Friday, March 16, 2012

मानव पर शनि की दशा

शनि  जहाँ दिवालियेपन का कारण बनता है, वहीं यह ऐशो-आराम की जिंदगी भी प्रदान करता है....

मानव पर ग्रहों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है,उन ग्रहों में भी शनि एक प्रबल ग्रह माना गया है। शनि ग्रह प्रधान व्यक्ति उच्च श्रेणी के दिमागी कार्य किया करते हैं। शनि प्रधान व्यक्ति मैकेनिक, डॉक्टर, इंजिनियर, लेखक, संगीतकार, ज्योतिष, राजनेता, तांत्रिक, अभिनेता, पुलिस तथा अच्छे शासक हुआ करते हैं। ऐसे व्यक्ति बड़े उद्योगपति तथा खतरनाक,विस्फोटक सामग्री के निर्माणकर्ता हुआ करते हैं।  

शनि प्रधान व्यक्ति खतरों से खेलने में अन्य ग्रह वाले व्यक्ति से आगे रहते हैं,यह हिम्मत के धनी होते हैं,किसी के अधीन होकर काम करना इन्हें पसंद नहीं,थोड़ी सी असफलता में चिंताग्रस्त हो जाते हैं,लेकिन उन परिस्थितियों से आखिरी दम तक लड़ने की कोशिश करते हैं। इनका बचपन कष्टदायक होता है, पत्नी तो अच्छी मिलती है, फिर भी इनके मन को संतुष्टि नहीं मिल पाती,  दूसरे की पत्नी की तारीफ़ करना इनकी आदत सी होती है,स्वास्थय सामान्य होता है और यह हमेशा चिंतित रहते हैं।

ऐसे  व्यक्तियों की प्रेमिकाओं की संख्या एक से अधिक होती है, ये बातें काफ़ी बढ़ा-चढ़ा कर करते हैं, बातों में किसी को भी अपने सामने टिकने नहीं देते।  शनि की दशा अगर सामान्य रही, तो ऐसे व्यक्ति नशे की और झुक जाते हैं, सफलता इनके कदम चूमती है, मांस-मछली और अंडे खाने के ये शौकीन होते हैं। अंतिम अवस्था में ऐसे व्यक्ति ख़ाक से उठकर आसमान में स्थापित हो जाया करते हैं।

प्रारंभिक दौर

शनि की दशा के प्रारंभिक दौर में ऐसे व्यक्ति के हाथ में पैसा 'आया राम गया राम' ही रहता है, आमदनी से खर्च अधिक होने लगता है,  घर-परिवार में मतभेद हो जाता है,  पुत्रों की माँ-बाप से नहीं बनती,  छोटी-छोटी बातों पर मनमुटाव हो जाता है,  रिश्तों में दरार पड़ जाती है।  प्रारंभिक दौर में ऐसे व्यक्ति का स्वास्थय अच्छा होता है,  उसकी आमदनी भी अच्छी होती है,  रोजगार पूर्ण रूप से सफल रहता है, परन्तु खर्च भी इस क्रम में बढ़ जाता है। मित्रों की संख्या अधिक होती है तथा कई प्रशासनिक स्त्तर के अधिकारियों से संपर्क बन जाता है। इस दौर में गैरकानूनी ढंग से भी आय होती है।

द्वितीय दौर

द्वितीय दौर में शनि व्यक्ति को खर्चीला बना देता है,  पैसा बेवजह खर्च होने लगता है,  आज नहीं होगा,  तो कल होगा,  इसी आशा में वह पैसे खर्च करता रहता है, शराब ज़रूरत से ज्यादा पीने लगता है,  परिवार के सदस्यों में कटुता बन जाती है,  घर में कलह का कोई न कोई सूत्र हमेशा मौजूद रहता है;  मित्रों के ऊपर भी बेवजह पैसा खर्च होता है, प्रेमिका को पाने के लिए दिन-रात एक कर देता है, ऐसे समय में प्रेम पत्र लेखन, शायरी आदि भी की जाती है।  व्यापार के प्रति मोह कुछ कम रहता है, समय पर काम नहीं बनता तथा खाने-पीने के मामले में भी कोई नियम नहीं रह जाता, विभागीय तनाव भी बना रहता है, तबादले आदि की समस्या से मन खिन्न रहता है, मेहनत पूर्वक अच्छे कार्य करने पर भी अधिकारी व अन्य नाखुश से ही रहते हैं, पदोन्नति के मामले में भी निराशा का सामना करना पड़ता है; पढाई में भी कष्टों का सामना करना पढ़ता और अत्यधिक परिश्रम के बावजूद परीक्षा में बहुत ही सामान्य अंक प्राप्त हो पाते हैं।

