीली वस्तुओं का सेवन करने लगता है। जातक पारिजात के आठवें अध्याय के १००वे श्लोक में लिखा है चन्द्र उच्च का वृष राशि का हो तो व व्यक्ति मीठे पदार्थ खाने का इच्छुक होता है।  जातक पारिजात के अध्याय ६, श्लोक ८१ में  लिखा है कि चन्द्र खाने-पीने की आदतों पर प्रभाव डालता है।  इसी प्रकार बृहत् पराशर होरा के अध्याय ५७ श्लोक ४८ में लिखा है कि अगर चन्द्र की स्थिति निर्बल हो तो शनि की अंतरदशा में व्यक्ति को समय से खाना नहीं मिलता।

Thursday, January 22, 2015

कुंडली के द्वादश भावों से विचारणीय बातें

प्रथम भाव - प्रथम भाव से जातक के शरीर, रंग, रूप, जाति, आत्मबल, स्वाभाव, आकृति, आयु, सुख-दुःख, विवेक और चरित्र आदि का विचार किया जाता है। 

द्वितीय भाव - द्वितीय भाव से जातक के  धन, कोष, कुल, मित्र, आँख, कान, नाक, स्वर, सौंदर्य, आदतें, संचित पूंजी, क्रय-विक्रय, वाणी, प्रेम आदि का ज्ञान किया जाता है। 

तृतीय भाव - तृतीय भाव से जातक के पराक्रम, छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, शौर्य-धैर्य, दमा-खाँसी, योगाभ्यास, फेफड़े और श्वसन-सम्बन्धी बातों का विचार किया जाता है। 

चतुर्थ भाव - चतुर्थ भाव से जातक के मातृसुख, घर, पशु और वाहन का सुख, सम्पत्ति, अंतःकरण, बाग़-बग़ीचा, जमीन, छल-कपट, निधि, पेट के रोग, उदारता तथा गोद जाने आदि जाने का  विचार किया जाता है।

पंचम भाव - पंचम भाव से विद्या-बुद्धि, प्रबन्ध, संतान, नीति, विनय, देशभक्ति, ख्याति, पाचन-शक्ति, नौकरी छोड़ना, अनायास धन प्राप्ति (लॉटरी , सट्टा इत्यादि) गर्भाशय, मुत्रपिण्ड एवं बस्ति का विचार किया जाता है।

षष्ठम भाव - षष्ठम भाव से जातक के मामा, शत्रु, रोग, भय, झगड़े-मुक़दमे, क़र्ज़ , दुःख, व्रण, गुदास्थान आदि का विचार किया जाता है।

सप्तम भाव - सप्तम भाव से जातक की स्त्री, स्त्री-सुख, दैनिक जीविका, भोग-विलास, जननेन्द्रिय रोग, व्यापार-विवाह, स्त्री का रूप, रंग, शील, चरित्र, बवासीर, तलाक़ आदि का विचार किया जाता है।

अष्टम भाव - अष्टम भाव से जातक की व्याधि, आयु, जीवन-मरण, प्रवास, पुरातत्त्वान्वेषण, पूर्वसंचित द्रव्य, गड़ा धन, पूर्व जन्म, अकाल-मृत्यु, ऋणग्रस्तता, लिंग-योनि, अंडकोष आदि के रोगो का विचार किया जाता है।

नवम भाव - नवम भाव से जातक के भाग्योदय, शील, विद्या, तप, धर्म, धर्म-परिवर्तन, तीर्थ-यात्रा, गुरु, ईश्वर-प्राप्ति, पिता का सुख, दान-पुण्य, मानसिक वृत्ति आदि का ज्ञान किया जाता है।

दशम भाव - दशम भाव से जातक के राज्य, मान, नौकरी, पिता का सुख, प्रभुता, व्यापार, अधिकार, ऐश्वर्या-भोग, कीर्ति-लाभ, नेतृत्व, विदेश यात्रा, आत्मविश्वास आदि का ज्ञान किया जाता है।