तृतीय दौर

इस दौर में व्यक्ति को आर्थिक कष्टों का सामना करना पड़ता है, घर-परिवार में तनाव बढ़ जाता है, लड़ाई-झगड़ें, पुलिस, कोर्ट, कचहरी, डॉक्टर आदि का चक्कर पड़ जाता है, भाई-भाई में नफ़रत हो जाती है, परिवार में दरारें पड़ जाती हैं, अगर कोई प्रेम सम्बन्ध हो, तो वह भी कष्टदायक होता है, दोनों और से तनावग्रस्त माहौल, झगड़े, हिंसा आदि की नौबत भी आ सकती है।

शराब, जुआं आदि खेलने की आदत सी हो जाती है, संचित धन भी ख़त्म हो जाता है और किसी कारणवश जेल जाने की नौबत आ जाती है, सामाजिक और आर्थिक बदनामी होती है तथा समाज में भी ऐसा व्यक्ति चर्चा का विषय बन जाता है।

सरकारी नौकरी वाले के लिए भी यह संकट की घड़ी होती है, वरिष्ठ अधिकारियों से दण्डित होता है तथा 'सस्पेंड' होने की संभावनाएं रहती हैं। अगर कोई व्यक्ति ठेकेदारी कर रहा है, तो उसके मार्ग में बाधा उत्पन्न हो जाती है, आमदनी कम और खर्चा अधिक हो जाता है। पति-पत्नी के बीच संबंधो में दरार आ जाती है और घर छोड़ने की भी स्थिति बन जाती है; धन का आभाव रहता है, लेकिन ऐसे समय मैं कर्ज भी आसानी से मिल जाता है।

चौथा और अंतिम दौर 

शनि के अंतिम दौर को भी दो भागों में बांटा गया है ....

 प्रथम - प्रथम भाग में व्यक्ति कर्ज़दार बन जाता है, परिवार से संपर्क टूटा सा रहता है, जिसके परिणामस्वरूप अधिक कष्टों का सामना करना पड़ता है, दौड़-धूप की स्थिति बनी रहती है, प्रशासनिक स्तर के अधिकारियों से संपर्क टूट जाता है, आय का मार्ग भी लगभग कष्टदायक बन जाता है, व्यापार में घाटा होता है तथा जमा पूँजी भी खो बैठता है, नौकरी हाथ से निकल जाती है; विद्यार्थी जीवन संकट में होता है तथा परीक्षा में असफलता मिलती है, स्वभाव में चिडचिडापन आ जाता है, वैवाहिक जीवन भी कष्टदायक होता है, स्वास्थ्य गिर जाता है, धन कहीं से प्राप्त भी होता है, तो वह जेब में नहीं रुकता तथा सर्वत्र बदनामी का सामना करना पड़ता है।

व्यक्ति को किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिलती, मन अस्थिर रहता है, विचारों और कार्यों के बीच कोई तादात्मय  स्थापित नहीं हो पाता, ये किसी भी कार्य को स्थाई रूप से नहीं कर पाते, एक कार्य पूरा नहीं होता, की उसे छोड़ कर दूसरा कार्य प्रारंभ कर देते है, और सदैव असफल और चिंतित सा रहते हैं। ऐसे व्यक्ति को अंत में अपने आपको दिवालिया घोषित करना पड़ता है।

आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण ऐसे व्यक्ति गलत रास्ते पर चलने के लिए मजबूर हो जाते हैं, घर-परिवार का सहयोग नहीं मिल पता और हमेशा अपने आप में अकेलापन महसूस करते हैं, मित्र-स्वजन सम्बन्ध तोड़ देते हैं, ऐसे में आत्महत्या के विचार भी आते हैं, इसके सिवा दूसरा कोई मार्ग ही नहीं दिखता; इनके अंदर क्रोध की भी अधिकता हो जाती है, लेकिन जितनी जल्दी क्रोध आता है, उतनी ही जल्दी उतर भी जाता है।

लेकिन कष्टों में भी ऐसे व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान होती है। इस अवधि में यदि उसका विवाह होता है, तो वैवाहिक जीवन सामान्य होता है, लेकिन आर्थिक स्थिति डांवाडोल बनी रहती है।