एकादश भाव - एकादश भाव से जातक की आय, संपन्नता, वैभव, मोटर, पालिक, संपत्ति, बड़े भाई-बहनों की संख्या, गुप्त धन, लाभ-हानि, स्वतंत्र चिंतन, नौकर आदि के सुख का विचार किया जाता है। 

द्वादश भाव - द्वादश भाव से जातक के व्यय, व्यय का माध्यम, अर्थ-हानि, शत्रु का विरोध, नेत्र-पीड़ा, दंड, व्यसन, शय्या-सुख, अतिरिक्त एवं आकस्मिक व्यय, विपत्तियां, मोक्ष यानि मरने के बाद प्राणी की गति आदि का ज्ञान किया जाता है।

Tuesday, January 13, 2015

कुंडली चक्र

  • कुंडली के प्रथम भाव को लग्न कहा जाता है और उसके स्वामी को लग्नेश या लग्नाधिपति कहते हैं।
  • १, ४, ७, १० भावों को केंद्र स्थान कहते हैं।
  • २, ५, ८, ११, १२ को पणफर ग्रह कहते हैं। 
  • ३,  ६, ९ को आपोक्लिम ग्रह कहते हैं। 
  • ५, ९ को त्रिकोण स्थान कहते हैं।
  • ९वें   को त्रि-त्रिकोण स्थान कहते हैं। 
  • २, ८ को मारक स्थान कहते हैं। 
  • ३, ६, १०, ११ को उपचय स्थान कहते हैं। 
  • ६, ८, १२ को त्रिक स्थान कहते हैं। 
  • ३, ६, ११ को त्रिषडाय स्थान कहते हैं। 
  • दूसरे भाव को द्रव्य स्थान और उसके स्वामी को द्रव्येश कहते हैं। 
  • तीसरे भाव को पराक्रम स्थान और उसके स्वामी को पराक्रमेश कहते हैं। 
  • चौथे स्थान को सुख स्थान या मातृ स्थान और उसके स्वामी को सुखेश कहा गया है। 
  • पाँचवे स्थान को विद्या स्थान, संतान स्थान या सुत स्थान भी कहते हैं और उसके स्वामी को पंचमेश या सुतेश कहा गया है। 
  • छठे स्थान को कष्ट स्थान और उसके स्वामी को कष्टेश कहते हैं। 
  • सातवें भाव को जाया स्थान और उसके स्वामी को सप्तमेश अथवा जायेश कहते हैं। 
  • आठवें भाव को मृत्यु स्थान और  मारकेश या मृतेश भी कहा गया है। 
  • नौवें भाव को भाग्य स्थान और उसके स्वामी को भाग्येश के नाम से पुकारा जाता है। 
  • दसवें भाव को कर्म स्थान या राज्य स्थान कहा जाता है तथा उसके स्वामी को कर्मेश या राज्येश कहा जाता है। 
  • ग्यारहवें भाव को आय स्थान और उसके स्वामी को आयेश कहते हैं। 
  • बारहवें भाव को व्यय स्थान और उसके स्वामी को व्ययेश कहते हैं।