द्वितीय - शनि अकरक होने पर जहाँ एक ओर इंसान के भीतर आत्महत्या की भावना को प्रबल करता है, वहीं कारक होने पर यह व्यक्ति को झोपड़ी से महल में भी पहुंचा देता है। अंतिम चरण में शनि दो ही कार्य करता है - या तो झकझोर के रख देता है या बना देता है।

व्यक्ति के इस समय में दुर्घटना तथा मृत्यु की भी संभावनाएं बनी रहती है या शरीर के किसी हिस्से को नुकसान भी पहुँच सकता है।

यदि ऐसे समय में बृहस्पति प्रबल ओर सहायक रहा तो ऐसा व्यक्ति पूर्ण सुख भोग ऐश्वर्य प्राप्त करता है, धन की वर्षा सी होने लग जाती है, वाहन सुख, व्यापार वृद्धि, चुनाव में पूर्ण सफलता, सरकारी नौकरी लगना, नौकरी में प्रमोशन प्राप्त होती है, यो कहा जाये तो उसके जीवन में परिवर्तन आ जाता है। ऐसे व्यक्ति की उन्नति भी समाज में चर्चा का विषय होती है, व्यापार, नौकरी, विद्या अध्ययन में चतुर्दिक सफलता प्राप्त होती है एवं सुखद यात्राओं का योग बनता है।

ऐसे समय में यदि विवाह होता है, तो पत्नी सुंदर ओर हंसमुख होती है, तथा प्रथम संतान के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।

Saturday, March 10, 2012

कैसे जगाए अपनी जन्म-कुण्डली के सोए हुए घर

लाल किताब के अनुसार जिस घर में कोई ग्रह न हो तथा जिस घर पर किसी ग्रह की नज़र नहीं पड़ती हो उसे सोया हुआ घर माना जाता है. लाल किताब का मानना है जो घर सोया होता है उस घ्रर से सम्बन्धित फल तब तक प्राप्त नहीं होता है जबतक कि वह घर जागता नहीं है. लाल किताब में सोये हुए घरों को जगाने के लिए कई उपाय बताए गये हैं.

  1. जिन लोगों की कुण्डली में प्रथम भाव सोया हुआ हो उन्हें इस घर को जगाने के लिए मंगल का उपाय करना चाहिए. मंगल का उपाय करने के लिए मंगलवार का व्रत करना चाहिए. मंगलवार के दिन हनुमान जी को लडुडुओं का प्रसाद चढ़ाकर बांटना चाहिए. मूंगा धारण करने से भी प्रथम भाव जागता है.
  2. अगर दूसरा घर सोया हुआ हो तो चन्द्रमा का उपाय शुभ फल प्रदान करता है. चन्द्र के उपाय के लिए चांदी धारण करना चाहिए. माता की सेवा करनी चाहिए एवं उनसे आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए. मोती धारण करने से भी लाभ मिलता है.
  3. तीसरे घर को जगाने के लिए बुध का उपाय करना लाभ देता है. बुध के उपाय हेतु दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहिए. बुधवार के दिन गाय को चारा देना चाहिए.
  4. लाल किताब के अनुसार किसी व्यक्ति की कुण्डली में अगर चौथा घर सोया हुआ है तो चन्द्र का उपाय करना लाभदायी होता है.
  5. पांचवें घर को जागृत करने के लिए सूर्य का उपाय करना फायदेमंद होता है. नियमित आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ एवं रविवार के दिन लाल भूरी चीटियों को आटा, गुड़ देने से सूर्य की कृपा प्राप्त होती है.
  6. छठे घर को जगाने के लिए राहु का उपाय करना चाहिए. जन्मदिन से आठवां महीना शुरू होने पर पांच महीनों तक बादाम मन्दिर में चढ़ाना चाहिए, जितना बादाम मन्दिर में चढाएं उतना वापस घर में लाकर सुरक्षित रख दें. घर के दरवाजा दक्षिण में नहीं रखना चाहिए. इन उपायों से छठा घर जागता है क्योंकि यह राहु का उपाय है.
  7. सोये हुए सातवें घर के लिए शुक्र को जगाना होता है. शुक्र को जगाने के लिए आचरण की शुद्धि सबसे आवश्यक है.
  8. सोये हुए आठवें घर के लिए चन्द्रमा का उपाय शुभ फलदायी होता है.
  9. जिनकी कुण्डली में नवम भाव सोया हो उनहें गुरूवार के दिन पीलावस्त्र धारण करना चाहिए. सोना धारण करना चाहिए व माथे पर हल्दी अथवा केशर का तिलक करना चाहिए. इन उपाय से गुरू प्रबल होता है और नवम भाव जागता है.
  10. दशम भाव को जागृत करने हेतु शनिदेव का उपाय करना चाहिए.
  11. एकादश भाव के लिए भी गुरू का उपाय लाभकारी होता है.
  12. अगर बारहवां घ्रर सोया हुआ हो तो घर मे कुत्ता पालना चाहिए. पत्नी के भाई की सहायता करनी चाहिए. मूली रात को सिरहाने रखकर सोना चाहिए और सुबह मंदिर मे दान करना चाहिए.

नवमांश की उपयोगिता

सभी वर्ग कुंडलियों में नवमांश सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। विम्शोपक बल में भी जन्म कुंडली के बाद सबसे महत्वपूर्ण नवांश ही हैं। विम्शोपक बल में लग्न कुंडली के बाद सबसे अधिक अंक नवांश को दिए गए हैं। जन्म कुंडली और नवांश को देख कर ही आप ग्रह किस नक्षत्र और चरण में हैं ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिषीय ग्रन्थ जैसे बृहत् पराशर होरा शास्त्र, जातक पारिजात, चंद्र नाडी कला, बृहत् जातक इत्यादि में नवांश के उपयोग कई स्थानों पर वर्णित हैं। 

नवमांश के उपयोग
  1. यदि ग्रह जन्म कुंडली में निर्बल अर्थात पाप ग्रहों से दृष्ट नीच का हो, अस्त हो परन्तु नवांश में बली हो तो ग्रह के पास बल होता हैं। 
  2. अस्त ग्रह यदि नवांश में सूर्य से २ भाव से अधिक दूरी पर हो तो अस्त ग्रह भी फल देने में सक्षम होता हैं। 
  3. कोई भी ग्रह यदि मित्र तथा सौम्य ग्रह के नवांश में हो तो उस ग्रह का फल अवश्य और शुभ मिलता हैं। 
  4. शुभ राशि में वर्गोत्तम ग्रह शुभ फल देता हैं। 
  5. क्रूर राशि में वर्गोत्तम ग्रह संघर्षो के बाद परिणाम देता है। 
सारावली के अनुसार, चंद्र राशि हमारे स्वभाव को दर्शाती हैं परन्तु यदि जिस नवांश में चंद्र हैं. उसका स्वामी अधिक बली हो तो स्वभाव नवांश के अनुसार होगा। 
सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार, यदि चतुर्थ भाव का स्वामी जिस नवांश में हैं उसका स्वामी लग्न कुंडली में केन्द्रगत हो तो ऐसे जातक को घर-सम्पदा का सुख अवश्य प्राप्त होता हैं। 
परन्तु यदि वह त्रिक भाव (६-८-१२) में हो तो ऐसे जातक को घर-सम्पदा के सुख की हानि होती हैं। ऐसे श्लोक हमे बाध्य करते हैं कि हम नवांश के स्वामी की स्थिति फल कथन से पहले अवश्य विचार लें। 
जब सर्वार्थ चिंतामणी के श्लोक पर ध्यान देते हुए परिणाम अद्भुत था। यदि भावेश का नवांश अधिपति लग्न कुंडली मे केंद्र अथवा त्रिकोण में बली हो तो उस भाव के फल अवश्य मिलते हैं और यदि भावेश का नवांश अधिपति निर्बल होकर त्रिक भावो में हो तो निश्चय ही उस भाव के फल में कमी आएगी। 