Sunday, January 11, 2015

कुंडली का फलकथन करने से पूर्व विचार करने योग्य बातें :-

  • किसी भी ग्रह की महादशा में उसी ग्रह की अन्तर्दशा अनुकूल फल नहीं देती। 
  • योगकारक ग्रह की महादशा में पापी या मारक ग्रह की अन्तर्दशा आने पर प्रारंभ में शुभ फल तथा उत्तरार्द्ध में अशुभ फल देने लगता है। 
  • अकारक ग्रह की महादशा में कारक ग्रह की अन्तर्दशा आने पर प्रारंभ में अशुभ तथा उत्तरार्द्ध में शुभ फल की प्राप्ति होती है।
  • भाग्य स्थान का स्वामी यदि भाग्य भाव में बैठा हो और उस पर गुरु की दृष्टि हो तो ऐसा व्यक्ति प्रबल भाग्यशाली माना जाता है।
  • लग्न का स्वामी सूर्य के साथ बैठकर विशेष अनुकूल रहता है।
  • सूर्य के समीप निम्न अंशों तक जाने पर ग्रह अस्त हो जाते हैं, (चन्द्र-१२ अंश, मंगल-१७ अंश, बुध-१३ अंश, गुरु-११ अंश, शुक्र-९ अंश, शनि-१५ अंश) फलस्वरूप ऐसे ग्रहों का फल शून्य होता है। अस्त ग्रह जिन भावों के अधिपति होते हैं उन भावों का फल शून्य ही समझना चाहिए। 
  • सूर्य उच्च  का होकर यदि ग्यारहवें भाव में बैठा हो तो ऐसे व्यक्ति अत्यंत प्रभावशाली तथा पूर्ण प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्तित्व होता है।
  • सूर्य और चन्द्र को छोड़कर यदि कोई ग्रह अपनी राशि में बैठा हो तो वह अपनी दूसरी राशि के प्रभाव को बहुत अधिक बढ़ा देता है।
  • किसी भी भाव में जो ग्रह बैठा है, इसकी अपेक्षा जो ग्रह उस भाव को देख रहा होता है, उसका प्रभाव ज़्यादा रहता है।
  • जिन भावों में शुभ ग्रह बैठे हों या जिन भावों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो वे भाव शुभ फल देने में सहायक होते हैं।
  • एक ग्रह दो भावों का अधिपति होता है। ऐसी स्थिति में वह ग्रह अपनी दशा में लग्न से गिनने पर जो राशि पहले आएगी उसका फल वह पहले प्रदान करेगा।
  • दो केन्द्रों  का स्वामी ग्रह यदि त्रिकोण के स्वामी के साथ बैठे हैं तो उसे केंद्रत्व दोष नहीं लगता और वह शुभ फल देने में सहायक हो जाता है। सामान्य नियमों के अनुसार यदि कोई ग्रह दो केंद्र भावों का स्वामी होता है तो वह अशुभ फल देने लग जाता है चाहे वह जन्म-कुंडली में करक ग्रह ही क्यों न हो।
  • अपने भाव से केन्द्र व कोण में पड़ा हुआ ग्रह शुभ होता है। 
  • केंद्र के स्वामी तथा त्रिकोण के स्वामी के संबंध हो तो वे एक दूसरे की दशा में शुभ फल देते हैं।  यदि संबंध न हो तो एक की महादशा में जब दूसरे की अंतर्दशा आती है तो अशुभ फल ही प्राप्त होता है।
  • वक्री होने पर ग्रह अधिक बलवान हो जाता है तथा वह ग्रह जन्म-कुंडली में जिस भाव का स्वामी है, उस भाव को विशेष फल प्रदान करता है। 
  • यदि भावाधिपति उच्च, मूल त्रिकोणी, स्वक्षेत्री अथवा मित्रक्षेत्री हो तो शुभ फल करता है।
  • यदि केन्द्र का स्वामी त्रिकोण में बैठा हो या त्रिकोण  केंद्र में हो तो वह ग्रह अत्यन्त ही श्रेष्ठ फल देने में समर्थ होता है। जन्म-कुंडली में पहला, पाँचवा तथा नवाँ  भाव त्रिकोण स्थान कहलाते हैं। परन्तु कोई ग्रह त्रिकोण में बैठकर केंद्र के स्वामी के साथ संबंध स्थापित करता है तो वह न्यून योगकारक ही माना जाता है।
  • त्रिक स्थान (कुंडली के ३, ६, ११वे भाव को त्रिक स्थान कहते हैं) में यदि शुभ ग्रह बैठे हो तो त्रिक स्थान को शुभ फल देते हैं परन्तु स्वयं दूषित हो जाते हैं और अपनी शुभता खो देते हैं। 
  • यदि त्रिक स्थान में पाप ग्रह बैठे हों तो त्रिक भावों को पापयुक्त बना देते हैं पर वे ग्रह स्वयं शुभ रहते हैं और अपनी दशा में शुभ फल देते हैं। 
  • चाहे अशुभ या पाप ग्रह ही हो, पर यदि वह त्रिकोण भाव में या त्रिकोण भाव का स्वामी होता है तो उसमे शुभता आ जाती है।
  • एक ही त्रिकोण का स्वामी यदि दूसरे त्रिकोण भाव में बैठा हो तो उसकी शुभता समाप्त हो जाती है और वह विपरीत फल देते है। जैसे पंचम भाव का स्वामी नवम भाव में हो तो संतान से संबंधित परेशानी रहती है या संतान योग्य नहीं होती।
  • यदि एक ही ग्रह जन्म-कुंडली में दो केंद्रस्थानों का स्वामी हो तो शुभफलदायक नहीं रहता। जन्म-कुंडली में पहला, चौथा, सातवाँ तथा दसवां भाव केन्द्र स्थान कहलाते हैं।