कैसे करें बाधा निवारण

  1. प्रत्येक प्रकार के संकट निवारण के लिये भगवान गणेश की मूर्ति पर कम से कम 21 दिन तक थोड़ी-थोड़ी जावित्री चढ़ावे और रात को सोते समय थोड़ी जावित्री खाकर सोवे। यह प्रयोग 21, 42, 64 या 84 दिनों तक करें।
  2. रूके हुए कार्यों की सिद्धि के लिए यह प्रयोग बहुत ही लाभदायक है। गणेश चतुर्थी को गणेश जी का ऐसा चित्र घर या दुकान पर लगाएं, जिसमें उनकी सूंड दायीं ओर मुड़ी हुई हो। इसकी आराधना करें। इसके आगे लौंग तथा सुपारी रखें। जब भी कहीं काम पर जाना हो, तो एक लौंग तथा सुपारी को साथ ले कर जाएं, तो काम सिद्ध होगा। लौंग को चूसें तथा सुपारी को वापस ला कर गणेश जी के आगे रख दें तथा जाते हुए कहें `जय गणेश काटो कलेश´
  3. किसी के प्रत्येक शुभ कार्य में बाधा आती हो या विलम्ब होता हो तो रविवार को भैरों जी के मंदिर में सिंदूर का चोला चढ़ा कर बटुक भैरव स्तोत्र´´ का एक पाठ कर के गौ, कौओं और काले कुत्तों को उनकी रूचि का पदार्थ खिलाना चाहिए। ऐसा वर्ष में 4-5 बार करने से कार्य बाधाएं नष्ट हो जाएंगी।
  4. सिन्दूर लगे हनुमान जी की मूर्ति का सिन्दूर लेकर सीता जी के चरणों में लगाएँ। फिर माता सीता से एक श्वास में अपनी कामना निवेदित कर भक्ति पूर्वक प्रणाम कर वापस आ जाएँ। इस प्रकार कुछ दिन करने पर सभी प्रकार की बाधाओं का निवारण होता है।
  5. किसी शनिवार को, यदि उस दिन `सर्वार्थ सिद्धि योगहो तो अति उत्तम सांयकाल अपनी लम्बाई के बराबर लाल रेशमी सूत नाप लें। फिर एक पत्ता बरगद का तोड़ें। उसे स्वच्छ जल से धोकर पोंछ लें। तब पत्ते पर अपनी कामना रुपी नापा हुआ लाल रेशमी सूत लपेट दें और पत्ते को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इस प्रयोग से सभी प्रकार की बाधाएँ दूर होती हैं और कामनाओं की पूर्ति होती है।
  6. अक्सर सुनने में आता है कि घर में कमाई तो बहुत है, किन्तु पैसा नहीं टिकता, तो यह प्रयोग करें। जब आटा पिसवाने जाते हैं तो उससे पहले थोड़े से गेंहू में 11 पत्ते तुलसी तथा 2 दाने केसर के डाल कर मिला लें तथा अब इसको बाकी गेंहू में मिला कर पिसवा लें। यह क्रिया सोमवार और शनिवार को करें। फिर घर में धन की कमी नहीं रहेगी।
  7. आटा पिसते समय उसमें 100 ग्राम काले चने भी पिसने के लियें डाल दिया करें तथा केवल शनिवार को ही आटा पिसवाने का नियम बना लें।
  8. शनिवार को खाने में किसी भी रूप में काला चना अवश्य ले लिया करें।
  9. संध्या समय सोना, पढ़ना और भोजन करना निषिद्ध है। सोने से पूर्व पैरों को ठंडे पानी से धोना चाहिए, किन्तु गीले पैर नहीं सोना चाहिए। इससे धन का क्षय होता है।
  10. रात्रि में चावल, दही और सत्तू का सेवन करने से लक्ष्मी का निरादर होता है। अत: समृद्धि चाहने वालों को तथा जिन व्यक्तियों को आर्थिक कष्ट रहते हों, उन्हें इनका सेवन रात्रि भोज में नहीं करना चाहिये।
  11. भोजन सदैव पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर के करना चाहिए। संभव हो तो रसोईघर में ही बैठकर भोजन करें इससे राहु शांत होता है। जूते पहने हुए कभी भोजन नहीं करना चाहिए।
  12. सुबह कुल्ला किए बिना पानी या चाय न पीएं। जूठे हाथों से या पैरों से कभी गौ, ब्राह्मण तथा अग्नि का स्पर्श न करें।
  13. घर में देवी-देवताओं पर चढ़ाये गये फूल या हार के सूख जाने पर भी उन्हें घर में रखना अलाभकारी होता है।
  14. अपने घर में पवित्र नदियों का जल संग्रह कर के रखना चाहिए। इसे घर के ईशान कोण में रखने से अधिक लाभ होता है।

खगोल शास्त्र में समय की परिभाषा

स्थानीय मध्यम समय

मध्य रात्रि के बाद बीता समय स्थानीय मध्य समय कहलाता है| सूर्य अस्त से अगले दिन के सूर्य उदय के मध्य समय को रात्रि मान कहते है| रात्रि मान के आधे समय को यदि सूर्यास्त में जोड़ा जाए तो मध्य रात्रि का समय ज्ञात हो जाता है| अतः स्थानीय मध्यम समय सूर्योदय पर आधारित है| जैसा की सभी को ज्ञात है की विभिन्न स्थानों पर सूर्य उदय का समय भिन्न होता है|