  • शनि और राहु विछेदात्मक ग्रह हैं अतः ये दोनों ग्रह जिस भाव में भी होंगे संबंधित फल में विच्छेद करेंगे जैसे अगर ये ग्रह सप्तम भाव में हों तो पत्नी से विछेद रहता है। यदि पुत्र भाव में हों तो पुत्र-सुख में न्यूनता रहती है। 
  • राहू या केतू  जिस भाव में बैठते हैं उस भाव की राशि के स्वामी  समान बन जाते हैं तथा जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उस ग्रह के गुण ग्रहण कर लेते हैं।
  • केतु जिस ग्रह के साथ बैठ जाता है उस ग्रह के प्रभाव को बहुत अधिक बड़ा देता है।
  • लग्न का स्वामी जिस भाव में भी बैठा होता है उस भाव को वह विशेष फल देता है तथा उस भाव की वृद्धि करता है।
  • लग्न से तीसरे स्थान पर पापी ग्रह शुभ प्रभाव करता है लेकिन शुभ ग्रह हो तो मध्यम फल मिलता है। 
  • तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में पापी ग्रहों का रहना शुभ माना जाता जाता है।
  • तीसरे भाव का स्वामी तीसरे में, छठे भाव का स्वामी छठे में या ग्यारहवें भाव का स्वामी ग्यारहवें भाव में बैठा हो तो ऐसे ग्रह पापी नहीं रहते अपितु शुभ फल देने लग जाते हैं।
  • चौथे भाव में यदि अकेला शनि हो तो उस व्यक्ति की वृद्धावस्था अत्यंत दुःखमय व्यतीत होती है। 
  • यदि मंगल चौथे, सातवें , दसवें भाव में से किसी भी एक भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति का गृहस्थ जीवन दुःखमय होता है। पिता से कुछ भी सहायता नहीं मिल पाती और जीवन में भाग्यहीन बना रहता है।
  • यदि चौथे भाव का स्वामी पाँचवे भाव में हो और पाँचवें भाव का स्वामी चौथे भाव में हो तो विशेष फलदायक होता है।  इसी प्रकार नवम भाव का स्वामी दशम भाव में बैठा हो तथा दशम भाव का स्वामी नवम भाव में बैठा हो तो विशेष अनुकूलता देने में समर्थ होता है। 
  • अकेला गुरु यदि पंचम भाव में हो तो संतान से न्यून सुख प्राप्त होता है या प्रथम पुत्र से मतभेद रहते हैं।
  • जिस भाव की जो राशि होती है उस राशि के स्वामी ग्रह को उस भाव का अधिपति या भावेश कहा जाता है। छठे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी जिन भावों में रहते हैं, उनको बिगाड़ते हैं, किन्तु अपवाद रूप में यदि यह स्वगृही ग्रह हों तो अनिष्ट फल नहीं करते, क्योंकि स्वगृही ग्रह का फल शुभ होता है। 
  • छठे भाव का स्वामी जिस भाव में भी बैठेगा, उस भाव में परेशानियाँ रहेगी। उदहारण के लिए छठे भाव का स्वामी यदि आय भाव में हो तो वह व्यक्ति जितना परिश्रम करेगा उतनी आय उसको प्राप्त नहीं सकेगी।
  • यदि सप्तम भाव में अकेला शुक्र हो तो उस व्यक्ति का गृहस्थ जीवन सुखमय नहीं रहता और पति-पत्नी में परस्पर अनबन बनी रहती है।
  • अष्टम भाव का स्वामी जहाँ भी बैठेगा उस भाव को कमजोर करेगा।
  • शनि यदि अष्टम भाव में हो तो उस व्यक्ति की आयु लम्बी होती है।
  • अष्टम भाव में प्रत्येक ग्रह कमजोर होता है परन्तु सूर्य या चन्द्रमा अष्टम भाव में हो तो कमजोर नहीं रहते।
  • आठवें और बारहवें भाव में सभी ग्रह अनिष्टप्रद होते हैं, लेकिन बारहवें घर में शुक्र इसका अपवाद है क्योंकि शुक्र भोग का ग्रह है  बारहवां भाव भोग का स्थान है।
  • यदि शुक्र बारहवें भाव में हो तो ऐसा व्यक्ति अतुलनीय धनवान एवं प्रसिद्ध व्यक्ति होता है। 
  • द्वादश भाव का स्वामी जिस भाव में भी बैठता है, उस भाव को हानि पहुँचाता है। 
  • दशम भाव में सूर्य और मंगल स्वतः ही बलवान माने गए हैं, इसी प्रकार चतुर्थ भाव में चन्द्र और शुक्र, लग्न में बुध तथा गुरु और सप्तम भाव में शनि स्वतः ही बलवान हो जाते हैं तथा विशेष फल देने में सहायक होते हैं।
  • ग्यारहवें भाव में सभी ग्रह अच्छा फल करते हैं। 
  • अपने स्वामी ग्रह से दृष्ट, युत या शुभ ग्रह से दृष्ट भाव बलवान होता है। 
  • किस भाव का स्वामी कहाँ स्थित है तथा उस भाव के स्वामी का क्या फल है, यह भी देख लेना चाहिए।
  • यदि कोई ग्रह जिस राशि में है उसी नवमांश में भी हो तो वह वर्गोत्तम ग्रह कहलाता है और ऐसा ग्रह पूर्णतया बलवान माना जाता है तथा श्रेष्ठ फल देने में सहायक होता है। 

Saturday, January 10, 2015

राशियों का अंग विभाग

आचार्य वराहमिहिर ने द्वादश राशियों को कालपुरुष का अंग मान कर शरीर में उनकी जो स्थिति बताई है, वह इस प्रकार है - 

मेष की सिर में, वृषभ की मुख में, मिथुन की स्तनों के मध्य में, कर्क की हृदय में, सिंह की उदर में, कन्या की कमर में, तुला की पेडू में, वृश्चिक की लिंग में, धनु की जंघा में, मकर की दोनों घुटनों में, कुम्भ की दोनों पिंडलियों में तथा मीन की दोनों पैरों में।
  • मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु और कुम्भ पुरुष राशियाँ हैं। 
  • वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन स्त्री राशियाँ हैं। 
  • मेष, कर्क, तुला और मकर 'चर' संज्ञक राशियाँ हैं। 
  • वृषभ, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ 'स्थिर' संज्ञक राशियाँ हैं। 
  • मिथुन, कन्या, धनु और मीन 'द्विस्वभाव' संज्ञक राशियाँ हैं। 
  • धनु, सिंह और मेष अग्नितत्त्व प्रधान राशियाँ हैं।
  • कर्क, वृश्चिक और मीन जल तत्त्व प्रधान राशियाँ हैं। 
  • वृषभ, कन्या और मकर पृथ्वी तत्त्व प्रधान राशियाँ हैं। 
  • मिथुन, तुला और कुम्भ वायु तत्त्व प्रधान राशियाँ हैं।