इस कारण एक देश में या एक क्षेत्र में एक मानक मध्याह्न रेखा को आधार मानकर वहाँ के समय को सारे देश का मानक समय मान लिया जाता है| भारत की मानक मध्याह्न रेखा ८२+३० पूर्व को मान लिया गया है | यह रेखा काशी के समीप से गुजरती है| भारतीय मानक रेखा और ग्रीनविच मध्यमान समय में साढ़े पांच घंटे का अंतर है|

प्रकाश वर्ष

प्रकाश की गति 3,00,000 किलोमीटर प्रति सेकण्ड है| इस गति से प्रकाश १ वर्ष में जो दूरी तय करता है उसे १ प्रकाश वर्ष कहते है|

1 Light Year = 9.46 x 1012 Km

सावन दिवस

एक मध्य रात्रि से दूसरी मध्य रात्रि के मध्य समय को सावन दिवस कहते है| एक सावन दिवस का मान लगभग 24 घंटे 3 मिनिट 56.5 सेकण्ड होता है|

सम्पात दिवस

एक नक्षत्र के उदय होने से लेकर पुनः उसके उदय होने में लगा समय एक सम्पात दिवस होता है|

चांद्र दिवस/ तिथि

एक तिथि से दूसरी तिथि तक का औसत समय एक चांद्र दिवस है| इसका औसत समय 23 घंटे 37 मिनट 28 सेकण्ड है |

नष्ट जन्म-पत्रिका शुद्धि

प्रायः देखने में आता है के जन्म-पत्रिकाएँ ऊपर से खंडित हो जाती हैं. ऐसी अवस्था में जन्म-पत्रिका का सम्वत्, मास, तिथि, वार, नक्षत्र आदि तथा जन्म समय का पता नहीं चल पता. जिसके अभाव में फलादेश के वर्णन में बड़ी कठिनाई होती है. इस प्रकार की नष्ट जन्म-पत्रिका का पुनरुद्धार करने के लिए यहाँ कुछ रीतियाँ दी जा रही हैं. जो प्रत्येक ज्योतिषी, विद्वान एवं ज्योतिष में रूचि रखने वाले व्यक्ति के लिए लाभकारी सिद्ध होगी.

1) जन्म-कुंडली का संवत् जानना -

जन्म-कुंडली में जिस राशि का शनि हो उस से वर्तमान शनि जिस राशि पर हो, उस तक गिने. जो संख्या आवे उसे अढ़ाई गुणा करके जो संख्या आवे, वह गत वर्ष होंगे. सम्वत् में से घटने पर जन्म जन्म सम्वत् प्राप्त होगा.

2) कुंडली का मास जानना -

मेष का सूर्य हो तो वैशाख का जन्म. वृष का सूर्य हो तो ज्येष्ठ का, मिथुन के सूर्य में आषाढ मास समझे. इसी क्रम से जिस राशि का सूर्य हो, वैशाख आदि क्रम से जन्म का मास समझे.

3) कुंडली का पक्ष जानना -

जिस राशि पर सूर्य हो यदि उस से ७ राशियों के अंतर्गत चंद्रमा हो तो शुक्ल पक्ष का जन्म होता है. यदि चन्द्रमा सात से बारह राशि के अंतर्गत हो तो जन्म कृष्ण पक्ष का समझे.

4) जन्म-कुंडली की तिथि का ज्ञान -

जिस राशि में सूर्य हो वहाँ से चंद्र राशि तक गिने जितने स्थान हों उसे अढ़ाई गुणा करने पर तिथि प्राप्त होगी.

5) कुंडली में दिन और राशि का ज्ञान -

कुण्डली में सूर्य छः राशि पर्यंत लग्न हो तो दिन का जन्म, सप्तम राशि लग्न हो तो सायंकाल, सात से बारह राशि के अंतर्गत लग्न हो तो रात्रि का जन्म समझें. दसवें राशिगत लग्न हो तो अर्धरात्रि का जन्म होता है.

6) कुंडली के वार का ज्ञान -

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मास गिन कर बीते पक्ष के दिन गिन कर जोड़े. सात का भाग दें. जो शेष बचे उसे राजा से गिन कर वर जाने.

7) कुंडली के योग का ज्ञान -

पुष्य नक्षत्र में सूर्य के नक्षत्र गिने. श्रवण से दिन के नक्षत्र तक गिने. दोनों को जोड़कर २७ का भाग दें. जो शेष बचे उसे विष्कुम्भादि से योग प्राप्त कर लें.

8) जन्मपत्री स्त्री की है या पुरुष की?

जन्म-कुंडली में लग्न को छोड़कर विषम स्थान पर शनि बैठा हो एवं पुरुष ग्रह बलवान हों तो पुरुष की कुण्डली समझें. विपरीत अवस्था में स्त्री की कुण्डली समझें.

Thursday, March 1, 2012

वर्ष कुंडली में मुंथा का महत्त्व

वर्ष कुंडली में नवग्रहों के समान मुंथा की भी स्थापना की जाती है। मुन्था, मुन्थेश, वर्षेश तथा वर्षलग्नेश को वर्षलग्न में अधिक महत्त्व दिया गया है। मुंथा यद्यपि कोई ग्रह नहीं है, तो भी  मुंथा को ताजिक शास्त्र में एक ग्रह के रूप में मान्यता दी गयी है। इसका फल ग्रह के समान ही महत्वपूर्ण है। मुंथा प्रतिवर्ष एक राशि में, एक माह में ढ़ाई अंश तथा एक दिन में ढ़ाई कला चलती है। इसे कभी वक्री नहीं माना गया है।

मुंथा जन्म लग्न से प्रति वर्ष एक-एक राशि आगे चलती है। वर्ष कुंडली में ४, ६, ७, ८, ११ और १२वे भाव में स्थित मुंथा अशुभ फलदायक होती है। यदि ४, ६, ७, ८, ११, १२वे भाव में शुभ ग्रह युक्त हो तो इतनी अधिक अनिष्टकारी नहीं होती।

द्वादश भावस्थ मुन्था  फल 


लग्न आदि द्वादश भावों में मुंथा का फल इस प्रकार होगा -
  1. लग्न भाव में मुंथा स्थित हो तो उस वर्ष शत्रु का नाश, भाग्य में वृद्धि, सवारी का सुख, यदि चार राशि में हो तो स्थान परिवर्तन के भी योग बनते हैं।
  2. द्वितीय भावस्थ मुंथा हो तो कठिन परिश्रम द्वारा धन लाभ एवं धन प्राप्ति के साधन बनते हैं। मनोरंजन एवं सुख साधनों पर व्यय भी बढता है।
  3. तृतीय भावस्थ मुंथा होने से शत्रु का नाश, भाइयों, मित्रों या उच्च पद प्राप्त महानुभावों का सहयोग प्राप्त होता है।
  4. चतुर्थ भावस्थ मुंथा शरीर कष्ट, वायु विकार, अपने-परायों से विरोध, गुप्त चिंताएँ, नौकरी और व्यवसाय में अनेक प्रकार के विघ्न, स्थान परिवर्तन आदि अशुभ फल घटित होते हैं।
  5. पंच्मस्थ मुंथा अत्यंत शुभ फल देने वाली होती है। सर्विस अथवा व्यापर में लाभ, धन, पुत्र एवं विद्या का लाभ, नए उद्योगों में सफलता मिले।
  6. षष्ठस्थ मुंथा हो तो शरीर कष्ट, शत्रु का भय, चित्त में अशांति, ननिहाल को हानि, स्वभाव में चिडचिडापन रहता है।
  7. सप्तमस्थ मुंथा अशुभ रहती है। स्त्री अथवा निकट बन्धुओं की और से कलह-क्लेश, पारिवारिक सदस्यों को कष्ट, बने बनाए कार्य बिगड़ना आदि अशुभ फल घटित होते हैं।
  8. अष्टमस्थ मुंथा होने से आशाओं में निराशा, पेट तथा अन्य गुप्त रोगों का भय, स्थान परिवर्तन, अनावश्यक यात्राओं तथा स्वास्थय पर भी अपव्यय होता है।
  9. नवमस्थ मुंथा उत्तम फल देती है। नौकरी में पद उन्नति अथवा व्यवसाय में लाभ-वृद्धि, पारिवारिक सुख एवं भाग्य में उन्नति होती है।
  10. दशमस्थ मुंथा होने से आर्थिक लाभ, सरकारी क्षेत्र में यदि कोई कार्य रुका होगा तो पूरा होगा (यानि लाभ होगा) तथा सोचे हुए कार्यो में सफलता प्राप्त होगी।
  11. ग्यारहवें भाव में मुंथा होने से धन लाभ, सुख-प्राप्ति, व्यापार और क्रय-विक्रय के कार्यो से लाभ होगा।
  12. द्वादशस्थ मुंथा आने से व्यापार तथा यात्रा करने से हानि, धन का खर्च, स्थान परिवर्तन के योग बनेगे।
मुन्थेश - जिस घर में मुन्था होती है उस राशि के स्वामी को मुन्थेश कहते हैं। 
  1. यदि मुन्थेश सूर्य हो अथवा मुन्था सूर्य से युक्त हो या सिंह राशि में मुन्था व सूर्य दोनों हों अथवा मुन्था सूर्य से दृष्ट हो तो राज्यपक्ष से लाभ होता है, गुणों की प्राप्ति होती है तथा स्थानान्तरण होता है।
  2. यदि मुंथा  चंद्रमा के घर में हो यानी मुन्थेश चंद्रमा हो या चंद्रमा से युक्त या दृष्ट हो तो धर्म तथा यश की वृद्धि होती है, शरीर रोगरहित होता है, चित्त में संतोष होता है तथा बुद्धि की वृद्धि होती है। यदि पाप ग्रह से दृष्ट हो तो कष्ट प्राप्ति होती है। 
  3. यदि मुन्था मंगल के घर में अथवा मंगल से युक्त या दृष्ट हो तो पित्त रोग होता है। शस्त्र से चोट लगने तथा रक्तस्राव होने की आशंका रहती है। यदि मुन्थेश पर शनि की दृष्टि हो तो उपरोक्त फल में वृद्धि हो जाती है। 
  4. यदि मुन्था बुध के घर में, अथवा बुध से युक्त या दृष्ट हो तो पत्नी, बुद्धि, लाभ, सुख, धर्म तथा यश मिलते हैं, परंतु पाप ग्रह से दृष्ट या युक्त हो तो कष्ट मिलता है। 
  5. यदि मुन्था गुरु से युक्त, दृष्ट या गुरु की राशियों में हो तो पुत्र तथा स्त्री से सुख मिलता है।  धन-धान्य की वृद्धि होती है। 
  6. यदि मुन्था शुक्र के घर में अथवा शुक्र से दृष्ट अथवा युक्त हो तो सुख, यश, धर्म-परायणता, सुबुद्धि तथा पत्नी से सुख प्राप्त होता है। 
  7. यदि मुन्था शनि के घर में हो अथवा शनि से दृष्ट या युक्त हो तो वातरोग, मानहानि, अग्निभय तथा धननाश होता है, परंतु गुरु की दृष्टि से उपरोक्त दोष समाप्त हो जाते है। 
  8. यदि मुन्थेश वर्षलग्न अथवा जन्मलग्नेश हो या बलवान होकर केन्द्र, त्रिकोण, द्वितीय अथवा एकादश स्थान में हो तो लाभ की प्राप्ति होती है। 
  9. यदि मुन्थेश १, ६, ८, १२वें स्थान में वक्री, अस्तंगत, पाप ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो तथा क्रूर ग्रहों से चौथे या सातवें स्थान पर हो तो रोगभय, धननाश तथा कुशलता का अभाव होता है। 
  10. यदि मुन्थेश अष्टमेश के साथ बैठा हो या अष्टमेश से १, ४, ७, १०वी दृष्टि में हो तो मृत्युतुल्य कष्ट होता है। 
  11. छठे या आठवें भाव में स्थित मुन्थेश की दशा मारक होती है। 
वर्षलग्नेश 
  1. वर्ष लग्नेश यदि सूर्य हो (लग्न सिंह राशि हो) तो दुःख, व्याकुलता तथा मजबूरी रहती है। 
  2. वर्ष लग्नेश चंद्रमा हो तो मनुष्य पराश्रयी तथा क्षीण होता है। 
  3. मंगल वर्ष लग्नेश होने पर मनुष्य रोगी रहता है तथा विवाद एवं विरोध करने को उद्यत रहता है। 
  4. बुध वर्ष लग्नेश हो तो बुद्धि, विद्या आदि की वृद्धि होती है। 
  5. वर्ष लग्नेश गुरु या शुक्र हों तो अत्यंत सुख की प्राप्ति होती है। 
  6. शनि वर्ष लग्नेश हो तो कलह, उद्वेग तथा अशुभ कार्यों का बोलबाला रहता है।